जेल से सीवान का ‘सुल्तान’ बनने वाले मो. शहाबुद्दीन को कर्मभूमि में ‘कब्र’ तक नसीब न हो सकी!

सीवान का ‘सुल्तान’ कहे जाने वाले मोहम्मद शहाबुद्दीन की कहानी अपराध, राजनीति और सत्ता के गठजोड़ का प्रतीक है. कॉलेज के दिनों में अपराध की राह पर चलने वाले शहाबुद्दीन ने जेल में रहते हुए ही विधायक और बाद में सांसद बनकर सत्ता की ऊंचाइयां छुईं. लालू प्रसाद यादव के संरक्षण में सीवान को अपनी ‘निजी रियासत’ बना लिया. लेकिन वक्त ने करवट ली, और कोविड-19 के दौरान तिहाड़ जेल में उसकी मौत हो गई. विडंबना यह रही कि चार बार के सांसद रहे शहाबुद्दीन को अपनी जन्मभूमि सीवान में कब्र तक नसीब नहीं हुई.;

By :  संजीव चौहान
Updated On : 15 Oct 2025 4:40 PM IST

दुश्मन के लिए अकाल मौत और अपने चहेतों-शुभचिंतकों-मतदाताओं-वोटरों का वह मसीहा था. कानून की नजर में अगर वो खूंखार बाहुबली गुंडा-गैंगस्टर बदमाश था. तो अपने कुल-खानदान की नाक और बिहार के मतलबपरस्त नेताओं के लिए वह किसी ‘रहनुमा’ से कम नहीं था. सोचो भला ऐसे बेशकीमती धाकड़ या दबंग बदनाम बाहुबली से दोस्ती करने से राष्ट्रीय जनता दल के मौकापरस्त मुखिया और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव, भला कैसे चूक सकते थे. आखिर बात सूबे की गंदी राजनीति में अपने-अपने स्वार्थ साधकर समाज में सड़ांध फैलाने गंध मचाने की होड़ जो लगी हुई थी.

इन दिनों बिहार में विधानसभा चुनाव-2025 की घोषणा के बाद से ही चुनावी महोत्सव का सा माहौल है. ऐसे में स्टेट मिरर हिंदी के एडिटर क्राइम इनवेस्टीगेशन बेबाक बेखौफ बात कर रहे हैं कालांतर में बिहार के सीवान की गलियों के गुंडा से भारत के माननीय सांसद बनने वाले मरहूम पूर्व सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन की. वही शहाबुद्दीन, कालांतर में लालू प्रसाद यादव और उनका कुनबा-खानदान जिनके आगे पीछे घूमा करता था. जिक्र उन्हीं धाकड़ मोहम्मद शहाबुद्दीन का जिनके नाम से दुश्मनों या इनके द्वारा सताए हुए परिवारों-लोगों की घर बैठे घिग्घी बंध जाती थी. बेबाक बात ऐसे उन्हीं शहाबुद्दीन की जो अंतिम समय में दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद रहने के दौरान अस्पताल में जब तड़प-तड़प कर मौत के मुंह में समा रहे थे तब, उनके पास अपना कोई परिंदा भी नहीं था. नाते-रिश्तेदार या फिर उन नेताओं का तो दूर-दूर तक जिंदगी के उस अंतिम दौर में अस्पताल में कोई अता-पता ही नहीं था, जो जीते-जीते सत्ता की मैली मंशा में इन्हीं धाकड़ शहाबुद्दीन के तलवे चाटते और उनके कसीदे कसते हुए नहीं थकते थे.

