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Bihar Election: बढ़ते हत्याकांड लालू यादव के ‘जंगलराज’ पर भारी नहीं, नीतीश को ‘शराब बंदी’ ले डूबेगी- INSIDE STORY

बिहार में एक महीने के भीतर हत्या की घटनाएं बढ़ी हैं, लेकिन वरिष्ठ पत्रकार मुकेश बालयोगी का मानना है कि यह लालू यादव के 'जंगलराज' से तुलना के लायक नहीं. हालांकि नीतीश कुमार की शराबबंदी और उसके चलते पनपता अवैध कारोबार और अपराध विधानसभा चुनाव 2025 में उनकी सत्ता को खतरे में डाल सकता है. कानून व्यवस्था बिगड़ी तो नुकसान तय है. पुलिस की निष्क्रियता पर भी सवाल उठ रहे हैं, खासकर डॉ. गोपाल खेमका हत्याकांड को लेकर.

Bihar Election: बढ़ते हत्याकांड लालू यादव के ‘जंगलराज’ पर भारी नहीं, नीतीश को ‘शराब बंदी’ ले डूबेगी- INSIDE STORY
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संजीव चौहान
By: संजीव चौहान

Updated on: 14 July 2025 7:26 PM IST

सीतामढ़ी में गोली मारकर व्यापारी का कत्ल. पटना में दुकानदार की हत्या. नालंदा में नर्स की गोली मारकर हत्या. खगड़िया में युवक का कत्ल. गया और नालंदा में दो-दो लोगों का कत्ल-ए-आम. पटना में थाने की नाक के नीचे सूबे के धनाढ्य व्यवसाई डॉ. गोपाल खेमका की घर से चंद फर्लांग दूर गोली मारकर नृशंस हत्या. मतलब बिहार कोई इंसानों के रहने की जगह यानी मानव-जाति के निवास का सुरक्षित स्थल न होकर किसी बूचड़खाना में, आंख मूंदकर तब्दील होने की ओर बढ़ता जा रहा है. मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार “सुशासन” में यही खून-खराबा और शराब-बंदी कहीं हुकूमत को ही तो नहीं ले डूबेगी?

इन्हीं तमाम सवालों के जवाब हासिल करने की कोशिश की 'स्टेट मिरर हिंदी' के एडिटर क्राइम इनवेस्टीगेशन ने. 13 जुलाई 20225 को रिकॉर्ड किए गए 'पॉडकास्ट' की विशेष कड़ी के खास मेहमान रहे बिहार की राजधानी पटना में मौजूद वरिष्ठ खोजी पत्रकार मुकेश बालयोगी. वही मुकेश बालयोगी जो कभी भारत और बिहार की राजनीति का मलखंभ कहे जाने वाले जॉर्ज फर्नांडिस जैसे कद्दावर नेता के भी सहयोगी रहे. वही वरिष्ठ पत्रकार मुकेश बालयोगी जो छत्तीसगढ़, बिहार और झारखंड के सत्ता के गलियारों का खुद को आज 'मास्टर' समझने वाले नेताओं की रग-रग से वाकिफ हैं.

बिहार में एक महीने में कत्ल-ए-आम बढ़ा मगर...

स्टेट मिरर हिंदी के एक सवाल के जवाब में मुकेश बालयोगी यह तो मानते हैं कि बिहार में बीते एक महीने में कत्ल-ए-आम की ताबड़तोड़ घटनाओं में अचानक वृद्धि हुई है. वह इस बात से मगर इनकार करते हैं कि, बिहार में 1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव और बाद में उनकी पत्नी राबड़ी देवी के राज में जिस तरह 'जंगलराज' कायम हो चुका था. उससे इस कत्ल-ए-आम की कहीं कोई किसी भी तरह से तुलना करना सही होगा. उन्होंने कहा, “दरअसल यह वक्त राज्य में आगामी विधानसभा चुनाव की तैयारियों का है. हर दल हर नेता अपनी अपनी गोटी फिट करके खुद के सुखद-सफल राजनीतिक भविष्य की तलाश में धक्के खाता हुआ भटक रहा है. सत्ता के सिंहासन को एक बार फिर से पाने की इस अंधी दौड़ की होड़ से मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी खुद को भला अलग कैसे रख सकते हैं? राजनीति या सत्ता से सिंहासन का स्वाद एक बार जो चख लेता है, वह फिर इससे दूर जाने को किसी भी कीमत पर राजी नहीं होता है. जब तक कि अपने खोखले राजा को खुद ही अपने मत के बलबूते सिंहासन से धक्का देकर न उतार दे.”

