कांग्रेस-आरजेडी का गढ़ या ओबीसी राजनीति की राजधानी? जानें मधेपुरा की नई पहचान की कहानी

मधेपुरा, जिसे कभी कांग्रेस और आरजेडी का मजबूत गढ़ माना जाता था, आज ओबीसी राजनीति का नया केंद्र है. मंडल राजनीति से लेकर ओबीसी आरक्षण तक, इस जिले ने बिहार समेत देश की सियासत को गहराई से प्रभावित किया. आइए जानते हैं मधेपुरा को मंडल आयोग के अध्यक्ष बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल ने कैसे दी नई पहचान.;

Curated By :  धीरेंद्र कुमार मिश्रा
Updated On : 26 Aug 2025 6:00 PM IST

बिहार की राजनीति में मधेपुरा का नाम सिर्फ एक जिले तक सीमित नहीं है बल्कि यह मंडल राजनीति और ओबीसी आंदोलन की वजह से देश भर में इसकी पहचान है. इस क्षेत्र में पहले कांग्रेस और आरजेडी की पकड़ मजबूत थी. अब यह जगह सामाजिक न्याय की राजनीति का नया प्रतीक है. मधेपुरा की इस नई पहचान के पीछे सिर्फ चुनावी समीकरण ही नहीं बल्कि आरक्षण और सामाजिक प्रतिनिधित्व व न्याय की लड़ाई भी शामिल है. इस लड़ाई में बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की भूमिका अहम रही.

दरअसल, बी.पी. मंडल (बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल) ने मधेपुरा को राजनीति और सामाजिक न्याय की राजनीति का गढ़ बनाकर एक नई पहचान दी. मधेपुरा आज जिस तरह से "ओबीसी राजनीति की राजधानी" कहलाता है, उसकी जड़ें बीपी मंडल के दौर से ही जुड़ी हैं. लोकसभा आर्काइव के मुताबिक वह मधेपुरा से दो बार सांसद भी चुने गए. उनके काम और फैसलों ने मधेपुरा को सिर्फ बिहार ही नहीं बल्कि पूरे देश की राजनीति में एक अलग स्थान दिलाया.

मधेपुरा की कैसे बनी नई पहचान?

जनता पार्टी की सरकार ने सामाजिक न्याय नीति के तहत एक आयोग का गठन किया था. इस आयोग का अध्यक्ष 1979 में मधेपुरा निवासी बीपी मंडल को बनाया. बीपी मंडल आयोग ने देश भर की जातिगत जनगणना और सामाजिक-आर्थिक हालात का अध्ययन किया. मंडल आयोग ने सिफारिश की कि ओबीसी वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण मिले. रिपोर्ट आने के बाद बीपी मंडल सुर्खियों में दशकों तक बने रहे. साथ ही मधेपुरा का भी नाम देश के मानचित्र पर छा गया.

बीपी मंडल ने सामाजिक न्याय की बहस को नई दिशा दी. उनकी रिपोर्ट से ओबीसी समाज के लोगों को शिक्षा और नौकरियों में बड़ा हक मिला. उसके बाद इसी से मधेपुरा की पहचान "मंडल राजनीति की जन्मस्थली" के रूप में बनी. मंडल आयोग की वजह से यहां के नेताओं को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली. मधेपुरा से शरद यादव, लालू प्रसाद यादव और पप्पू यादव जैसे नेता निकले, जिन्होंने मंडल राजनीति को आगे बढ़ाया.

‘मंडल बनाम कमंडल’ की बहस

बीपी मंडल की रिपोर्ट ने 90 के दशक की राजनीति में नई धुरी बनाई. भाजपा के 'कमंडल' (राम मंदिर आंदोलन) के मुकाबले मंडल आयोग (ओबीसी आरक्षण) का असर सबसे ज्यादा दिखा, जिसने मधेपुरा को राष्ट्रीय स्तर पर बहस के केंद्र बिंदु बना दिया. इसलिए कहा जाता है कि बीपी मंडल ने मधेपुरा को कांग्रेस-आरजेडी का गढ़ ही नहीं बल्कि ओबीसी राजनीति की राजधानी बना दिया.

 मंडल राजनीति की प्रयोगशाला

1990 के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद जब आरक्षण का सवाल उठा, तो मधेपुरा ने सबसे तेज आवाज बुलंद की. यह जिला ओबीसी राजनीति की प्रयोगशाला बन गया, जहां से उठी आवाज ने पूरे बिहार और फिर देश की राजनीति की दिशा बदल दी.

शरद यादव को मिली राष्ट्रीय पहचान

मधेपुरा को शरद यादव जैसे नेताओं ने राष्ट्रीय पहचान दी. वे न सिर्फ यहां से सांसद रहे बल्कि मंडल राजनीति के राष्ट्रीय चेहरे भी बने. ओबीसी अधिकारों और सामाजिक न्याय की लड़ाई को उन्होंने संसद तक पहुंचाया.

आरजेडी और कांग्रेस की पकड़

देश की आजादी के बाद पहले कांग्रेस और आरजेडी ने इस क्षेत्र में अपनी पकड़ मजबूत की, लेकिन समय के साथ कांग्रेस और आरजेडी की पकड़ ढीली हो गई. नई पीढ़ी के मतदाताओं ने जातीय समीकरण के साथ-साथ विकास और प्रतिनिधित्व को भी अहमियत देनी शुरू की. यही वजह रही कि यहां की राजनीति का असर देश भर में देखने को मिला.

