मुखौटे के पीछे तानाशाह! यूनुस से क्यों छिन गया भरोसे का अंतिम धागा? जनरल से जनता तक मचा असंतोष
कभी सर्वसम्मति से बनी मुहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार नौ महीने में अविश्वास के दलदल में फंस गई है. गुपचुप फैसलों से राजनीतिक दल, सेना और नागरिक समाज सभी दूर हो चुके हैं. फैसले पारदर्शिता से रहित हैं, विरोध सड़कों तक पहुंच चुका है, और यूनुस बेचैनी जताकर नेतृत्व संकट उजागर कर चुके हैं, जिससे देश पर अस्थिरता का साया बढ़ गया है.;
एक समय था जब मुहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार को बांग्लादेश की राजनीतिक और सामाजिक स्थिरता की उम्मीद माना गया था. सेना, छात्र संगठनों और तमाम राजनीतिक दलों का उन्हें पूरा समर्थन था. लेकिन 9 महीने बाद हालात पूरी तरह पलट चुके हैं. वही यूनुस जो सबके चहेते थे, अब राजनीतिक दलों से लेकर सशस्त्र बलों और नागरिक समाज तक के निशाने पर हैं. यह बदलाव सिर्फ असंतोष का नहीं, बल्कि गहरे अविश्वास का संकेत है.
अंतरिम सरकार की शुरुआत एक साझा सहमति से हुई थी. राजनीतिक दलों को भरोसा दिलाया गया था कि फैसले मिल-बैठकर लिए जाएंगे. लेकिन समय के साथ यूनुस सरकार का चेहरा बदलता गया. अब फैसले गुपचुप लिए जाते हैं और दलों को सिर्फ नतीजे बताए जाते हैं. म्यांमार में मानवीय गलियारा हो या चटगांव पोर्ट का संचालन इन अहम फैसलों में राजनीतिक दलों को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया. इसका नतीजा यह हुआ कि विपक्षी दल अब यूनुस को सत्ता का ‘तानाशाह चेहरा’ मानने लगे हैं.
सेना के साथ भी दरारें गहराईं
राजनीतिक असहमति के साथ-साथ सेना के साथ रिश्ते भी खराब हो गए हैं. सेना प्रमुख जनरल वकार-उज-जमां ने हाल ही में सार्वजनिक रूप से बयान दिया कि सरकार ने रक्षा मामलों में कई फैसले सेना को बताए बिना लिए. यह वक्तव्य स्पष्ट संकेत है कि सेना और सरकार के बीच भरोसे की डोर टूट चुकी है. सूत्रों का यह भी कहना है कि यूनुस की शेख हसीना से सहानुभूति के चलते जनरल वकार उनसे अलग-थलग हो गए थे.
‘तानाशाही रवैये’ ने बिगाड़ा जनमत
यूनुस सरकार की कार्यशैली में छिपी तानाशाही प्रवृत्ति अब खुलकर सामने आ चुकी है. फैसलों में पारदर्शिता की कमी और जवाबदेही से बचाव, आम लोगों और बुद्धिजीवियों को चुभने लगा है. अब जनता को लगने लगा है कि यूनुस का ‘लोकतांत्रिक चेहरा’ एक मुखौटा था, जिसके पीछे सत्ता की हठधर्मिता छिपी थी.
विवादों का सिलसिला और बढ़ता अविश्वास
BNP नेता इशराक हुसैन को मेयर घोषित करने के बावजूद शपथ से रोकना, छात्रों को सलाहकार बनाना, और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की भूमिका ये सभी विवाद सरकार की निष्पक्षता पर सवाल खड़े कर रहे हैं. BNP और NCP दोनों ही अलग-अलग बयानों में सरकार के सलाहकारों को पक्षपाती बता रहे हैं. ऐसे में सरकार के निर्णयों को कोई भी राजनीतिक दल स्वीकार नहीं कर रहा.
मुख्य सलाहकार की बेचैनी भी उजागर
बीबीसी को दिए इंटरव्यू में यूनुस ने कहा कि अगर उन्हें 'बंधक' बनाकर काम करना पड़ेगा तो वे नहीं रह सकते. यह बयान बताता है कि सरकार के अंदर भी गहरे मतभेद हैं. यह सिर्फ एक प्रशासनिक संकट नहीं बल्कि नेतृत्व का संकट बनता जा रहा है, जिसमें सरकार का मुख्य चेहरा खुद असहाय नजर आता है.
विरोध-प्रदर्शनों से जनता बेहाल
राजनीतिक संकट अब सड़कों पर आ चुका है. काक्रैल चौराहे और सिटी हॉल के पास विरोध प्रदर्शन से आम लोगों का जनजीवन प्रभावित हो रहा है. BNP का तर्क है कि जब सरकार ने उनकी मांगों पर ध्यान नहीं दिया, तब उन्हें सड़कों पर उतरना पड़ा. लेकिन जनता के लिए यह राजनीतिक रस्साकशी अब परेशानी का सबब बनती जा रही है.
सिर्फ संवाद ही है एकमात्र समाधान
अगर यूनुस सरकार अपनी साख बचाना चाहती है, तो उसे तत्काल सभी पक्षों के साथ संवाद शुरू करना होगा. चुनाव की तारीखें, प्रक्रिया और अधिकार क्षेत्र पर स्पष्टता ही एकमात्र रास्ता है. सेना, राजनीतिक दल और नागरिक समाज के साथ टकराव किसी भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को विफल कर सकता है. अगर यह सरकार वाकई तटस्थ और संवेदनशील है, तो उसे अब संवाद और सुधार की पहल करनी ही होगी.