इस बार चुनाव से पहले शहाबुद्दीन की चर्चा तक गायब

इस वक्त जब बिहार विधानसभा 2025 के चुनाव का महोत्सव होने वाला है तब बिहार की राजनीतिक में काफी कुछ उठा पटक मची है. कई पॉलिटिकल पार्टियों व धुरंधर नेताओं का “राजनीतिक मैनेजमेंट” अव्यवस्थित या कहिए तबाह करवाए बैठे जनसुराज पार्टी वाले प्रशांत किशोर अगर, बिहार के राजघराने पर खुद को सजाने के लिए बेताब हैं. तो वहीं जीवन के अंतिम पड़ाव पर हड़बड़ाए से खड़े होकर लड़खड़ाते और बीते 20 साल से निरंतर गठजोड़ यानी “जुगाड़ू-राजनीति” की बैसाखियों पर घिसट रहे, मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी एक बार और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने को टपक रही अपनी “लार” तक पोंछने की सुध-बुध खोए बैठे हैं. ऐसे में इस चुनावी महासंग्राम में अगर कालांतर में अपराध और पॉलिटिक्स के कॉकटेल कहिए या फिर संगम से जन्मा बिहार के सीवान की राजनीति का सुलतान मोहम्मद शहाबुद्दीन मगर आज कहीं दिखाई नहीं दे रहा है.

Full View

लालू राज में बेकाबू हुआ शहाबुद्दीन

बिहार का वही मरहूम कल का डॉन सांसद मो. शहाबुद्दीन जिसे मौत के बाद अपनी कब्र के लिए सीवान की जमीन तक नसीब नहीं हो सकी. वही सीवान जिसकी जमीन पर बसे प्रतापपुर में 10 मई 1967 को जन्मा था शहाबुद्दीन. राजनीति विज्ञान में एमए और फिर पीएचडी हासिल शहाबुद्दीन की सोहबत तो सीवान डीएवी कॉलेज से ही बिगड़ चुकी थी. नतीजा यह रहा कि सीवान के थाना हुसैनगंज में “ए-कैटेगरी” की उसकी हिस्ट्रीशीट खुल गई. उसके बाद उसके साथ क्या क्या हुआ और उसने बाकियों के साथ क्या कुछ बुरा-भला किया यह भी जमाने ने देखा. मुझे कुछ बताने की जरूरत नही है. बिहार में लालू की सत्ता में तो शहाबुद्दीन बाकायदा जगह-जगह अपनी ही “निजी-अदालत” लगाकर फैसले सुनाने लगा था. जोकि उसके बेकाबू होने का चरमोत्कर्ष कहा-माना गया.

तमाम आरोपों के बाद भी लोकसभा पहुंच गया था शहाबुद्दीन

वक्त के खेल में रातों-रातों फर्श से अर्श पर पहुंचने के बाद और फिर आसमान से जमीन पर आते ही लावारिस हाल में, मिट्टी में मिलकर अपनी जन्मभूमि में कफन-दफन होने को भी तरस जाने वाले यह उन्हीं धाकड़ मो. शहाबुद्दीन की कहानी है जिनकी गिरफ्तारी के लिए कभी पुलिस के सामने जंग के से हालात बन गए थे. मौके पर दो पुलिसकर्मी शहीद हो गये. उस खूनी मुठभेड़ में पुलिस के हाथ मोस्ट वॉन्टेड मो. शहाबुद्दीन तो नहीं लगा. मौके से मिलीं पुलिस की जली हुई जिप्सियां, तीन एके-47 राइफलें. साल 2004 में इसी शहाबुद्दीन के ऊपर सैकड़ों बूथ लुटवाने के कथित आरोप लगे. फिर भी वह चुनाव जीतकर लेकिन लोकसभा पहुंच गया. बुरे दिन शुरू हुए तो इसी शहाबुद्दीन के अड्डों से पुलिस को पाकिस्तान निर्मित अवैध हथियारों के जखीरे, सेना के अत्याधुनिक नाइट वीजन डिवाइस भी मिलने लगे. विपरीत हालातों में खुद को गर्त में गिरता देखकर बीवी हिना शहाब को चुनाव में उतार दिया और वह भी हार गई.

