गाली देना इंसान की ज़रूरत है या केवल एक आदत? विज्ञान-धर्म और इतिहास के चश्मे से एक नजर...
गाली देना सिर्फ अपमान नहीं, बल्कि इंसान की सबसे पुरानी ‘भावनात्मक भाषा’ है. आदिमानव युग में चीख-चिल्लाहट से शुरू हुई यह परंपरा भाषा के साथ विकसित हुई और आज विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संदर्भों में मौजूद है. गाली गुस्सा, मज़ाक, दोस्ती या तनाव राहत के लिए दी जाती है. विज्ञान मानता है कि इससे एड्रेनालाईन रिलीज़ होता है, लेकिन आदत बनना मानसिक और सामाजिक नुकसान पहुंचा सकती है. धर्म गाली को नकारता है, इसलिए संयमित भाषा सबसे बेहतर उपाय है.
बिहार की राजनीति इन दिनों एक अनोखे मोड़ पर है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मां को लेकर विपक्षी नेताओं की ओर से की गई अभद्र टिप्पणी ने पूरे देश में बहस छेड़ दी है. मोदी ने इसे सिर्फ अपनी मां का नहीं, बल्कि हर भारतीय मां-बहन-बेटी का अपमान बताया. सियासी बयानबाज़ी के बीच अब गाली खुद चर्चा का केंद्र बन गई है.
असल में, गाली कोई नई परंपरा नहीं है. यह इंसान की जुबान पर चढ़ी वह आदत है जो कभी गुस्से में फूटती है, कभी मज़ाक में तैरती है और कभी रिश्तों की नज़दीकी जताती है. लेकिन सवाल ये है कि गाली सिर्फ अपमान है या इसके पीछे कोई गहरी कहानी छुपी है? दरअसल, गाली देना इंसान के इतिहास, संस्कृति, विज्ञान और मनोविज्ञान से इतनी गहराई से जुड़ा है कि इसे समझे बिना हमारी सभ्यता की भाषा पूरी नहीं होती.
दरअसल, गाली की शुरुआत भाषा से पहले हुई थी. आदिमानव गुस्से या डर को चीख और गरज से व्यक्त करता था. भाषा विकसित हुई तो इंसान ने अपनी नाराज़गी और विरोध को शब्दों में ढाला- और यही बन गई गालियां. ग्रीक-रोमन सभ्यता से लेकर संस्कृत साहित्य और फिर भारतीय समाज तक, गालियां हमेशा से मानव संस्कृति का हिस्सा रही हैं.
आज गालियों के कई प्रकार हैं - व्यक्तिगत अपशब्द, जातीय या सांस्कृतिक गालियां, मज़ाकिया गालियां, राजनीतिक व्यंग्यात्मक गालियां और सबसे विवादित शारीरिक या यौन संदर्भ वाली गालियां. विज्ञान मानता है कि गाली देने से कभी-कभी तनाव और दर्द सहने की क्षमता बढ़ती है, लेकिन इसके नुकसान भी गहरे हैं.
तो सवाल है कि गाली देना इंसान की ज़रूरत है या केवल एक आदत?
गाली देना सुनने में भले ही गंदा लगे, लेकिन सच ये है कि यह इंसान की सबसे पुरानी 'भावनात्मक भाषा' है. जब शब्द ही नहीं बने थे, तब भी इंसान गुस्से, डर और विरोध को आवाज़ और हावभाव से व्यक्त करता था. सवाल ये है कि यह परंपरा कब शुरू हुई, क्यों बनी और आज तक क्यों चली आ रही है? आइए जानते हैं.
गाली की शुरुआत कहां से हुई?
आदिमानव युग में जब भाषा नहीं थी, तब लोग गुस्सा या डर जताने के लिए चिल्लाते, दांत पीसते या आक्रामक आवाज़ें निकालते थे. यही उनके लिए गाली का सबसे पहला रूप था. जैसे-जैसे भाषा विकसित हुई, इंसान ने गुस्से और अपमान को शब्दों के जरिए व्यक्त करना शुरू किया. इस तरह गालियां एक 'इमोशनल शॉर्टकट' बन गईं. ग्रीक और रोमन साहित्य में अपमानजनक भाषा के उदाहरण मिलते हैं. वहीं, संस्कृत ग्रंथों में "अभद्र भाषा" से बचने की चेतावनी दी गई.
