लालू-नीतीश थे जिगरी यार, फिर कैसे बन गए एक-दूसरे के सियासी दुश्मन? दिलचस्प है किस्सा
बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार का रिश्ता कभी गहरे दोस्ती और भरोसे का उदाहरण था. जेपी आंदोलन से लेकर सत्ता के गलियारों तक दोनों ने एक-दूसरे का साथ निभाया लेकिन सत्ता की राजनीति, जातीय समीकरण और बदलते राजनीतिक हालात ने दोस्ती में ऐसी दरार डाली कि आज दोनों एक-दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोले खड़े हैं. लालू ने सामाजिक न्याय की राजनीति को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया तो नीतीश ने विकास और सुशासन का मॉडल पेश देकर नाम कमाया.;
देश के पूर्व सीएम इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में इमरजेंसी लगाने के बाद कांग्रेस की पॉलिटिक्स के खिलाफ बिहार सहित देश भर में जबरदस्त असंतोष देखने को मिला है. इसके खिलाफ जय प्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी को सत्ता से उखाड़ फेंकने के लिए समग्र आंदोलन का एलान किया था. इस आंदोलन का केंद्र बिहार रहा. जयप्रकाश नारायण (जेपी) आंदोलन की आग में एक साथ तपकर निकले लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार. दोनों ने एक साथ सियासी सफर शुरू किया और राजनीति के फर्श से अर्श तक का सफर तय किया. बिहार के सीएम लालू भी बने और फिर नीतीश भी. लालू ने बिहार में 15 साल तक शासन किया और नीतीश कुमार 20 साल से प्रदेश के सीएम हैं.
इस बीच सियासी महत्वाकांक्षा ने दोनों की दोस्ती को दुश्मनी में बदल दिया. कभी एक-दूसरे के लिए लाठियां खाने वाले राजनीति के सिपाही आज एक-दूसरे के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी हैं. इनकी कहानी बिहार की राजनीति का एक ऐसा दस्तावेज है जो दोस्ती, दुश्मनी और राजनीतिक पलटबाजी की मिसाल है. इन सबके बावजूद जब भी मौका मिलता है, नीतीश कुमार लालू यादव से एक फोन बात कर गठबंधन में सरकार बना लेते हैं और अपनी सुविधा के अनुसार एनडीए से हाथ मिलाकर उसे तोड़ भी देते हैं. यही वजह है कि तेजस्वी यादव ने उनका नाम पलटूराम या पलटू चाचा रख दिया, जो भारतीय राजनीति में नीतीश कुमार के नाम का पर्याय हो गया. आइए जानते हैं कि कैसे दोनों पहले अच्छे दोस्त बने और फिर राजनीतिक दुश्मन बन गए.
ऐसे पड़ी दोस्ती की नींव
जय प्रकाश नारायण आंदोलन में 1970 के दशक में जब देश आपातकाल की ओर बढ़ रहा था तो उसी दौरान बिहार में जेपी आंदोलन ने एक नई राजनीतिक पीढ़ी को जन्म दिया. पटना विश्वविद्यालय के गलियारों में लालू यादव और नीतीश नीतीश कुमार की मुलाकात हुई. लालू की हाजिर जवाबी और नीतीश की राजनीतिक सोच ने इन दोनों को ही जेपी का करीबी बना दिया. साल 1974 में भ्रष्टाचार और तानाशाही के खिलाफ लोग सड़कों पर उतरे तो ये दोनों युवा भी जेल गए. दोनों ने लाठियां खाईं और एक-दूसरे के लिए ढाल भी बने.
25 जून 1975 को आपातकाल लागू होने की घोषणा की गई तो आंदोलन उग्र होता गया. जेपी की अगुवाई में आंदोलन ने दम दिखाया और 1977 में देश में आपातकाल हटा लिया गया. यहां से दोनों की इलेक्टोरल पॉलिटिक्स में शुरुआत हुई और जनता पार्टी की जीत ने दोनों को सियासी मंच दिया. लालू यादव की लोकप्रियता और नीतीश कुमार की मेहनत ने उन्हें जनता दल में अहम जगह दिलाई.
नीतीश का खुला विद्रोह
साल 1990 में जनता दल की जीत के बाद लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने. नीतीश ने उनके लिए विधायकों को जोड़ने में दिन-रात एक किया. लालू की सोशल इंजीनियरिंग, खासकर मुस्लिम-यादव समीकरण ने उन्हें सत्ता का बेताज बादशाह बना दिया.कुछ ही दिनों में सत्ता की गर्मी ने दोनों की दोस्ती में दरार डाल दी. लालू की जातीय राजनीति और नीतीश की विकास-केंद्रित और धर्मनिरपेक्ष सोच की वजह से टकराव बढ़ा. आखिर 1994 में नीतीश ने जनता दल से बगावत कर समता पार्टी बनाई जो लालू के खिलाफ पहला विद्रोह था. दोनों के बीच यह पहला मौका था जब दोस्ती सियासी दुश्मनी में बदल गई.