नेताओं ने भी अपने मतलब के लिए किया इस्‍तेमाल

साल 2021 में कोरोना की चपेट में आकर दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद रहते हुए इलाज के दौरान अस्पताल में शहाबुद्दीन को गुजरे, आज भले ही 4-5 साल बीत चुके हैं मगर उसके नाम और दबंगई के कामों की धमक का पीछे छूटे उनके मुरीद आज भी मौका मिलने पर खा कमा ही ले रहे हैं. मतलब जिंदा हाथी लाख का और मरा हाथी सवा लाख का. ऐसा नहीं है कि मरहूम मोहम्मद शहाबुद्दीन ने ही सबको लूटा हो. शहाबुद्दीन को भी नेताओं-पॉलिटिकल पार्टियों ने अपने अपने हिसाब से निजी स्वार्थ सिद्धि के लिए पली हुई गाय की मानिंद जब दिल किया तब दूह लिया था. तब फिर ऐसे में भला शहाबुद्दीन ही क्यों इन मतलब या मौकापरस्त नेताओं राजनीतिक पार्टियों का सहारा लेकर गुंडा से माननीय बनने में चूकते. मतलब अपराध जगत के बदनाम धाकड़ दबंग मोहम्मद शहाबुद्दीन को अगर राजनीतिक-सरकारी संरक्षण अपनी जिंदगी और अपनी खाल बचाने को चाहिए था, तो वहीं बिहार के तमाम नेताओं ने भी मोहम्मद शहाबुद्दीन को जरूरत के हिसाब से पाल-पोसकर फिर उन्हें जायज-नाजायज तरीके से दूहने में कभी कहीं कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी. बिहार के मतलबपरस्त नेताओं और शहाबुद्दीन का वही रिश्ता था कि तू मेरी पीठ खुजा मैं तेरी पीठ खुजाऊंगा.

जब विधायक ने दुत्‍कारते हुए पैरवी करने से किया इनकार

जब बेबाक बात सीवान के पूर्व और अब के मरहूम सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन की हो तो बताना जरूरी है कि बिहार से शुरू और देश भर में बदनाम इस शख्शियत का, 1990 के दशक में अपराध जगत में डंका बजने लगा था. कानून की नजर इसके ऊपर पड़ी तो पुलिस ने उठाकर जेल में बंद कर दिया. यह किस्सा उस जमाने का है जब भारतीय सेना के रिटायर्ड कैप्टन डॉक्टर त्रिभुवन नारायण सिंह जीरादेई से कांग्रेस के विधायक हुआ करते थे. वे साल 1985 में आम-चुनाव जीतकर बिहार विधानसभा में पहली बार एमएलए बनकर पहुंचे थे. उस जमाने में प्रतापपुर जहां के मोहम्मद शहाबुद्दीन मूल निवासी थे. वह इन्हीं नव-निर्वाचित विधायक त्रिभुवन सिंह के जीरादेई विधानसभा क्षेत्र में आता था. जेल से बाहर रहते हुए उसी दौरान किसी मामले में सिफारिश के लिए मोहम्मद शहाबुद्दीन जब मदद मांगने इलाका विधायक त्रिभुवन सिंह के पास गया तो उन्होंने, मोहम्मद शहाबुद्दीन को यह कहते हुए भगा दिया कि, “मैं गुंडा बदमाशों की पैरवी नहीं करता हूं”.