लालू के ‘जंगलराज’ नीतीश के ‘सुशासन’ में फर्क

अपनी बात जारी रखते हुए वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, “लालू यादव और राबड़ी देवी के जंगलराज के मुकाबले आज नीतीश बाबू के सुशासन में शराबबंदी की आड़ में हो रहा अपराध लालू-राबड़ी के जंगल राज की जगह फिलहाल तो नहीं ले पाएगा. लालू यादव के जंगलराज के सामने नीतीश कुमार की हुकूमत में अब विधानसभा इलेक्शन-2025 से ठीक पहले शुरू हुआ कत्ल-ए-आम, कहीं नहीं टिकता है. पूरे सूबे में जहां कभी नरसंहार, अपहरण-बलात्कार, हाई-प्रोफाइल हत्याएं कम होने का नाम ही नहीं लेती थीं. रात की बात छोड़िए दिन के वक्त जिन लालू यादव के जंगलराज में गुंडे-बदमाशों के काफिले खुली जीपों में हाथों में अत्याधुनिक लाइसेंसी-गैर-लाइसेंसी हथियारों को काफिलों के रूप में लहराते हुए कोहराम मचाते थे. वह सब तो कम से नीतीश कुमार के राज में नहीं हो रहा है. यही सबसे बड़ा फर्क है नीतीश कुमार के सुशासन और लालू राबड़ी के जंगलराज के बीच.”

नीतीश और उनकी पुलिस बहुत जल्दी करे

बिहार की कई दशक पहले और उसके बाद अब मौजूदा क्राइम-कानून-शांति और पुलिस-व्यवस्था पर बेबाकी से बात करते हुए वरिष्ठ पत्रकार मुकेश बालयोगी बोले, “देखिए इन दिनों बिहार में जिस तरह से और जो कत्ल-ए-आम शुरू हुआ है. वह भले ही लालू यादव और राबड़ी देवी के शासन में व्याप्त जंगलराज की जगह भले न ले सके. मगर अगर जल्दी ही बिहार पुलिस और यहां की हुकूमत ने इस गली-मोहल्लों, शहर-गांवों में शुरू हुए हत्याकांडों पर लगाम नहीं कसी, तो नीतीश कुमार को आगामी विधानसभा चुनाव में थोड़ा-बहुत फर्क पड़ने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है. बेशक इन हत्याकांडों का आगामी विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार और उनकी हुकूमत पर ज्यादा विपरीत असर न पड़े. मगर नीतीश और उनकी पुलिस को ऐसे खूनी कांडों पर जल्दी ही रोक लगानी होगी.”

कत्ल-ए-आम पर 'शराब बंदी' भारी पड़ेगी

बिहार की राजनीति की नब्ज से बखूबी वाकिफ मुकेश बालयोगी आगे कहते हैं कि, “हांलांकि अगर इन दिनों शुरू हो चुके नृशंस हत्याकांडों को छोड़ भी दें, तब भी नीतीश बाबू के सत्ता के सिंहासन को हिलाने के लिए आगामी विधानसभा चुनाव में उनके द्वारा, पूर्व में सूबे में लागू की गई शराबबंदी ही उन्हें और उनकी सल्तनत के लिए बहुत बड़ा खतरा बनने के लिए तैयार खड़ी है. कोई बड़ी बात नहीं है कि आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार को बिहार में शुरू हुआ कत्ल-ए-आम अगर बचा भी लेगा या ज्यादा विपरीत प्रभाव नहीं छोड़ेगा, तब भी उनके द्वारा लागू की गई शराब बंदी और उसके बाद शुरू हुआ काला-कारोबार, उस काले-कारोबार की आड़ में बढ़ने वाला क्राइम, नीतीश कुमार और उनकी पुलिस पर बहुत भारी पड़ सकता है.”

राजनीति में सबकुछ संभव है इसलिए...

स्टेट मिरर हिंदी के एक सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, “देखिए विरोधी तो इन दिनों बिहार में बढ़ रही हत्याओं की घटनाओं को बेंच-बांटकर उनसे मुनाफा कमाने को आतुर घूमेंगे ही. क्योंकि उनके पास नीतीश को सत्ता से हटाने के लिए और कोई हाल-फिलहाल तो मजबूत फार्मूला नहीं है. संभव यह भी है कि नीतीश के विरोधी ही आजकल एकदम से बिहार में बढ़ी हत्याओं की जड़ में कहीं जाने-अनजाने शामिल न हों! इसकी मैं पुष्टि तो नहीं कर रहा हूं मगर राजनीति में सब कुछ संभव है. दरअसल, जिस तरह जोड़तोड़ की राजनीति के मास्टरमाइंड नीतिश कुमार बीते लंबे समय से बिहार के मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी बचाए हुए हैं, यह उनके किसी भी विरोधी को नहीं पच रहा है. ऐसे में बिहार में सीएम की कुर्सी पर जमे बैठे नीतिश को उससे उतार फेंकने के लिए कौन विरोधी किस हद तक गिर जाएगा? राजनीति में यह कहना बेहद मुश्किल है.”

