बिहार में चुनावी हिंसा का इतिहास, कब-कब बहा खून, सबसे ज्यादा किस साल गिरी लाशें?

History Of Violence In Bihar Election: बिहार की राजनीति सिर्फ नारों और वादों की नहीं बल्कि गोलियों और बम धमाकों की भी गवाह रही है. हर चुनाव में लोगों को खून-खराबा और हिंसा की तस्वीरें देखने को मिलती हैं. इस रिपोर्ट में जानिए बिहार में कब-कब चुनावी हिंसा भड़की, कितनों की गई जान और सबसे बड़ा खूनी साल कौन रहा?;

( Image Source:  Meta AI )
By :  धीरेंद्र कुमार मिश्रा
Updated On : 22 July 2025 12:23 PM IST

Violence In Bihar Election: बिहार विधानसभा चुनाव का नाम सुनते ही राजनीति की गूंज और जातीय समीकरण की गहराई याद आने के साथ एक और चीज सामने आती है. वह है, चुनावी हिंसा. यहां चुनाव सिर्फ मतपत्र का उत्सव नहीं बल्कि लाशों की लंबी कतार और बंदूक की गूंज भी है. साल 1947 से लेकर आज तक बिहार में शायद ही कोई चुनाव ऐसा बीता हो, जब खून न बहा हो.

देश की आजादी के बाद बिहार पहली बार चुनाव 1951-52 में हुए थे. उस समय हिंसक घटनाएं नहीं हुई थीं. बिहार में शांतिपूर्ण चुनाव का दौर 1968 बना रहा है. उसके बाद हर चुनाव में हिंसक घटनाओं के साथ लोगों की हत्याएं हुईं.

1965 में पहली राजनीतिक हत्या

बिहार में राजनीतिक हत्या की पहली घटना 1965 में हुई थी. उस समय कांग्रेस से पूर्व विधायक शक्ति कुमार की हत्या कर दी गई थी. विधायक की हत्या के बाद उनका शव तक नहीं मिला था. शक्ति कुमार दक्षिणी गया से विधायक रहे थे. शक्ति कुमार की हत्या के बाद 1972 में भाकपा विधायक मंजूर हसन की हत्या उनके फ्लैट में कर दी गई थी. 1978 में भाकपा के ही सीताराम मीर को भी मार दिया गया. 1984 में कांग्रेस के नगीना सिंह की हत्या हो गई.

कब हुई सबसे ज्यादा हत्याएं

टीओईआई के अनुसार बिहार विधानसभा में हिंसक घटनाओं की बात करें तो साल 1969 में पहली बार चुनाव चार लोग मारे गए, 1977 में 28, 1980 में 38, 1985 में 69, 1990 में 67, 1995 में 54, 2000 में 61, फरवरी 2005 में पांच और अक्टूबर-नवंबर 2005 के विधानसभा चुनावों में 27 लोग मारे गए. सबसे ज्यादा लोग 1985 के चुनाव में मारे गए थे.

साल 2005 के बाद चुनाव आयोग की सख्ती के कारण चुनावी बिहार में हिंसक घटनाओं में कमी आई और इनमें मरने वालों की संख्या भी काफी हद तक कम हो गई. फरवरी और अक्टूबर 2005 के चुनाव में 17 मौतें हुई थीं. साल 2010 में 5 लोगों की मौत हुई थी. साल 2015 में किसी की मौत नहीं हुई, जबकि इस चुनाव में बिहारियों के डीएनए तक का मुद्दा उठा था.

चुनावों के दौरान क्यों होती हैं हिंसक घटनाएं?

बिहार में चनाव के दौरान हिंसक घटनाओं की मुख्य वजह नकली वोट डालने के लिए हथियारबंद गुंडों द्वारा बूथों पर कब्जा करना, आम मदाताओं को वोट डालने से डराना, कमजोर जातियों या विरोधी गुटों के लोगों को धमका कर घर में बंद करना. बम और गोलीबारी घटनाएं मतदान वाले दिन क्षेत्र में दहशत फैलाने के लिए भी किए जाते हैं.

नक्सल बेल्ट में सबसे ज्यादा खतरा

बिहार के औरंगाबाद, गया, जमुई, रोहतास और जहानाबाद जैसे जिले जहां नक्सली गतिविधियां ज्यादा होती हैं, वहां हर चुनाव में हिंसा का खतरा बना रहता है. यहां माओवादी चुनावों का बहिष्कार करते हुए मतदान केंद्रों को निशाना बनाते हैं.

क्या इस बार बदलेगी तस्वीर?

बिहार में शिक्षा, रोजगार और विकास की बातें चुनावी मंचों पर गूंजती हैं, लेकिन जब तक हिंसा का डर खत्म नहीं होता, लोकतंत्र का असली मतलब अधूरा ही रहेगा. हालांकि, दशमों बाद इस बार काफी संख्य में युवा नेता खुलकर पुराने नेताओं को सियासी टक्कर देते नजर आ रहे हैं.

 हिंसा की मुख्य वजह

बिहार में राजनीतिक हत्याओं के पीछे की वजह बाहुबलियों को तवज्जो देना मुख्य वजह रहा है. राजनीतिक हिंसा और हत्या के दौर में बिहार में कई नेताओं की जान गई. जुलाई 1990 में जनता दल के विधायक अशोक सिंह को उनके घर पर ही मार दिया. फरवरी 1998 की रात को विधायक देवेंद्र दुबे की हत्या हो गई. विधायक बृजबिहारी प्रसाद की भी हत्या हो गई. अप्रैल 1998 में माकपा के विधायक अजीत सरकार की दिनदहाड़े हत्या कर दी गई. अजीत सरकार की हत्या के मामले में तो बाहुबली नेता पप्पू यादव को उम्रकैद की सजा भी मिली थी. हालांकि, बाद में सबूतों के अभाव में पप्पू यादव को बरी कर दिया गया.

केंद्र सरकार की एजेंसी एनसीआरबी का डेटा के अनुसार बिहार में आज भी राजनीतिक हत्याओं का सिलसिला थमा नहीं है. साल 2019 में ही बिहार में 62 राजनीतिक हिंसा की घटनाएं हुई थीं, जिसमें 6 लोग मारे गए थे.

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