जेल में रहते हुए निर्दलीय जीता चुनाव

इलाका विधायक त्रिभुवन नारायण सिंह के उस दो टूक खरे-खरे रवैये से खार खाए बैठे मोहम्मद शहाबुद्दीन के दिल में उन्हें नीचा दिखाने की जो आग भड़की. वह जेल की काल-कोठरी में भी शहाबुद्दीन को झुलसाती रही. 1990 में बिहार में विधानसभा के आम चुनाव हुए तो बदले की आग में जल-भुन रहे मोहम्मद शहाबुद्दीन ने जेल में बंद रहते हुए भी निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में वह चुनाव जीतकर. डॉ. त्रिभुवन सिंह को हराकर अपनी बेइज्जती का बदला लेकर आगे-पीछे का सब हिसाब पूरा कर लिया. भले ही जिद्दी शहाबुद्दीन की जीत से खुद वे और उनके चाहने वाले खुश हो गए हों मगर जेल में बंद गली के गुंडा से विधायक की कुर्सी गंवा देने वाले, डॉ. त्रिभुवन सिंह को उस घटना ने समाज में मुंह दिखाने के काबिल नहीं छोड़ा. इसलिए नहीं कि वे जेल में बंद गुंडे से चुनाव हार गए बल्कि इसलिए कि, जिस गुंडे को उन्होंने एक दिन भाव नहीं दिया था, जिसे दुत्कार कर भगा दिया था. पांच साल बाद उसी गुंडा ने जेल में बंद रहकर भी त्रिभुवन नारायण सिंह की विधायक की कुर्सी छीन ली और खुद वह गुंडा उस कुर्सी पर जा बैठा था. इस तरह से जब एक बार जीरादेई विधानसभा सीट से मोहम्मद शाहबुद्दीन गली के गुंडा से “माननीय सफेदपोश विधायक” बने तो फिर उन्होंने कभी भी पीछे पलटकर नहीं देखा.

जेल में तड़प-तड़प कर तोड़ा दम

उस जीत के बाद मोहम्मद शाहबुद्दीन और उनके अपनों ने अगर कुछ भयावह डरावना रूह कंपा देने वाला अपनी आखों से अगर देखा तो वह था बदतर हाल में साल 2021 के कोविड काल में दिल्ली के दीन दयाल उपाध्याय अस्पताल में तिल-तिल घुटते और तड़प-तड़प कर अकेले ही अकाल मौत के मुंह में जाते हुए शहाबुद्दीन की रूह कंपाती अकाल मौत का मंजर. जेल से ही चुनाव लड़कर डॉ. त्रिभुवन नारायण सिंह को हराने के बाद तो मानो शहाबुद्दीन की किस्मत के सितारे दिन में भी चमकने लगे थे. सत्ता का हिस्सा बने तो जेल में बंद रहते हुए ही शहाबुद्दीन से जेल में बंद सीवान के ही बदमाश पाल सिंह ने उनसे दोस्ती कर ली. पाल सिंह और शहाबुद्दीन इसलिए जेल की सलाखों में दोस्त बन गए क्योंकि जैसे मोहम्मद शहाबुद्दीन को बेइज्जत करके डॉ. त्रिभुवन नारायण सिंह ने दौड़ा दिया था. उसी तरह उन्होंने पाल सिंह को भी भगा दिया था.

सबसे पहले लालू यादव ने उठाया राजनीतिक फायदा

जेल में बंद रहते हुए भी गली का गुंडा जब मोहम्मद शहाबुद्दीन माननीय विधायक बन गया तो सोचिए भला ऐसे धाकड़ को कौन मौकापरस्त नेता हाथों हाथ दूह लेने को बेताब नहीं होगा. मोहम्मद शहाबुद्दीन को सबसे पहले दूहने का धंधा शुरू किया साल 1995 के बिहार विधानसभा के आम चुनाव में बिहार की राजनीतिक के तब मास्टरमाइंड और आज जेल, सीबीआई कोर्ट-कचहरियों में एक टांग अक्सर फंसाए रहने वाले, मौकपरस्त और बिहार राज्य में जंगल राज के जन्मदाता लालू प्रसाद यादव ने. नतीजा यह रहा कि 1995 में लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल से जीरादेई विधानसभा चुनाव जीतकर दुबारा गली के धाकड़ गुंडा से ‘माननीय एमएएल’ बनकर शाहबुद्दीन फिर बिहार विधानसभा जा पहुंचे.