OBC राजनीति की राजधानी

आज मधेपुरा को ‘ओबीसी राजनीति की राजधानी’ कहा जाता है. यहां से उठी सामाजिक न्याय की राजनीति ने बिहार के अलावा उत्तर भारत की पूरी चुनावी तस्वीर बदल दी. ओबीसी समुदाय के नेताओं के उभार और उनके राजनीतिक वर्चस्व की जड़ें मधेपुरा से ही जुड़ी हुई हैं.

मजिस्ट्रेट की नौकरी छोड़ बन गए नेता

अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद मजिस्ट्रेट के तौर पर कार्य किया और 1945 से 1951 तक इस पद पर अपनी सेवाएं दी. इन्होंने अपनी नौकरी को छोड़कर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सदस्यता ली. यहां से इनके राजनीतिक करियर की शुरुआत हुई. बाद में इन्होंने कांग्रेस को छोड़ दिया था और जनता पार्टी में शामिल हो गए.

सीएम बनने के लिए खुद के दल को तोड़ा

एनबीटी की रिपोर्ट के अनुसार बीपी मंडल बिहार में एक ऐसे मुख्यमंत्री हुए जिन्होंने अनोखे कार्यों के लिए कई रिकॉर्ड बनाए. पहली बार ऐसा हुआ कि एक समाजवादी नेता ने मुख्यमंत्री बनने के लिए कांग्रेस के सहयोग से अपने ही दल में तोड़फोड़ की.

3 साधु संतों को बनाया मंत्री

ऐसा पहली बार हुआ कि जब किसी मुख्यमंत्री बीपी मंडल ने अपनी सरकार में तीन साधु-संतों को मंत्री बना दिया. एक ऐसे सेवारत पत्रकार को भी मंत्री बना दिया दिया, जो न तो विधायक थे और न ही विधान पार्षद. मंत्री बनने वाले साधु संतों में महंत सुखदेव गिरी को कैबिनेट मंत्री बनाया. वे मुजफ्फरपुर के बरुराज से जनक्रांति दल के विधायक चुने गए थे. महंत राम किशोर दास को भी कैबिनेट मंत्री बनाया. वे मुजफ्फरपुर के मीनापुर से जनक्रांति दल के विधायक थे. स्वामी विवेकानंद को उप मंत्री बनाया गया. वे मुंगेर के सिकंदरा से संसोपा के विधायक थे.

पत्रकार को भी बना दिया मंत्री

बीपी मंडल ने सबको चौंकाते हुए पटना से प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी अखबार सर्चलाइट के सहायक संपादक शंभू नाथ झा को भी मंत्री बना दिया. वह भी तब जब झा किसी सदन के सदस्य नहीं थे.

ऐसे बने बिहार के सीएम

साल 1967 में  महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में पहली गैर-कांग्रेस सरकार बन रही थी. तब संसोपा के सांसद बीपी मंडल बिहार सरकार में मंत्री बनने के लिए अड़ गए. राम मनोहर लोहिया सांसद को राज्य सरकार में मंत्री बनने से जनता में गलत संदेश जाएगा. ऐसा करने पर कांग्रेस और गैर-कांग्रेस में क्या अंतर रह जाएगा?

बीपी मंडल अपनी जिद से ठस से मस नहीं हुए. फिर उन्हें महामाया सरकार में स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया. उस समय वे न तो विधायक थे और न ही विधान पार्षद. छह महीने के अंदर उनके लिए बिहार विधानमंडल का सदस्य बनना जरूरी था. उन पर छह महीने की समय सीमा समाप्त होने का समय नजदीक आने के बाद संसोपा का केन्द्रीय नेतृत्व उन्हें मंत्री पद छोड़ कर सांसदी के लिए दिल्ली आने के लिए दबाव बनाया.

दूसरी तरफ बीपी मंडल विधान परिषद में जाने के लिए मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा पर लगातार जोर दे रहे थे. उनकी विधायक या विधान पार्षद बनने की समय सीमा 4 सितम्बर 1967 को खत्म हो रही थी. तब तक यह तय हो गया कि महामाया सरकार उन्हें बिहार विधानमंडल में नहीं भेजेगी. तब उन्होंने संसोपा से विद्रोह कर दिया और एक नया ग्रुप बना लिया और कांग्रेस के सहयोग से सीएम बन गए.

मधेपुरा सीट का इतिहास

बिहार के 38 जिलों में से एक मधेपुरा जिला भी है. जिले में चार विधानसभा सीटें आती हैं. इनमें आलमनगर, बिहारीगंज, सिंघेश्वर और मधेपुरा सीटें शामिल हैं. मधेपुरा विधानसभा क्षेत्र मधेपुरा लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र का भी हिस्सा है. मधेपुरा लोकसभा क्षेत्र में 6 विधानसभा सीटें हैं?. इनमें आलमनगर, बिहारीगंज, मधेपुरा, सोनबरसा (एससी), सहरसा और महिषी शामिल हैं. मधेपुरा विधानसभा सीट पर 1957 में पहली बार चुनाव हुए थे.

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