सुशासन बाबू 20 साल से CM हैं, लैंड रिफार्म के लिए क्यों नहीं जुटा पाए हिम्मत, विपक्ष ने पूछ लिया तो क्या करेंगे?
Land Reform: बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को ‘सुशासन बाबू’ के नाम से जाना जाता है. पिछले 20 साल में उन्होंने शिक्षा, सड़क, बिजली, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं में सुधार की तस्वीर बदली, लेकिन भूमि सुधार का मुद्दा आज भी अधूरा है. सवाल उठता है कि इतने लंबे शासनकाल के बावजूद नीतीश कुमार भूमि सुधार लागू करने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पाए.;
Land Reform In Bihar: बिहार की राजनीति में भूमि सुधार का प्रयास हमेशा से पेचीदा मुद्दा रहा है. यह वहां के लोगों के लिए सबसे संवेदनशील और विवादास्पद मसला है. आजादी के बाद से ही जमीन का बंटवारा, बटाईदार किसानों के अधिकार और भूमि रिकॉर्ड आधुनिकीकरण जैसे सवाल सत्ता में आने वाली हर सरकार के सामने आए, लेकिन राजनीतिक समीकरण और वोट-बैंक की मजबूरियों ने इस मुद्दे को हर बार ठंडे बस्ते में डाल दिया. नीतीश कुमार जिन्होंने सुशासन और विकास के एजेंडे पर दो दशकों तक बिहार पर शासन किया, इस मोर्चे पर सुधार करने का जोखिम नहीं उठा सके. यही वजह है कि उन्होंने भूमि सुधार को लेकर प्रक्रिया तो शुरू की, लेकिन पार्टी के अंदर, या कैबिनेट के मंत्रियों ने इतना विरोध किया कि उन्होंने भी इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया और भूल गए कि उन्होंने ऐसी कोई प्रक्रिया भी शुरू की थी.
हकीकत यह है कि उन्होंने भूमि सुधार को लेकर गंभीर थे. वह चाहते थे कि प्रदेश में कोई भूमिहीन न रहे. भूमि सुधार के लिए जरूरी गाइडलाइन तय करने के लिए उन्होंने डी. बंदोपाध्याय के नेतृत्व में आयोग का भी गठन किया. आयोग ने अपनी रिपोर्ट भी पेश की, लेकिन विधेयक बनने की प्रक्रिया और सुधार को वह आगे बढ़ा पाते कि इसका सख्त विरोध शुरू हो गया.
चौंकाने वाली बात यह है कि बिहार में भूमि सुधार के प्रयासों का सबसे ज्यादा विरोध सवर्णों ने नहीं बल्कि कुर्मी और यादवों ने किया. उसके बाद भूमिहार और राजपूत समाज के लोगों भी इसके विरोध खड़े हुए. जबकि ब्राह्मण और कायस्थ समाज के लोग चुप्पी साधे रहे. केंद्र सरकार में मंत्री ललन सिंह (राजीव रंजन) सिंह ने सुशासन बाबू का करीबी होने के बावजूद सबसे ज्यादा विरोध किया. उन्होंने भूमि सुधार के विरोधियों को लेकर बड़े स्तर पर एक सम्मेलन का भी आयोजन किया. सम्मेलन में भारी संख्या में भूस्वामी शामिल हुए.
इसके बाद सरकार का हिस्सा होते हुए भी ललन सिंह ने सीएम नीतीश कुमार को सुझाव कम, चेतावनी भरे लहजे में कहा कि भूमि सुधार पर आगे बढ़े तो यह पार्टी और सरकार दोनों के लिए घातक साबित होगा. उस समय ललन सिंह का पार्टी के कई नेताओं ने साथ दिया था. विरोध को देखते हुए सुशासन बाबू उर्फ नीतीश कुमार ने भूमि सुधार को हमेशा के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया. अब तो उनके भूमि सर्वे का भी विरोध हो रहा है. माना जा रहा है ये काम भी सही तरीके से पूरा नहीं होगा. इस राह में एक नहीं बल्कि कई कारण हैं, जो बाधक बने हुए हैं.
1. भूमि सुधार पर नीतीश की मजबूरी
दरअसल, जमींदारी व्यवस्था की राजनीति पर बिहार में परंपरागत रूप से बड़े जमींदारों की पकड़ रही है. इसके दो कारण हैं. पहला राजनीतिक समीकरण यानी भूमि सुधार करने से बड़ी जातियों और प्रभावशाली वर्ग का वोट बैंक टूटने का डर है. दूसरी वजह वोट-बैंक राजनीति है. नीतीश कुमार ने सामाजिक समीकरण को बनाए रखने के लिए इस मुद्दे को छूने से खुद को दूर कर लिया.
2. भूमि सुधार आयोग और उसकी रिपोर्ट
साल 2006 में डी बंदोपाध्याय आयोग (D. Bandyopadhyay Commission) की रिपोर्ट आई थी. रिपोर्ट ने स्पष्ट कहा गया था कि बटाईदार किसानों को कानूनी हक मिले. भूमिहीनों को जमीन का अधिकार दिया जाए. राजनीतिक दबाव और विरोध की वजह से रिपोर्ट ठंडे बस्ते में डाल दी गई.
