Gen Z Protest Nepal: नेपाल में क्‍यों नहीं मिटती राजशाही की छाया, बार-बार क्‍यों फेल होते हैं प्रधानमंत्री?

नेपाल में लोकतंत्र लागू हुए करीब दो दशक हो गए हैं, लेकिन राजनीतिक अस्थिरता खत्म होने की उम्मीद फिलहाल बहुत कम है. बार बार गठबंधन टूटते हैं और सरकारें गिरती हैं और फिर बनती हैं. इससे जनता को लगातार निराशा हाथ लगती है. सवाल यह उठ रहा है कि आखिर प्रधानमंत्री बार-बार क्यों फेल हो जाते हैं? क्या राजशाही ही नेपाल के लिए बेहतर विकल्प था?;

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Curated By :  धीरेंद्र कुमार मिश्रा
Updated On : 12 Sept 2025 10:59 AM IST

नेपाल का लोकतांत्रिक सफर हमेशा संकटों से घिरा रहा है. खासकर 2008 में राजशाही खत्म होने और गणतंत्र बनने के बाद प्रधानमंत्री की कुर्सी हमेशा अस्थिर रही हैं. संसद का विघटन, गठबंधन की राजनीति, बाहरी दबाव, वैचारिक संघर्ष और नेताओं के बीच आपसी टकराव ने प्रधानमंत्री की कुर्सी को अस्थिर बना दिया. जनता जहां विकास और स्थिरता की उम्मीद करती है. इसके उलट लोगों को राजनीतिक खींचतान का सामना करने के लिए मजबूर होना पड़ताहै. पिछले कुछ दिनों से नेपाल में एक बार फिर सियासी अराजकता का माहौल है. ऐसे में नेपाल में एक बार फिर बहस तेज हो गई है कि क्या राजशाही की व्यवस्था ही नेपाल के लिए बेहतर थी? सियासी उठापटक से निराश लोगों को अब राजशाही के स्थिर शासन की यादव आने लगी हैं.

नेपाल में क्यों नहीं टिक पाते प्रधानमंत्री?

नेपाल का राजनीतिक इतिहास अस्थिरता से भरा रहा है. लगभग हर साल सरकारें गिरती रही हैं. इसके पीछे प्रमुख वजह दल-बदल, गठबंधन की राजनीति, आपसी अविश्वास और सत्ता संघर्ष है.

गठबंधन की मजबूरी

जब से नेपाल में लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत चुनाव के जरिए सरकार का गठन होने लगा है, तब से नेपाल में शायद ही कोई पार्टी पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई है. इससे गठबंधन सरकार बनती है, जो स्थायी नहीं रह पाती. गठबंधन में शामिल दल अपने-अपने सियासी हितों के बीच एक साथ सरकार चलाने को तालमेल नहीं बैठा पाते हैं. इस नतीजा यह होता है कि वहां पर सरकार स्थिर नहीं रह पाती.

व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा

सियासी दलों के नेताओं के बीच सत्ता की खींचतान और पद की राजनीति ने स्थिर शासन को असंभव बना दिया है. ऐसा इसलिए कि बड़े नेता खुद की निजी महत्वाकांक्षा से बाहर नहीं निकल पाते हैं.

संविधान की चुनौतियां

सियासी अस्थिरता की वजह से नया संविधान कई बार विवादों में घेरे में आ जाता है, जिससे सत्ता संचालन में टकराव पैदा होता है. जन अपेक्षाओं की अनदेखी, खासकर भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और विकास योजनाओं में देरी ने लोगों का भरोसा तोड़ा है.

क्या राजशाही बेहतर विकल्प थी?

दरअसल, राजशाही के दौर में सरकारें बदलने का संकट कम था, जिससे प्रशासनिक स्थिरता बनी रहती थी. राजा अपने हिसाब से फैसला लेते रहते थे. हालांकि, राजशाही की कमियों की वजह से लोगों को निराशा हाथ लगी. राजशाही में लोकतांत्रिक अधिकार सीमित थे और जनता ने लंबे संघर्ष के बाद लोकतंत्र हासिल किया. लेकिन मौजूदा राजनीतिक अस्थिरता ने जनता को सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या राजशाही में कम से कम स्थिर शासन तो था.

जनता की नजर में समस्या का समाधान क्या?

जेन जैड आंदोलन के बाद नेपाल में चर्चा है कि संविधान और संसद को स्थिरता मिले. राजनीतिक दलों के नेता जवाबदेही के साथ काम करें. दल और नेता केवल सत्ता की राजनीति छोड़कर जनता की समस्याओं पर ध्यान दें. देश के आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित करें. रोजगार, बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा को बढ़ा मिले. ऐसा होने पर ही सियासी दलों के नेता जनता को अपने भरोसे में पाएंगे.

नेपाल में राजशाही का अंत कैसे हुआ?

नेपाल में लोकतांत्रिक अधिकारों की बहाली के लिए राजशाही के खिलाफ 1990 के दशक में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुआ था. पहली बार 1990 का जनआंदोलन बहुदलीय लोकतंत्र की बहाली के लिए हुआ था. उस समय राजा केवल संवैधानिक प्रमुख बने. राजशाही के खिलाफ माओवादियों का विद्रोह 1996 से 2006 तक चला.

इस बीच 2001 में राजशाही के खिलाफ विद्रोह हुअ और राजा वीरेन्द्र और शाही परिवार के अधिकांश सदस्य मारे गए. इससे जनता का विश्वास हिल गया. राजा ज्ञानेंद्र शाह ने अपनी महत्वाकांक्षा को पूरी करने के लिए 2005 में संसद भंग कर पूर्ण सत्ता हासिल कर ली, जिससे लोगों का गुस्सा भड़क गया.

उसके बाद नेपाल में एक बार फिर जन आंदोलन-II 2006 में भड़ उठा. लोकतांत्रिक दलों और माओवादियों के संयुक्त आंदोलन के सामने राजा ज्ञानेंद्र को झुकना पड़ा. फिर से संसद बहाल हुई. 2008 संविधान सभा ने औपचारिक रूप से राजशाही समाप्त कर नेपाल को गणतंत्र घोषित कर दिया. उसके बाद चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार तो बनी, अस्थिरता भी लगातार बनी हुई है. जिसकी वजह से सियासी अराजकता आज भी नेपाल में जारी है. इससे परेशान होकर लोग एक बार राजशाही की बात करने लगे है.

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