गाली क्यों दी जाती है?
गाली देना हमेशा बुरा नहीं माना गया. इसके पीछे कई कारण हैं:
- गुस्सा निकालने के लिए - जब भावनाएं काबू से बाहर हों.
- दबदबा दिखाने के लिए - मर्दानगी या ताक़त जताने का तरीका.
- मज़ाक और दोस्ती में - दोस्तों के बीच ‘कैज़ुअल स्लैंग’.
- तनाव घटाने के लिए - गाली देना स्ट्रेस रिलीज़ का शॉर्टकट भी है.
यानी, गाली इंसान की "भावनात्मक डिक्शनरी" का हिस्सा बन चुकी है.
विज्ञान क्या कहता है?
वैज्ञानिक रिसर्च बताती है कि गाली देने पर शरीर में एड्रेनालाईन निकलता है, जिससे तनाव और दर्द सहने की क्षमता बढ़ती है. यूनिवर्सिटी ऑफ कील, UK के एक अध्ययन में पाया गया कि बर्फ के पानी में हाथ डालते समय गाली देने वाले लोग बिना गाली देने वालों से ज्यादा देर तक हाथ रख पाए. हालांकि, लगातार गाली देने की आदत मस्तिष्क की भाषा और सामाजिक व्यवहार को नुकसान पहुंचा सकती है.
गाली सुनने का असर
गाली का असर परिस्थिति पर निर्भर करता है. अगर गाली अपमानजनक हो तो व्यक्ति को दुख, शर्म और गुस्सा महसूस होता है. लेकिन दोस्ती और मजाक में कही गई गाली उतनी बुरी नहीं लगती, बल्कि कई बार हंसी का कारण भी बन जाती है. लंबे समय तक अपमानजनक गालियां सुनना आत्म-सम्मान और रिश्तों पर नकारात्मक असर डाल सकता है.
गाली का इतिहास और विकास
प्राचीन भारत में गालियों का सीधा ज़िक्र नहीं है, लेकिन "अशिष्ट भाषा" से सावधान रहने की सलाह दी गई. मुगल और ब्रिटिश दौर में क्षेत्रीय गालियां तेज़ी से विकसित हुईं. इनमें जातीय, लैंगिक और पारिवारिक अपमान शामिल था. आज की हिंदी, पंजाबी, मराठी, तमिल और भोजपुरी गालियां भी समाज और संस्कृति से ही जन्मी हैं.
क्या गाली देने से संतुष्टि मिलती है?
हां, गाली देने से अल्पकालिक संतुष्टि मिलती है. इसे कैथार्सिस इफ़ेक्ट कहा जाता है - यानी मन की भड़ास निकाल कर हल्का महसूस करना. लेकिन यह असर स्थायी नहीं होता. लगातार गाली देने से यह आदत बन सकती है, जो सामाजिक और मानसिक नुकसान का कारण बनती है. गाली असल में एक इमोशनल बैंड-एड है, इलाज नहीं.
धार्मिक दृष्टिकोण
अधिकतर धर्म गाली देने को नकारात्मक मानते हैं:
- गीता: संयमित वाणी और सत्य बोलने की सलाह
- बाइबल: गंदे शब्दों से बचने की चेतावनी
- इस्लाम: गाली देना हराम और कमजोर ईमान की निशानी
- बौद्ध धर्म: ‘सम्यक वाक्’ यानी अपशब्द न बोलना
धर्म मानते हैं कि शब्द तलवार से भी गहरे असर छोड़ते हैं
गाली - आदत या ज़रूरत?
गाली देना इंसान की फितरत का हिस्सा है, लेकिन इसकी आदत नुकसानदेह हो सकती है. यह भावनाओं का शॉर्टकट तो है, मगर रिश्तों को बिगाड़ सकता है. सही तरीका यही है कि गुस्से और तनाव को शब्दों से नहीं, बल्कि समझ और संयम से संभाला जाए.





