क्या ऑपरेशन सिंदूर को लेकर दुनियाभर में भारत का पक्ष रखने वाले अपने सांसदों को दरकिनार कर रही कांग्रेस?
ऑपरेशन सिंदूर पर संसद में बहस के दौरान कांग्रेस ने शशि थरूर, मनीष तिवारी जैसे वरिष्ठ सांसदों को बोलने का मौका नहीं दिया, जबकि ये नेता अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का पक्ष रख चुके थे. पार्टी के इस फैसले ने आंतरिक मतभेद, वैचारिक असहजता और रणनीतिक भ्रम को उजागर कर दिया है. यह निर्णय कांग्रेस की चुनावी रणनीति को प्रभावित कर सकता है.

भारत सरकार द्वारा ऑपरेशन सिंदूर को आतंकी हमले के जवाब में अंजाम दिए जाने के बाद यह मुद्दा संसद से लेकर अंतरराष्ट्रीय मंचों तक चर्चा का केंद्र बना. कांग्रेस पार्टी के कुछ वरिष्ठ सांसद जैसे शशि थरूर, मनीष तिवारी और अमर सिंह ने विदेशी प्रतिनिधिमंडलों में जाकर भारत का पक्ष दृढ़ता से रखा, लेकिन जब संसद में इस पर बहस का मौका आया तो कांग्रेस ने इन दिग्गजों को बोलने का मौका नहीं दिया. यह फैसला पार्टी की रणनीतिक प्राथमिकताओं और आंतरिक समीकरणों पर बड़ा सवाल खड़ा करता है.
पूर्व केंद्रीय मंत्री मनीष तिवारी ने अपनी नाराजगी को बेहद प्रतीकात्मक तरीके से जताया. उन्होंने पुराने देशभक्ति गीत “भारत की बात सुनाता हूं…” की पंक्तियों के साथ सोशल मीडिया पर कांग्रेस के फैसले पर तंज कसा. यह न केवल उनका व्यक्तिगत विरोध था, बल्कि इस बात की ओर भी इशारा करता था कि वे खुद को भारत का सच्चा प्रतिनिधि मानते हैं, जिसे पार्टी दरकिनार कर रही है.
थरूर की चुप्पी बहुत कुछ कहती है
शशि थरूर, जो कि विदेश नीति और वैश्विक मंचों पर भारत की प्रभावशाली आवाज़ माने जाते हैं उन्होंने भी इस मुद्दे पर सार्वजनिक रूप से कुछ कहने से इनकार कर दिया. लेकिन उनका 'मौन व्रत' और मीडिया के सवालों पर चुपचाप मुस्कुराते हुए सदन में प्रवेश करना, कई राजनीतिक अर्थ लिए हुए था. यह चुप्पी असहज सहमति का संकेत थी या आंतरिक असहमति का इशारा. यह स्पष्ट नहीं, लेकिन संदेश ज़रूर दे गई.
बोलने वालों की नई लिस्ट में अनुभव की अनदेखी
कांग्रेस ने जिन सांसदों को ऑपरेशन सिंदूर पर बहस के लिए चुना, उनमें कई नए और अपेक्षाकृत कम अनुभवी चेहरे हैं- जैसे गौरव गोगोई, प्रणीति शिंदे, सप्तगिरि उलाका आदि. जबकि थरूर, तिवारी और खुर्शीद जैसे अनुभवी और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाने-पहचाने चेहरों को दरकिनार कर दिया गया. इससे यह साफ दिखता है कि पार्टी इस बार किसी और 'लाइन' के साथ चल रही है. एक ऐसी लाइन जिसमें अनुभव से ज्यादा "राजनीतिक विश्वसनीयता" और पार्टी लाइन की निष्ठा को तरजीह दी जा रही है.
क्या सरकार की ‘तारीफ’ बन गई कांग्रेस में पाप?
एक अहम कारण जो सामने आया वह यह था कि इन वरिष्ठ नेताओं ने भारत सरकार की ऑपरेशन सिंदूर और उससे पहले सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कार्रवाइयों की विदेशों में तारीफ की थी. कांग्रेस, जो लगातार मोदी सरकार की विदेश नीति पर सवाल उठाती रही है, उन नेताओं से असहज महसूस कर रही है जो सार्वजनिक मंचों पर राष्ट्रीय हित को प्राथमिकता देते हुए सरकार के कदमों का समर्थन करते हैं- even if partially. यह पार्टी के अंदर एक विचारधारा-संघर्ष का संकेत हो सकता है.
थरूर और तिवारी की दुविधा: पार्टी लाइन या राष्ट्र हित?
शशि थरूर ने स्पष्ट किया कि अगर उन्हें बोलने का मौका मिलता, तो वे वही कहते जो उन्होंने विदेशों में कहा. लेकिन ऐसा कहना कांग्रेस की आधिकारिक लाइन के विपरीत होता. ऐसे में उन्होंने बोलने से इंकार करना ही बेहतर समझा. वहीं तिवारी ने दावा किया कि उन्होंने बोलने की इच्छा जताई थी, लेकिन उन्हें नकार दिया गया. दोनों नेताओं की स्थिति यह दर्शाती है कि जब राष्ट्रहित और पार्टी नीति के बीच टकराव होता है, तब एक नेता के लिए क्या दुविधा उत्पन्न होती है.
कांग्रेस की रणनीति को खतरा
केरल और पंजाब जैसे राज्यों में कांग्रेस पहले ही राजनीतिक चुनौतियों से जूझ रही है. अगर शशि थरूर और मनीष तिवारी जैसे स्थानीय प्रभावशाली नेता पार्टी से नाराज़ रहते हैं या मुखालफत करते हैं, तो आगामी विधानसभा चुनावों में यह कांग्रेस को भारी पड़ सकता है. खासकर तब, जब भाजपा विपक्ष की कमजोरी को भुनाने की कोशिश में लगी हो. राहुल गांधी ने अभी भले ही थरूर के खिलाफ कार्रवाई से इंकार किया हो, लेकिन राज्य इकाइयों ने उन्हें किनारे करना शुरू कर दिया है.
कांग्रेस की डबल चुनौती
कांग्रेस इस वक्त दोहरी चुनौतियों से जूझ रही है. एक तरफ वह भाजपा के राष्ट्रवादी नैरेटिव का सामना कर रही है, और दूसरी तरफ पार्टी के भीतर खुद की असहजता से जूझ रही है. शशि थरूर, मनीष तिवारी जैसे नेता कांग्रेस के लिए 'ब्रेन पॉवर' हैं, लेकिन वे पार्टी की वैचारिक ‘डिसिप्लिन’ में फिट नहीं बैठते. अगर कांग्रेस उन्हें खोती है या अनदेखा करती है, तो यह पार्टी की बौद्धिक और वैचारिक ताकत को कमजोर कर सकता है.