Bihar Election 2025: बिहार की राजनीति के ‘रक्तबीजों’ ने पार्टी को बना डाला है प्राइवेट लिमिटेड कंपनी और बच्चों को प्रोडक्ट
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 से पहले राज्य की राजनीति में वंशवाद और पारिवारिक सत्ता की लड़ाई तेज़ हो गई है. वरिष्ठ नेता अपनी राजनीतिक पार्टियों को “प्राइवेट लिमिटेड कंपनी” की तरह चलाकर बेटा-बेटी को सत्ता में फिट करने की होड़ में हैं. लालू यादव, राबड़ी देवी, नीतीश कुमार से लेकर पासवान परिवार तक-सभी अपने वारिसों को राजनीति में उतार चुके हैं.;
धीरे-धीरे नहीं अब बहुत तेजी से बिहार राज्य विधानसभा-2025 चुनाव की ओर दौड़ रहा है. नए नेताओं को राज्य की राजनीति में पांव जामने की चिंता खाए जा रही है. तो मंझे हुए राजनीतिक खिलाड़ियों के लिए ‘बुढ़ापे’ में भी सत्ता की ललक-लालसा चैन की नींद नहीं सोने दे रही है. मतलब, बिहार के इलेक्शन में नींद सबकी गायब है.
बेचैनी का आलम यह है कि राज्य के तमाम वरिष्ठतम और ढलती उम्र के साथ राजनीतिक पटल से नीचे लुढ़कते-सरकते-खिसकते दिखाई देने वाले राजनीति के ‘रक्तबीज’ खुद की स्वार्थ-सिद्धि की खातिर अपनी 'राजनीतिक-पार्टी' को ‘कंपनी’ बनाकर, उससे ज्यादा से ज्यादा और जल्दी से जल्दी ‘कमा-बटोर’ डालने की मैली चाहत में आकंठ डूबे पड़े हैं. उन्हें दुख इस बात का है कि वक्त के तकाजे और उनकी बढ़ती उम्र के साथ अब सत्ता के सिंहासन से उनकी ‘दूरी’ बनना तय है.
शायद इसे ही कहते हैं 'राजीनीतिक मृगतृष्णा'
ऐसे में इन सत्ता के मठाधीशों को इस बात की चिंता खाए जा रही है कि अगर यह खुद राजनीतिक सिंहासन का सुख भोगकर अगर घर के बाहर चौपाल पर बैठने की हालत में जब आ ही चुके हैं तब, कम से इनकी राजनीतिक-विरासत या कहिए राजनीतिक 'मठाधीशी' को उनकी नई या आगे मौजूद खड़ी पीढ़ी तो संभाल या बचा ही ले. शायद इसे ही कहते हैं 'राजीनीतिक मृगतृष्णा'. राजनीति के गलियारों में अगर पापा के पांवों में चलने की ताकत नहीं बची है. तो पापा जी कम से कम अपने किसी पुत्र या पुत्री को तो ‘सत्ता के सिंहासन’ के आसपास पहुंचाने का गारंटी-फार्म तो अपनी आंखों के सामने भरवा जाएं.
कोई भी नहीं है पीछे
ऐसा नहीं है कि सत्ता के सिंहासन पर किसी न किसी अपने को काबिज कराने की मोहमाया में सिर्फ और सिर्फ बिहार के मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार या आए-दिन कोर्ट-कचहरी जेल में धक्के खाते रहने वाले बिहार में जंगलराज के ‘भीष्म-पितामह’ की पदवी से सुशोभित लालू प्रसाद यादव को ही अपनी अगली पीढ़ी को ‘बिहार की सत्ता में मजबूती से फिट’ करने की चिंता सता रही हो. इस लाइन में बिहार के कई नेता लगे हुए हैं.
बिहार की राजनीति में अपनों के पांव अंगद की तरह जमा रहे नेता
सच पूछिए तो इन नेताओं ने बिहार की राजनीति में अपने हटने से पहले अपनों के पांव 'अंगद' की तरह जमाने के लिए कोई कोर-कसर बाकी नहीं रख छोड़ी है. इस पर राजनीति के इन ढलते सूरजों का यह तुर्रा कि वे 'वंशवाद' की राजनीति में कतई विश्वास नहीं करते हैं. अगर ऐसी ही बात है तब फिर राम विलास पासवान के बेटे चिराग पासवान, चिराग पासवान के बहनोई (पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वर्गीय राम विलास पासवान के दामाद) और जमुई से सांसद अरुण भारती, राष्ट्रीय जनता दल यानी आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव-राबड़ी देवी के दोनों पुत्र छोटे बेटे तेजस्वी यादव और रंगबाजी के लिए बदनाम बड़े बेटे तेज प्रताप यादव, बड़ी बेटी मीसा भारती (पेशे से डॉक्टर राज्यसभा सांसद रह चुकी हैं और साल 2024 में पाटलिपुत्र से लोकसभा सांसद चुनी गईं), छोटी बेटी रोहिणी आचार्य भी राजनीति में एक्टिव हैं. मतलब, जितना जल्दी और जहां तक संभव हो सका बिहार की राजनीतिक के 'रक्तबीज' बन चुके, लालू प्रसाद यादव राबड़ी देवी ने खुद की राजनीतिक-पार्टी को 'कंपनी' बनाकर अपने बेटा-बेटी को उतनी जल्दी ‘फिट’ करके नेता बना ही डाला.