लालू पर लगा परिवारवादी होने का आरोप
फिर 1996 में चारा घोटाले ने लालू की सियासी जमीन हिला दी. इस्तीफे के बाद उन्होंने पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया, जिसे नीतीश ने परिवारवाद का तमगा दिया. इसके बाद नीतीश कुमार ने ‘जंगलराज’ के खिलाफ सुशासन का नारा बुलंद किया. साल 1999 में बीजेपी के साथ गठबंधन किया. वर्ष 2005 में नीतीश ने लालू-राबड़ी के 15 साल के शासन को उखाड़ फेंका. सड़क, बिजली और कानून-व्यवस्था में सुधारों ने नीतीश को ‘सुशासन बाबू’ की उपाधि दिलाई. इस बीच चारा घोटाले की सजा ने लालू की सियासी ताकत को कमजोर कर दिया. ऐसे में दोनों की राहें पूरी तरह अलग हो गई.
लालू ने नीतीश को क्यों कहा 'विश्वासघाती'
बिहार की राजनीति ने साल 2013 में फिर पलटी मारी. बीजेपी द्वारा एक विज्ञापन प्रकाशित करने से नीतीश कुमार इतने नाराज हु कि उन्होंने बीजेपी से नाता तोड़ लिया. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में हार ने नीतीश को सियासी तौर पर कमजोर किया. साल 2015 में बीजेपी को हराने के लिए लालू और नीतीश ने महागठबंधन बनाया. यह दोनों के बीच सियासत दोस्ती की वापसी थी. सत्य यही था कि दोनों के बीच भरोसा पहले वाला नहीं बन पाया. साल 2015 में विधानसभा चुनाव के बाद नीतीश फिर मुख्यमंत्री बने. लालू के बेटों तेजस्वी यादव और तेजप्रताप यादव को मंत्रिमंडल में शामिल किया, लेकिन वह दोनों के साथ तालमेल नहीं बिठा पाए. 2017 में भ्रष्टाचार के आरोपों का हवाला देकर नीतीश ने महागठबंधन तोड़ दिया और बीजेपी के साथ लौट आए. लालू प्रसाद यादव ने इसे नीतीश कुमार का ‘विश्वासघात’ करार दिया.
किसने दिया नीतीश को पलटू राम का तमगा?
साल 2022 में उन्होंने फिर बीजेपी छोड़ी और RJD के साथ सरकार बनाई, जिसमें तेजस्वी यादव डिप्टी सीएम बने, लेकिन 2024 में नीतीश एक बार फिर एनडीए में लौट आए. लालू यादव ने तंज कसते हुए कहा, 'नीतीश का कोई भरोसा नहीं.' तेजस्वी ने नीतीश को ‘पलटू राम’ का तमगा दिया. ये उतार-चढ़ाव बिहार की जनता के लिए सियासी तमाशा बन गए, लेकिन नीतीश की कुर्सी बरकरार रही, पर बार बार पाशा बदलने से लोगों के बीच नीतीश की साख को धक्का लगा, जो अब एंटी इनकम्बेंसी में बदल गया है.
एक बार फिर दो माह बाद बिहार में विधानसभा चुनाव है. आरजेडी प्रमुख लालू यादव एक्टिव तो हैं, लेकिन स्वास्थ्य कारणों से पहले की तरह सियासी गतिविधियों में अब पहले की तरह हिस्सा नहीं ले पाते. उनकी जगह तेजस्वी यादव आरजेडी की कमान संभाल रहे हैं.
राजनीति में न कोई दोस्त होता है, न दुश्मन
सीएम नीतीश कुमार 2025 के विधानसभा चुनाव में एनडीए का चेहरा बनकर एक बार फिर सत्ता बचाने की जंग में उतर चुके हैं. लालू और नीतीश की सियासी जंग का अगला चैप्टर 2025 के चुनावी में लिखा जाएगा. नीतीश के चेहरे और तेजस्वी की युवा अपील के बीच बिहार की जनता किसे चुनेगी यह बड़ा सवाल है? एक बात साफ है कि लालू और नीतीश की यह कहानी साबित करती है कि सियासत में न कोई स्थायी दोस्त होता है और न दुश्मन.