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बिहार के पहले चुनाव में किस पार्टी को मिली थी सबसे ज्यादा सीटें? जीत का इतिहास आज के कांग्रेस के लिए नसीहत क्यों?

Bihar First Assembly Election 1952: देश को आजादी मिलने के बाद पहली बार बिहार में 1952 में विधानसभा चुनाव संपन्न हुआ था. इस चुनाव में कांग्रेस ने प्रचंड जीत हासिल की थी. उस समय कांग्रेस पार्टी जनता की पहली पसंद थी. आज वही पार्टी राज्य की राजनीति में हाशिए पर क्यों है? जानिए, कांग्रेस की जीत का इतिहास और पिछले तीन दशक से ज्यादा समय से उसकी हार के पीछे की वजह क्या है?

बिहार के पहले चुनाव में किस पार्टी को मिली थी सबसे ज्यादा सीटें? जीत का इतिहास आज के कांग्रेस के लिए नसीहत क्यों?
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( Image Source:  https://vidhansabha.bihar.gov.in/ )

जिस कांग्रेस पार्टी को आज बिहार में गठबंधन के सहारे चुनावी जीत की आस है, वो कभी राज्य की राजनीति में निर्विवाद पार्टी हुआ करती थी. साल 1952 में जब देश आजादी के बाद पहला विधानसभा चुनाव लड़ा गया, तब बिहार में भी लोकतंत्र की नई इबारत लिखी जा रही थी. उस इबारत पर सबसे पहले हस्ताक्षर किया था, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने, लेकिन तब और अब के कांग्रेस में फर्क सिर्फ सालों का नहीं, सोच और संघर्ष का गैप आ गया है. तो चलिए, जानते हैं कि बिहार के पहले चुनाव में किसे कितनी सीटें मिली, कौन सबसे बड़ा चेहरा बनकर उभरा और उस दौर की राजनीति से कांग्रेस के नेता अब क्या सीख ले सकते हैं?

बिहार में पहला विधानसभा चुनाव जनवरी से मार्च 1952 के बीच संपन्न हुआ था. पहली बार चुनाव 322 सीटों पर चुनाव कराए गए थे. लगभग 1400 उम्मीदवार मैदान में थे. 1951 में कुल मतदाता 1,80,80,181 में से 99,95,451 ने मतदान किया था. यानी कुल 55.3 प्रतिशत मतदाताओं ने मताधिकार का प्रयोग किया था. बिहार के पहले विधानसभा चुनाव में 13 दल चुनाव लड़ने के लिए चुनावी समर में उतरे थे. बिहार में सबसे ज्यादा कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे.

किसे मिली, कितनी सीटें?

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 322 में से 239 सीटों पर जीत हासिल कर भारी बहुमत से सरकार बनाई थी. सोशलिस्ट पार्टी 33 सीटों पर चुनाव ​जीतने में सफल हुई थी. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI) को 23 सीटों पर कामयाबी मिली थी. अन्य और निर्दलीयों को 35 सीटों पर जीत मिली थी. पहले चुनाव में कांग्रेस ने अकेले 72 प्रतिशत से ज्यादा सीटें जीती थी. कृष्ण सिंह, जिन्हें लोग 'श्री बाबू' कहते थे, वो बिहार के पहले मुख्यमंत्री बने और 1952 से लेकर 1961 तक यानी लगातार 24 साल तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे.

फिर कांग्रेस कहां और कैसे हारी?

1952 से लेकर 1985 तक के चुनावों तक कांग्रेस का गांव-गांव तक फैला मजबूत संगठन था, लेकिन समय के साथ यह संगठन ढीला पड़ गया. स्थानीय नेतृत्व की केंद्र पर निर्भरता बढ़ती गई. जातीय समीकरण और भूमि सुधार जैसे मुद्दों पर कांग्रेस ने चुप्पी साध ली, जो उसकी जमीन खिसकने की वजह बनी और लालू यादव और नीतीश कुमार जैसे नेताओं के उभार के साथ कांग्रेस का वोट बैंक बिखर गया.

आज की कांग्रेस के लिए सबक

1995 के बाद से बिहार में कांग्रेस बहुत कमजोर स्थिति में है. वह आरजेडी के बिना किसी भी सीट पर जीत की उम्मीद नहीं कर सकती. कांग्रेस नेताओं को चाहिए कि स्थानीय नेतृत्व को तरजीह देना जरूरी है. सिर्फ गांधी परिवार के भरोसे बिहार नहीं जीता जा सकता. जमीनी संगठन को फिर से खड़ा करना होगा.

मुद्दों पर साफ करना होगा पार्टी का स्टैंड

आरक्षण, जाति, विकास, बेरोजगारी, बिहार का औद्योगिकीकरण, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा, गरीबी जैसे मसलों पर कांग्रेस की चुप्पी, उसे और हाशिए पर धकेल रही है. बिहार की राजनीति को समझने वाले नेताओं को आगे लाने होंगे, सिर्फ दिल्ली के सलाहकारों से काम नहीं चलेगा.

करना होगा जनप्रतिनिधियों को मजबूत - मशकूर उस्मानी

बिहार कांग्रेस के युवा नेता और एमएमयू के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष डॉ. मशकूर उस्मानी का कहना है कि देश की आाजदी के बाद बिहार नहीं पूरे देश में कांग्रेस का असर था. बिहार में भी 1952 से लेकर 1990 के दौर के बीच के कुछ काल को छोड़ दें तो कांग्रेस का बिहार में एकछत्र राज रहा. लोगों ने कांग्रेस की नीतियों को पसंद किया. उस दौर में कांग्रेस ने बिहार में काम किए, लेकिन 1975 के बाद से दौर बदलने लगा. समाजवादियों की लहर चली, लोगों को लगा कि बदलाव होने चाहिए. कुछ और बेहतरी के लिए दूसरों को सत्ता में लाने की जरूरत है. बिहार के लोगों ने वैसा ही किया.

एक बार फिर बदलाव के संकेत मिलने लगे हैं. कांग्रेस बिहार में फिर से सभी साथ लेकर चलने की नीति पर काम कर रही है. उस्मानी ने कहा कि पार्टी के नेता राहुल गांधी का कहना है कि सबका एक समान विकास जरूरी है. किसी के साथ न तो जाति के आधार पर न धर्म और न ही आर्थिक आधार पर भेदभाव होगा. जातिगत जनगणना पर जोर उसी का नतीजा है. कांग्रेस के दबाव में आकर केंद्र सरकार ने इस पर सहमति जताई है. उन्होंने कहा दो माह पहले जब राहुल गांधी बिहार आए थे तो कहा था कि लोगों से सशक्तिकरण तभी होगा, जब उनके चुने जनप्रतिनिधि यानी सांसदों, विधायकों और पार्षदों के पास पावर हो. आज जनप्रतिनिधियों के हाथ में 5 प्रतिशत भी बजट नहीं है. कांग्रेस की सरकार बनेगी तो जनता के चुने हुए प्रतिनिधि तय करेंगे कि किन-किन विकास कार्यों को बढ़ावा देने की जरूरत है.

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