INSIDER: मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण करके क्या “PK” नामचीन पार्टियों का ‘खेल’ बिगाड़ेंगे, मुसलमानों पर JDU-BJP खामोश क्यों?

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण बड़ा मुद्दा बन गया है. प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी मुस्लिम मतदाताओं पर फोकस कर रही है, जिससे RJD-कांग्रेस के पारंपरिक वोट बैंक पर असर पड़ सकता है. सीमांचल इलाकों में AIMIM भी सक्रिय है, जबकि BJP-JDU पसमांदा मुस्लिमों पर नजरें गड़ाए हैं.;

इतिहास उठाकर देख लीजिए, भारत में देश या फिर किसी भी प्रदेश में (कुछ राज्यों को छोड़कर) मुस्लिम वोट (मुस्लिम मतदाता) हमेशा से ही नामचीन और क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों के लिए ‘इस्तेमाल करके फेंक देने वाला तुरुप का पत्ता’ सा साबित होता रहा है. ऐसा ही कुछ अब बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में होना तय है. इसके लिए हर पार्टी ने अपनी अपनी रणनीति तो बनाई है. इनमें से मगर पुरानी मजबूत राजनीतिक पार्टियां अपनी अंदरखाने की ‘मुस्लिम मतदाताओं’ को घेरने-बटोरने की रणनीति का खुलासा नहीं कर रही हैं.

वहीं दूसरी ओर मुस्लिम मतदाता को लेकर जिस तरह से पीके (प्रशांत कुमार) की पार्टी जनसुराज आगे बढ़ रही है, उससे अंदेशा पैदा होने लगा है कि जनसुराज पार्टी का विधानसभा चुनाव में अपना चाहे भले ही कुछ भी हाल हो, विधानसभा में वर्चस्व कायम कर सके या नहीं. इसके बाद भी मगर पीके की पार्टी बाकी नामचीन पॉलिटिकल पार्टियों का “चुनावी-राजनीतिक खेल” तो कुछ हद तक बिगाड़ने की राह पर ही आगे बढ़ रही है. यह तो चुनाव परिणाम ही तय करेंगे कि जनसुराज पार्टी मुस्लिम मतदाता का इस्तेमाल खुद अपने लिए कर सकी और कितना इस्तेमाल जनसुराज पार्टी को किसी भी कीमत पर बिहार राज्य विधानसभा का मुंह तक न देखने देने की जिद पर अड़ी नामचीन राजनीतिक पार्टियों को हासिल हो सका.

इंडिया गठबंधन ने ‘मुस्लिम वोट’ दूहा है

कुल जमा राज्य में इस चुनावी धींगामुश्ती या कहिए धक्कमधक्का में मुस्लिम मतदाता हर बार की तरह इस बार भी ‘लावारिस’ तो नहीं रहेगा. यह तय हो चुका है. भले ही बिहार का चुनाव हमेशा की तरह इस बार भी राजनीतिक-साम्प्रदायिक आधार पर ही क्यों न लड़ा जा रहा हो. ‘कौम के वर्चस्व’ की इस चुनावी लड़ाई के किले को भेदने में मुस्लिम मतदाता बहुत मददगार साबित होगा, खुलकर न सही तो इशारों-इशारों में ही राज्य के मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चुनावी-जनसभाओं-रैलियों में समझाते आ रहे हैं. मुस्लिम मतदाताओं के अपने पक्ष में रिझाने की खुली कोशिश में उन्होंने आगाह किया है कि, इतिहास उठाकर देखो तो पता चलता है इंडिया गठबंधन और उसके बड़े नेताओं ने मुस्लिम मतदाताओं को वक्त जरूरत के लिए हिसाब से चुनावी वैतरणी पार करने के लिए हमेशा सिर्फ दूहा ही है.

मुस्लिम मतदाता को ह़क से वंचित रखा

बिहार राज्य की राजनीति पर मजबूत पकड़ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक मुकेश बालयोगी कहते हैं, “नीतीश कुमार का दावा है कि साल 2005 से पहले तक बिहार में मुस्लिम समुदाय के लिए कोई ठोस काम नहीं हो सका. क्योंकि उस दौर में राज्य में उनकी सरकार नहीं थी. इंडियन नेशनल डेवलमेंटल इंक्लूसिव अलायंस यानी इंडिया गठबंधन मुस्लिम वोट को सिर्फ ‘वोट-बैंक’ तक सीमित रखना चाहता है. मुस्लिम कौम को सत्ता में उनका ह़क या प्रतिनिधित्व इंडिया गठबंधन ने न कभी पहले देना चाह न आइंदा ऐसा करने की उसकी मंशा ही है.