पुलिस अफसर खुद गले में मरा सांप क्यों डालेंगे

बिहार में अचानक ही पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के तबादलों का दौर चल पड़ा है. इसी के साथ हत्याओं की संख्या में भी इजाफा हो गया है? इस कत्ल-ए-आम की जड़ में कहीं बिहार पुलिस की ही तो कहीं कोई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संदिग्ध भूमिका नहीं है? पूछने पर वरिष्ठ पत्रकार ने कहा, “नहीं मुझे नहीं लगता है. विशेषकर पुलिस और प्रशासनिक अफसरों के थोक में तबादलों से बिहार में बढ़ने वाले कत्ल-ए-आम से सीधा तो कोई साक्ष्य मुझे नजर नहीं आता है. क्योंकि एसएसपी, एसपी, आईजी या डीआईजी ओवरऑल कानून-व्यवस्था के लिए जिम्मेदार होते हैं. एक दो चार मर्डर से उनका सीधे सीधे भला क्या लेना-देना हो सकता है? और फिर कोई इतने ऊंचे ओहदे पर बैठा अफसर क्यों ऐसा करवा कर अपने गले में मरा हुआ सांप डालेगा?”

थाना-पुलिस हमेशा ही संदिग्ध रहती है

बिहार में अचानक आई हत्याओं की बाढ़ पर बेबाक बात करते हुए मुकेश बालयोगी कहते हैं, “हां, इतना जरूर है कि जहां इन छोटे-छोटे हत्या के मामलों से पुलिस अफसरों का कोई सीधा संबंध तो नहीं होगा. वहीं दूसरी ओर, बिहार के भूगोल और सामाजिक गुणा-गणित से देखूं तो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से इन कत्लों के पीछे किसी रूप में अगर थाना पुलिस स्तर का कोई संदिग्ध की श्रेणी में आ जाए, तब यह कोई चौंकाने वाली बात नहीं है. क्योंकि थाना पुलिस में सिपाही-हवलदार, थानेदार, इंस्पेक्टर एसएचओ के अपने-अपने निजी स्वार्थ कहीं छिपे हो सकते हैं. अक्सर देखिए न इसीलिए पुलिस पर अधिकांश आपराधिक घटनाओं में घटना स्थल पर देर से पहुंचने के आरोप खुलेआम लगते भी रहते हैं.”

डॉ. गोपाल खेमका हत्याकांड में पुलिस संदिग्ध!

बिहार में इन दिनों अचानक से बढ़ी हत्याओं की घटनाओं पर बात करते हुए वरिष्ठ पत्रकार मुकेश बालयोगी पुलिस और अपराधियों के गठजोड़ की बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, “दूर क्यों जाइए, हाल ही में पटना में डॉ. गोपाल खेमका हत्याकांड को ही ले लीजिए. थाने की नाक के नीचे कत्ल होने के बाद भी पुलिस काफी देर बाद जब मौके पर पहुंची, तो पीड़ित परिवार और डॉ. गोपाल खेमका हत्याकांड से हलकान भीड़ ने थाना पुलिस और फिर मौके पर पहुंचे जिला स्तरीय पुलिस अफसरों को चारों ओर से घेर लिया. न केवल घेर लिया बल्कि थाना पुलिस और पटना पुलिस अफसरों को पीड़ित पक्ष ने खूब-खरी-खोटी सुनाई.

बेकसूर या पाक-दामन पुलिस क्यों सुनेगी?

यहां तक कह दिया कि डॉ. गोपाल खेमका हत्याकांड में शामिल हमलावरों से थाना और पटना पुलिस मिली हुई थी. इसलिए जब तक गोपाल खेमका का कत्ल करने के बाद, हत्यारे पुलिस की पकड़ से सुरक्षित नहीं भाग गए, तब तक पुलिस मौके पर जान-बूझकर नहीं पहुंची. यह मैं ही नहीं कह रहा हूं. सबकुछ पब्लिक डोमेन में भरा पड़ा है. तमाम ऐसे वीडियो सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स पर भरे पड़े हैं, जिनमें गोपाल खेमका हत्याकांड में देर से पहुंची पुलिस के, पीड़ित पक्ष जमकर खरी-खोटी सुना रहा है. और पुलिस सिर-मुहं नीचे लटकाए खड़ी सुन रही है.”

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