3. आधुनिकीकरण पर ध्यान, असली सुधार नहीं
नीतीश कुमार ने भूमि सर्वेक्षण और रिकॉर्ड डिजिटलीकरण का काम शुरू किया। "भू-अधिकार" और "अपना खाता" जैसे पोर्टल से पारदर्शिता बढ़ाने की कोशिश की।लेकिन जमीन का असली बंटवारा और बटाईदारों को अधिकार देने की हिम्मत नहीं दिखाई।
4. सामाजिक-आर्थिक असर
छोटे और सीमांत किसान अब भी भूमिहीन हैं. बटाईदार किसान कानूनी सुरक्षा से वंचित हैं. ग्रामीण स्तर पर असमानता और पलायन की जड़ यही समस्या है.
5. जवाबदेही का सवाल
शिक्षा, सड़क, स्वास्थ्य सुधार पर नीतीश ने काम किया, लेकिन भूमि सुधार की राजनीतिक कीमत चुकाने का साहस नहीं जुटा पाए. यही वजह है कि आज सवाल उठता है कि 20 साल तक 'सुशासन' देने वाले नीतीश भूमि सुधार का जवाब कब देंगे?
डी. बंदोपाध्याय आयोग की प्रमुख अनुशंसाएं
बिहार में कुल 18 लाख एकड़ तक फैली अतिरिक्त जमीन हैं. ये भूमि या तो सरकारी नियंत्रण में है या भूदान समिति के नियंत्रण में है, जिसे बांटा नहीं जा सका है या सामुदायिक नियंत्रण में या कुछ अन्य लोगों के कब्जे में है. इस जमीन को भूमिहीनों में बांटने की अनुशंसा की थी.
डी. बंदोपाध्याय आयोग की सिफारिश की थी कि बटाईदारों की रक्षा के लिए एक अलग बटाईदारी कानून होना चाहिए. भूमि पर मात्र दो श्रेणियों के व्यक्ति का अधिकार हो. पहला रैयत, जिसका भूमि पर पूर्ण स्वामित्व, अधिकार तथा हित रहेगा. दूसरा बटाईदार, जिसे स्वामित्व का अधिकार नहीं बल्कि भूमि पर लगातार जोत-आबाद का अधिकार रहेगा.
प्रदेश में हर बटाईदार के पास पर्चा रहे, जिसमें भू-स्वामी का नाम तथा जिस भूखंड पर वह जोत कर रहा है, उसकी संख्या रहे. पर्चा की सत्यापित प्रति भू-स्वामी को दी जाए. बटाईदार का जोत आबाद का अधिकार अनुवांशिक रहे, यानी पीढ़ी दर पीढ़ी वो उसपर खेती कर सके.
आयोग के अनुसार कृषि और गैर कृषि भूमि के बीच अंतर को समाप्त कर दिया जाना चाहिए. भूमि को उसके सरल अर्थ में परिभाषित किया जाना चाहिए ताकि किसी को सीलिंग प्रावधानों से किसी जमीन को कृषि योग्य और किसी को अन्य प्रकार का बनाकर, बच निकलने का अवसर न मिले.
सीलिंग के दायरे से प्लांटेशन, बगीचा, आम-लीची के बगीचे, मत्स्य पालन तथा अन्य विशिष्ट श्रेणियों के भूमि उपयोग को दी गई छूट समाप्त कर दी जाए.
पांच या अधिक सदस्यों वाले परिवार के लिए 15 एकड़ भूमि की सीमा होनी चाहिए. यदि परिवार का कोई प्लान्टेशन, बाग-बगीचा आदि हो तो उसे यह चुनाव का अधिकार रहे कि वह या तो उन्हें 15 एकड़ तक रखें अथवा 15 एकड़ तक धान/गेहूँ की ज़मीन रखें.
भूमि सर्वेक्षण पर भी फंसा पेंच
बिहार में भूमि सर्वेक्षण मुहिम राज्य के भूमि विवादों को सुलझाने के उद्देश्य से शुरू किया गया था, लेकिन यह प्रक्रिया विवादों और विरोधों से घिर गई है. साल 2020 में शुरू हुआ यह सर्वे अब समयसीमा विस्तार के बाद छह महीने तक बढ़ा दिया गया है.
बिहार में कृषि व जोत वाली जमीन का पहला सर्वेक्षण ब्रिटिश शासन के अधीन 1890 से 1920 तक चला, जिसे कैडस्ट्रल सर्वेक्षण कहा जाता है. दूसरा सर्वेक्षण 1952 में शुरू हुआ, जिसे रिविजनल सर्वे का नाम दिया गया. इसे सिर्फ 23 जिलों में ही पूरा किया जा सका था. तीसरा जमीन सर्वेक्षण बिहार विशेष सर्वेक्षण बंदोबस्त नियमावली 2012 के तहत किया जा रहा है.
बिहार के अलावा, केंद्र एवं अन्य राज्य में भी इस तरह के प्रयास किए गए, जिसमें गुजरात, आंध्र प्रदेश समेत कई राज्य शामिल हैं. किसी भी राज्य में सर्वे का काम पूरा नहीं हो सकता है. ऐसे में सीएम नीतीश कुमार इसे पूरा कर पूरे देश में पहले लैंड सर्वे का रिकॉर्ड बना पाएंगे या नहीं, इसका दावा करना मुश्किल है.