SIR पर बवाल और नीतीश कुमार की घोषणाओं के बीच बिहार चुनाव से दरकिनार क्यों दिख रहे बाहुबली?
बिहार की राजनीति में कभी बाहुबलियों का बोलबाला था. आनंद मोहन, अनंत सिंह से लेकर शहाबुद्दीन तक, इन नेताओं का डर ही वोट बैंक था. लेकिन अब कानून का शिकंजा, बदलते मतदाता और दलों की नई रणनीति ने इनकी पकड़ ढीली कर दी है. परिवारवाद भी अब सियासी जमीन बचाने में नाकाम हो रहा है. बदलाव की यह बयार लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है.;
कभी बिहार की राजनीति में बाहुबल का बोलबाला था, लेकिन अब ये इतिहास बनने को है. एक वक्त था जब बाहुबली नेताओं के बिना कोई चुनावी चर्चा अधूरी मानी जाती थी. गांव-गांव में उनके डर और रसूख की चर्चा होती थी. मगर अब तस्वीर पूरी तरह बदल गई है. लोकतांत्रिक चेतना और कानून के सख्त होते शिकंजे ने इन नेताओं को चुनावी फ्रेम से बाहर कर दिया है. अपराध और राजनीति के गठजोड़ ने भले ही इन्हें कुछ दशक तक सत्ता दिलाई, लेकिन अब वही गठजोड़ उनकी सियासत के लिए बाधा बन गया है.
आज बिहार में SIR को लेकर हंगामा मचा हुआ है. विपक्षी दल इसे आधार मानकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. वहीं, नीतीश कुमार की मुफ्त योजनाओं और सामाजिक समीकरणों के इस दौर में बाहुबलियों को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है, जिससे उनकी राजनैतिक जमीन खिसकती नजर आ रही है. आइए जानते हैं कि आखिर बिहार के बाहुबलियों की क्या स्थिति है...
मोकामा में अनंत सिंह के युग का अंत?
शुरुआत मोकामा से करते हैं. अनंत सिंह का नाम मोकामा की राजनीति का पर्याय हुआ करता था. लेकिन अब खुद जेल में हैं और पत्नी नीलम देवी उनके सियासी सफर की विरासत संभालने में जुटी हैं. अनंत सिंह कभी जेडीयू में थे, फिर निर्दलीय हुए, फिर आरजेडी में आए और अब फिर से नीतीश के पाले में लौट चुके हैं. यह राजनीतिक ‘पैंतरेबाज़ी’ दर्शाती है कि दबदबे से ज़्यादा अब अस्तित्व की लड़ाई बची है. नीलम देवी के लिए जेडीयू से टिकट मिलना भी आसान नहीं, क्योंकि पार्टी अब साफ-सुथरी छवि वाले उम्मीदवारों को तरजीह दे रही है.
आनंद मोहन: बदलते वक़्त की पहचान
राजपूत समाज के बड़े नेता माने जाने वाले आनंद मोहन एक समय शिवहर और तिरहुत डिवीजन की राजनीति का चेहरा हुआ करते थे. 1990 के दशक में वे उस दौर के ‘ठाकुर बाहुबली’ की छवि के प्रतीक बन गए थे. लेकिन डीएम जी. कृष्णैया हत्याकांड में उम्रकैद की सजा के बाद उनका राजनीतिक भविष्य लगभग खत्म हो गया. हाल में सजा माफ हुई और वे बाहर आए, लेकिन न तो नीतीश कुमार उनके साथ मंच साझा कर रहे हैं और न ही जेडीयू या आरजेडी उनके परिवार को प्राथमिकता दे रही है. उनका बेटा चेतन आनंद विधायक है, पर इस बार उसकी उम्मीदवारी को लेकर भी स्थिति स्पष्ट नहीं है.
शहाबुद्दीन के बाद विरासत पर संकट
शहाबुद्दीन को एक समय ‘सिवान का सुल्तान’ कहा जाता था. लेकिन सजा, जेल और अंततः कोरोना के दौरान मौत ने इस युग का पूर्णविराम कर दिया. उनकी पत्नी हिना शहाब लगातार चुनाव हारती रहीं, और हाल में निर्दलीय चुनाव लड़ने के बाद आरजेडी में वापसी की. बेटे ओसामा को लेकर राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं तो हैं, लेकिन रघुनाथपुर से टिकट मांगने पर आरजेडी के मौजूदा विधायक हरिशंकर यादव से टकराव तय है. हिना शहाब की अपील अब पहले जैसी नहीं रही और सिवान का मिज़ाज भी अब डर की राजनीति से आगे बढ़ चुका है.
फीका पड़ गया सूरजभान सिंह का दबदबा
कभी मोकामा और मुंगेर में जो प्रभाव सूरजभान सिंह का हुआ करता था, वो अब फीका पड़ गया है. हत्या के मामलों में सजायाफ्ता होने के कारण वे चुनाव नहीं लड़ सकते, और राजनीतिक भविष्य अब पूरी तरह परिवार के हाथ में है. उनकी पत्नी वीणा देवी सांसद रह चुकी हैं, लेकिन अनंत सिंह के फिर से जेडीयू में आने से सूरजभान के लिए खतरा बढ़ गया है. एलजेपी (रामविलास) से संबंधों के बावजूद एनडीए में आंतरिक प्रतिस्पर्धा उनकी संभावनाओं को प्रभावित कर रही है. मुंगेर सीट से कौन लड़ेगा नीलम देवी या वीणा देवी यह अब राजनीतिक रस्साकशी का हिस्सा बन गया है.