लालू की मेहरबानी से संसद पहुंच गया शहाबुद्दीन

इस तरह बिहार में तब खौफ और अकाल मौत का पहला नाम बन चुके मोहम्मद शहाबुद्दीन में जैसे ही लालू प्रसाद यादव को “धाकड़” काम का नेता नजर आया तो लालू प्रसाद ने अपनी पार्टी से विधायक बनाने के अगले साल ही यानी, साल 1996 में शहाबुद्दीन को सीवान से सांसद बनवाकर संसद में ले जाकर सजा दिया. मतलब, जिन मोहम्मद शहाबुद्दीन को बिहार के कई जिलों की पुलिस जेल में ठूंसने के लिए अक्सर दिन रात धूल फांका करती थी. लालू प्रसाद यादव की ‘असीम कृपा अनुकंपा’ से वे मोहम्मद शहाबुद्दीन कालांतर में सीवान के माननीय सांसद बनकर लोकतंत्र के मंदिर में “पूजनीय पुजारी” बनकर जा बैठे थे. वक्त पलटा तो जिस पुलिस ने कभी मोहम्मद शहाबुद्दीन को गिरफ्तार करके कई बार जेल में ठूंसा था. वही पुलिस अब माननीय हुजूर सांसद शहाबुद्दीन की दिन रात सुरक्षा और हिफाजत में डटी रहने लगी थी. ताकि कालांतर में गली का गुंडा रहते हुए मोहम्मद शहाबुद्दीन ने जिन-जिन घरों में तबाही-कोहराम मचाया था, वे मजलूम बिचारे सैकड़ों पीड़ित परिवार, ऐसे धाकड़ सांसद जी के रोंगटे का भी बाल-बांका न कर सकें.

मौत के वक्‍त साथ नहीं था कोई सगा

लेकिन कहते हैं न कि ऊपर वाले की लाठी चलती तो दिखाई देती है उसकी मार और लाठी की आवाज मगर किसी को सुनाई नहीं देती है. गली के गुंडा से जेल में बंद रहकर भी माननीय विधायक और सांसद बन जाने वाले ऐसे मोहम्मद शहाबुद्दीन को कोराना काल में साल 2021 में जब, तिहाड़ जेल में बंद रहने के दौरान गंभीर हालत में दिल्ली के दीन दयाल उपाध्याय अस्पताल में दाखिल किया गया तो वहीं रूह कंपा देने वाली उसकी मौत हो गई. उस वक्त उनके साथ न तो अपना खून का कोई रिश्ता सामने मौजूद था. न उनके सिराहने वह लालू प्रसाद यादव ही या बिहार का कोई अन्य नेता-मंत्री थे जिन्होंने ऐसे धाकड़ मो. शहाबुद्दीन को कभी दूहने में कोई चूक नहीं की थी.

दिल्‍ली के कब्रिस्‍तान में हुआ सुपुर्द-ए-खाक

और न ही अंत समय में ऐसे धाकड़ पूर्व सांसद के करीब बिहार के वह पूर्व विधायक डॉ. त्रिभुवन नारायण सिंह ही कहीं मौजूद मिले...जिनसे हुई अपनी बेइज्जती का हिसाब बराबर करने की जिद में 1990 में मो. शहाबुद्दीन जेल की सलाखों में बंद रहते हुए ही बन गए थे गुंडा से आमजन और अपने चहेतों के ‘माननीय विधायक और फिर सांसद’. इसे वक्त या परमात्मा की मार नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे कि चार बार के सांसद दो बार के विधायक रहे शहाबुद्दीन का शव जब उनके बेटे ओसामा शहाब ने जन्मभूमि पर दफनाने के लिए मांगा. तो कोविड काल में संक्रमण फैलने के चलते उन्हें वह भी नसीब न हो सका, और सीवान का बीते कल का धाकड़ शहंशाह कहिए या फिर सुल्तान मो. शहाबुद्दीन अपनी जन्म और कर्मस्थली सीवान से मीलों दूर लावारिसों की मानिंद दिल्ली के एक कब्रिस्तान में सुपुर्द-ए-खाक कर दिया गया.

Similar News