नीतीश कुमार की भी खुली आंखें...
लालू यादव और राबड़ी देवी के सामने इस मामले में भले ही अब तक बिहार के मौजूदा मुख्यमंत्री और लालू यादव की पार्टी व उनकी सल्तनत को 'कोठी' के भीतर तक समेटने में कामयाब रहने वाले नीतीश कुमार सूबे की राजनीति के ‘रक्तबीज’ बनने में कुछ कदम पिछड़ गए हैं. अब लेकिन उनकी आंखें भी खुल चुकी हैं. अब जब उन्हें लगने लगा है कि आइंदा कभी भी किसी भी वक्त उनके नीचे से बिहार की राजनीति का सिंहासन या तो खुद कि खिसक सकता है या फिर जबरिया सिंहासन से उन्हें धकिया कर, बिहार की राजनीति में 'हासिए' पर ले जा पटका सकता है. तो इस डरावने ‘आगाह’ से व्याकुल नीतीश बाबू भी फिलहाल अपने पुत्र का राजनीतिक-भविष्य संवारने की चिंता में बेहाली के आलम में आ चुके हैं. हालांकि इस बात को वे खुलकर राजनीतिक या सत्ता के गलियारों में कभी जाहिर नहीं करते हैं. यही उनकी काबिलियत समझिए या फिर उनकी राजनीतिक-खिलाड़ी के रूप में ‘कथित-योग्यता’.
नेताओं के लिए प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनीं पार्टियां
लालू यादव, राबड़ी देवी हों या फिर नीतीश कुमार अथवा बिहार की राजनीति में पॉलिटिकल करियर की नजर से अंतिम पड़ाव पर खड़ा कोई और नेता अथवा बाहुबली. अब ऐसे सभी को चिंता अपने राजनीतिक भविष्य से ज्यादा अपने बेटा-बेटी को बिहार की राजनीति के मंच पर 'लॉन्च' करने की सताए-खाए जा रही है. भले ही बिहार में उस पार्टी का चाहे कुछ भी हो जिससे यह लंबे समय से जुड़े रहकर खुद सत्ता के सिंहासन का स्वाद चखते रहे हों. पार्टी से पहले इन 'रक्तबीजों' को अगर इस बुरे दौर में चिंता सता रही है तो अपने पुत्र-पुत्री का राजनीतिक भविष्य बनाने और संवारने की. जिस 'राजनीतिक-पार्टी' ने इन्हें 'नेताजी' बनाकर बिहार की सत्ता के सिंहासन का सुख का स्वाद चखाया, वो राजनीतिक पार्टी तो अब अपनों की चिंता में खोए पड़े इन बूढ़े होते नाताओं की नजर में सिर्फ एक अदद 'कंपनी' से ज्यादा और कुछ नहीं रही-बची है.
देश हो या फिर प्रदेश. हर राजनीतिक गलियारे के पुराने और बूढ़े होते राजनेता को अपने द्वारा सत्ता सुख भोग लेने के बाद, उसे अपनी संतान को सत्ता के सिंहासन पर “सजा” हुआ देखने का “सुख” भोगने की लालसा तो बलवती ही रहती है. फिर ऐसे में भला पार्टी की कौन नेता और क्यों सोचे? पहले तो नेताजी को ‘स्वत: शांति सुखाय’ ही बाकी बचे-खुचे जीवन का प्रथम उद्देश्य रह जाता है न. जनता और जनहित की भला इन नेताओं को क्या चिंता? जब तक अपनी कुर्सी की चिंता थी तब तक इन्होंने ‘जनमानस यानी मतदाता’ को गाय समझ कर दुहा. जब इस खेल से इनके हटने की बारी आई तो इन्हें अपनी संतान के राजनीतिक सुख की चिंता खाने-सताने लगी.