मुस्लिम-वोट में कौन कैसे सेंध लगाएगा

बिहार विधानसभा के इस चुनाव में स्वास्थ्य सेवा, बाढ़, बेरोजगारी, शराबबंदी, करप्शन जैसे मुद्दे तो उछाले ही जा रहे हैं. इन सबके ऊपर मगर ‘जाति वर्चस्व’ सर्वोपरि होकर सवारी गांठेगा. ऐसे में सवाल यह पैदा होना भी लाजिमी है कि राज्य के विकास से ज्यादा कौम के वर्चस्व की इस राजनीतिक लड़ाई में आखिर मुस्लिम मतदाता की हैसियत क्या होगी? क्योंकि बिहार में जब भी चुनावी बिगुल बजता है तब-तब यहां MY फैक्टर का शोर मचने लगता है. एमवाई यानी मुस्लिम और यादव कौम का मत और मतदाता. मीडिया में मौजूद आंकड़ों पर नजर डालें तो राज्य की कुल जनसंख्या में तकरीबन 18 फीसदी भागीदारी मुस्लिम कौम की है. यह भी जग जाहिर है कि अतीत में मुस्लिम वोट कांग्रेस समर्थित राजद को ही जाता रहा है. इन हालातों में बीजेपी और जनसुराज वाले पीके को लेकर देखना यह है कि क्या वे कांग्रेस-राजद के इतने मजबूत वोट बैंक में इस बार सेंध लगाकर उन्हें कितना नुकसान दे पाते हैं और खुद के फायदे का प्रतिशत उनका कितना रहेगा. जनसुराज- एआईएमआईएम इस गठबंधन में सेंध लगाने से अगर चूक गए तो मुस्लिम मतदाता राजद और कांग्रेस को सफल बनाने में कामयाब सिद्ध हो सकता है.

सीमांचल में कठिन है डगर वोट की

साल 2023 में जातिगत सर्वे को मानें तो बिहार में मुस्लिम आबादी करीब 17.7 प्रतिशत है. इस अनुपात का भी एक बड़ा हिस्सा सीमांचल के इलाकों में मौजूद हैं. इन सीमांचल इलाकों की विधानसभा सीटों पर 30 फीसदी और उससे कुछ अधिक भी मुस्लिम मतदाता है. यहां इनका मत अधिकांशत: आरजेडी व जेडीयू और कांग्रेस ही बटोरती रही है. कहने को इस वोट-बटोरने के क्रम में साल 2025 के राज्य विधानसभा चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने सेंध लगाकर विरोधियों की सांसें फुला दी थीं. इस बार तो इस लड़ाई में AIMIM के संग-संग पीके की जनसुराज पार्टी भी टक्कर देने को मैदान में मौजूद है. अब अगर बात बिहार की कुल मुस्लिम आबादी का भी अलग अलग वर्गीकरण करें तो इस हिसाब से, यहां 17.7 प्रतिशत मुस्लिम आबादी में 3 प्रतिशत पिछड़ा मुस्लिम वर्ग, 4 फीसदी अशराफ (उच्च या सवर्ण मुस्लिम), 10 प्रतिशत पिछड़ा यानी पसमांदा मुस्लिम वर्ग मौजूद है. बीते कुछ साल से मुस्लिमों के इस गुणा-गणित में से सबसे ज्यादा प्रतिशत वाले पसमांदा मुस्लिम पर एनडीए अपनी नजरें गड़ाए बैठा है. यह बात भी जग-जाहिर है. इस बार बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी और जेडीयू को उम्मीद हो सकती है कि वक्फ संशोधन कानून के चलते उन्हें पसमांदा वर्गीय मुस्लिम मतदाता की मदद मिल सकती है.

सीमांचल में ओवैसी खूब खेल बिगाड़ते हैं

अगर बात राज्य में विधानसभा सीटों की करें तो 243 में से करीब 87-88 ऐसी सीटें हैं जिनमें 20-22 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम आबादी है. अंदाजन 11-12 सीटों पर 40 से 45 फीसदी तक मुस्लिम मतदाता है. इस हिसाब से कहा जा सकता है कि राज्य में 45-55 सीटों पर चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों की किस्मत का फैसला राज्य के मुस्लिम मतदाता की मुट्ठी में बंद होना तय है. बात अगर साल 2020 के राज्य विधानसभा चुनाव परिणामों की करें तो पता चलता है कि उस चुनाव में एआईएमआई यानी ओवैसी की पार्टी ने सीमांचल के विधानसभा सीटों पर खेल खूब बिगाड़ा था. तब महागठबंधन ने 24 उम्मीदवार उतारे थे. तब 17 सीटों पर राजद ने विजय पाई और राजद को 7 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा. इन्हीं 7 सीटों में से 5 सीटों पर ओवैसी की पार्टी ने बड़ा खेल करके उन्हें जीत लिया था.

RSS के बीजेपी के हारने से नहीं ओवैसी...

पटना में मौजूद राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पॉलिटिकल पत्रकार मुकेश बालयोगी कहते हैं, “साल 2020 के चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने 5 सीटें जीतकर चौंका दिया था. तब बीजेपी और कांग्रेस सब तिलमिलाईं. तब आरएसएस को बीजेपी के हारने की कोफ्त उतना नहीं था, जितना की आरएसएस को ओवैसी की पार्टी द्वारा सीमांचल क्षेत्र की 24 विधानसभा सीटों में से 5-7 सीटें हथिया लेने का दुख था. हालांकि बाद में ओवैसी की पार्टी के जीते हुए विधायकों में कई इधर उधर चले गए. एकमात्र विधायक जो कहीं किसी अन्य पार्टी में न जाकर ओवैसी के ही साथ रहे. वह इस बार भी चुनाव मैदान में हैं. जहां तक इस बार ओवैसी की पार्टी द्वारा मुस्लिम मतों के ध्रुवीकरण की बात है. मुझे नहीं लगता है कि इस बार मुस्लिम मतदाता ओवैसी के संग खुलकर होगा साल 2020 के चुनाव की तरह. इस पार काफी समीकरण बदले हुए हैं. हां, इतना जरूर है कि इस बार मुस्लिम मतदाता कई फैक्टर्स के मद्देनजर बीजेपी को फायदा पहुंचा सकता है, जहां तक सवाल जनसुराज पार्टी और मुस्लिम मतदाता के बीच का है. तो मुस्लिम मतदाता से नफा नुकसान कराने की हैसियत अभी पीके की नहीं हुई है.”

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