भोजपुर में बदलाव की आहट
भोजपुर के इलाके में सुनील पांडेय का एक समय डंका बजता था. लेकिन अब वे खुद एमएलसी हैं और बेटे विशाल प्रशांत पांडेय बीजेपी से विधायक हैं. विरोधी खेमे में सुदामा यादव सांसद हैं. हालांकि विशाल के पास संभावनाएं हैं, लेकिन पिता की दबंग छवि उनके लिए दुविधा बन सकती है. सुनील पांडेय का सामंती प्रभाव अब ग्रामीण मतदाता के बीच असर नहीं डालता, और बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व भी अब छवि को प्राथमिकता देता है.
मुन्ना शुक्ला और प्रभुनाथ सिंह को नहीं मिल रहा साथ
मुन्ना शुक्ला, लालगंज से विधायक रह चुके हैं और उनकी पत्नी अन्नू भी विधायक रहीं. लेकिन अब वे आरजेडी में हैं और पार्टी उन्हें टिकट देगी या नहीं, यह तय नहीं है. वहीं प्रभुनाथ सिंह, जो लालू युग के बड़े बाहुबली थे, अब अदालत की सजा के कारण राजनीति से बाहर हैं. उनके बेटे रणधीर और भतीजे सुधीर पिछला चुनाव हार चुके हैं. रणधीर ने अब जेडीयू जॉइन किया है, लेकिन सियासी भविष्य अनिश्चित है. पुरानी पीढ़ी के ये बाहुबली अब परिवारवाद के सहारे चुनावी सीन में बने रहना चाहते हैं, मगर ज़मीनी हकीकत साथ नहीं दे रही.
राजनीतिक हाशिए पर राजन तिवारी और रामा सिंह
राजन तिवारी और उनका परिवार खासकर भाई राजू तिवारी एलजेपी (रामविलास) में सक्रिय हैं, लेकिन इलाके में जनाधार सीमित हो गया है. वहीं महनार के पूर्व विधायक और वैशाली के पूर्व सांसद रामा सिंह की भी कभी ठाकुर समाज में जबरदस्त पकड़ थी. अब वे चिराग पासवान की पार्टी एलजेपी (रामविलास) में हैं और उनकी पत्नी राजेडी से विधायक हैं. लेकिन खुद को स्थिर नहीं कर पाए. बार-बार पार्टी बदलने से न तो कोई संगठनात्मक ताकत बनती है और न ही मतदाताओं का भरोसा. ऐसे नेताओं की पहचान अब ‘स्थायी बाहुबली’ नहीं, बल्कि 'स्थायी अस्थिरता' बन गई है.
कांग्रेस नहीं दे रही पप्पू यादव को भाव
पप्पू यादव, जो कभी कोसी क्षेत्र में कद्दावर नेता माने जाते थे, अब जनता दरबार और समाजसेवा के जरिए अपनी छवि सुधारने में लगे हैं. लेकिन राजनीतिक दलों ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया. 2024 में उन्हें किसी दल ने टिकट नहीं दिया तो निर्दलीय उतरे और पूर्णिया से जीत हासिल की. हाल ही में पटना में हुई एक रैली में उन्हें राहुल गांधी के साथ वैन में चढ़ने से रोक दिया गया था. पप्पू यादव की नई छवि 'सामाजिक नेता' की हो सकती है, लेकिन चुनावी सफलता के लिए ज़मीनी संगठन और समर्थन जरूरी है, जो फिलहाल नदारद है.
वंशवाद के सहारे डगमगाते राजनीतिक घराने
एक आम ट्रेंड देखने को मिल रहा है कि बाहुबली नेता जेल जाते हैं, तो बेटा या पत्नी चुनाव लड़ते हैं. यह वंशवाद पिछले दो दशकों से चल रहा है. लेकिन अब पार्टी हाईकमान और मतदाता दोनों ही इस ट्रेंड को संदेह की निगाह से देखने लगे हैं. राजनैतिक पूंजी सिर्फ डर या हिंसा पर नहीं चलती. परिवार की विरासत चलाना अब आसान नहीं रहा, खासकर तब, जब नई पीढ़ी के नेताओं को विकास, रोजगार और सेवा जैसे मुद्दों पर खुद को साबित करना पड़ता है.
बाहुबल का अंत होते देख रहा बिहार
बिहार में जाति समीकरण भले मजबूत हों, लेकिन बाहुबली नेताओं का डर अब वैसा असर नहीं करता. पार्टियों को लगता है कि बाहुबली उम्मीदवारों से उन्हें नैतिक और छवि संबंधी नुकसान हो सकता है. ऐसे में अब 'क्लीन इमेज' के नेता प्राथमिकता बन गए हैं. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि सोशल मीडिया, युवाओं की भागीदारी, और मीडिया की सतर्कता ने बाहुबल के विकल्प तैयार कर दिए हैं.
यही है बदलाव की शुरुआत
बिहार की राजनीति एक नये युग की ओर बढ़ रही है. बाहुबली नेताओं का सियासी हाशिये पर जाना महज़ एक दौर का अंत नहीं, बल्कि लोकतंत्र के परिपक्व होने की निशानी है. अब मतदाता अपराध और डर से ज़्यादा विकास और उम्मीद को वोट दे रहा है. यह बदलाव धीमा है लेकिन स्थायी है. हो सकता है कि भविष्य में इन नेताओं के परिवार राजनीति में रहें, लेकिन बाहुबली पहचान के साथ नहीं एक ज़िम्मेदार जनप्रतिनिधि की छवि के रूप में.