एक-दो को छोड़ सारे बन गए हैं रक्तबीज
इस ज्वलंत मुद्दे और इस वक्त चुनावी माहौल में बिहार की राजनीति में उबाल मार रहे सैकड़ों सवालों के जवाब पाने के लिए 'स्टेट मिरर हिंदी' के एडिटर ने बात की बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ की राजनीति के मकड़जाल के भीतर की हर खबर पर पैनी नजर रखने वाले पटना में मौजूद देश के नामी-वरिष्ठ राजनीतिक-पत्रकार मुकेश बालयोगी से. उन्होंने कहा, “दरअसल यह बिहार की राजनीति में वंशवाद का चलन बढ़ाने या वंशवाद को बढ़ावा देने भर की बात नहीं है. आज जो पुराने नेता मौजूद हैं उनमें से एक दो को छोड़कर अधिकांशत: राजनीतिक के रक्तबीज बन चुके हैं. मैं उसी रक्तबीज राक्षस की बाद कर रहा हूं जिसका काफी जिक्र दुर्गा-सप्तशती के एक अध्याय में आया है. वही रक्तबीज जिसे मां दुर्गा जितनी बार मिटाने की कोशिश करतीं, उतनी बार रक्तबीज के हर खून की बूंद से लाखों रक्तबीज जन्म ले लेते. तब दुर्गा जी ने रक्तबीज का अस्तित्व मिटाने के लिए काली का रूप धरा और काली ने युद्ध क्षेत्र में रक्तबीज के खून की एक भी बूंद को धरती पर नहीं गिरने दिया. काली माता द्वारा रक्तबीज के खून की हर बूंद अपनी जिव्हा से चूस-चाट और पी लेने के चलते किसी भी बूंद का संपर्क जब पृथ्वी से नहीं हो सका तभी रक्तबीज का सत्यानाश माता-दुर्गा जी के हाथों संभव हो सका. ऐसे में सोचिए कि बिहार की राजनीति में इन रक्तबीजों के सामने भला वंशवाद की क्या औकात है? वंशवाद तो एक झटके में समाप्त हो सकता है. मगर राजनीति के रक्तबीजों का सर्वनाश बेहद मुश्किल है.
रक्तबीजों ने पार्टी को कंपनी बना डाला
सच कहूं तो आज बिहार की राजनीति के रक्तबीजों ने पार्टी को कंपनी बना डाला है. ताकि वे अपने बेटा-बहू बेटी, बीबी में से ही किसी को विधायक, किसी को मंत्री, किसी को सांसद, किसी को पार्टी का अध्यक्ष-उपाध्यक्ष-सचिव बनाकर सत्ता के सिंहासन के सुख से कभी वंचित ही न हो सकें. बात केवल मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बेटे निशांत, लालू यादव के बेटे तेज प्रताप-तेजस्वी यादव, बेटी भारती मीसा, चिराग पासवान, संतोष सुमन तक ही सीमित नहीं रही है. केंद्रीय मंत्री राम कृपाल यादव बिहार विधानसभा 2025 इलेक्शन से ही अपने बेटे को लॉन्च करने की तैयारी में दिखाई पड़ रहे हैं. जय प्रकाश यादव अपने बेटे को लॉन्च करने की तैयारियों में जुटे दिखाई दे रहे हैं.”
सभी अपनी औलादों को लॉन्च करने की लगा रहे जुगत
स्टेट मिरर हिंदी के एक सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार मुकेश बालयोगी कहते हैं, “बिहार की राजनीति में पांव पसारे बैठा ऐसा शायद ही इस वक्त कोई नेता बाकी बचा होगा जो अपने बेटे को राज्य विधानसभा 2025 के चुनाव में लॉन्च करने की तैयारी में न जुटा हो. विशेषकर वे नेता जो अपने राजनीतिक जीवन के सुखों को पूरी तरह से भोगकर अब 70 साल या उससे ऊपर की उम्र के पड़ाव पर खड़े हैं. इस सब चर्चा के बीच यह भी ध्यान देना होगा कि जरूरी नहीं कि एक परिवार के सभी या अधिकांश सदस्य अपनी ही पार्टी की बैसाखियों के सहारे घिसटने को मजबूर हों. नहीं ऐसा कतई नहीं है. एक ही पार्टी के घर खानदान की बहू किसी एक पार्टी से तो बेटा दूसरी पार्टी से और बेटी तीसरी पार्टी से चुनाव लड़कर साम दाम दंड भेद चाहे जैसे भी हो, बस हर कीमत पर सत्ता के सिंहासन के सुख के करीब पहुंचने की मृगतृष्णा के मायाजाल में भी उलझे हुए फड़फड़ा रहे हैं. जदयू के कद्दावर नेता-मंत्री अशोक चौधरी की बेटी चिराग पासवान की पार्टी से सांसद हैं. इनके दामाद भाजपा आरएसएस से जुड़े हैं. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और मौजूदा वक्त में केंद्रीय मंत्री मांझी का बेटा मंत्री है. बहू विधायक है. समधन भी विधायक हैं. अब सोचिए यह सब वंशवाद से क्या ऊपर जाकर राजनीतिक रक्तबीज का सबसे बड़े नमूना नहीं है.”
Banana politics बनी बिहार की राजनीति
वरिष्ठ पत्रकार मुकेश बालयोगी के साथ स्टेट मिरर हिंदी की हुई लंबी बातचीत में एक बात तो साफ हो जाती है कि, बिहार की राजनीति और वहां का लोकतंत्र ‘बनाना-राजनीति’ में तब्दील हो चुका है. इसमें कोई किसी तरह की शंका की गुंजाइश नहीं है. मतलब, अगर मुगलकालीन सत्ता से आज बिहार की सत्ता की बात करें तो, मुगलों की तानाशाही में कुनवे खानदान का कोई एक दबंग राजकाज-सिंहासन संभालता था. लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर बिहार के राजनीतिक-रंगमंच पर आज हर राजनीतिक परिवार का हर-एक सदस्य 'बहरुपिया' के रूप में, अभिनय कर रहा है ताकि वह किसी भी तरह से सत्ता के सिंहासन का सुख भोग सके.