‘साइमन गो बैक’ और ‘क्विट इंडिया’ का दिया नारा, जेल से चुनाव लड़कर बने बॉम्बे के मेयर; पढ़ें यूसुफ मेहर अली की कहानी
यूसुफ मेहर अली ने अपनी हिम्मत और जज़्बे से भारत की आज़ादी में अमिट योगदान दिया. 1928 में उन्होंने ‘साइमन गो बैक’ और 1942 में ‘क्विट इंडिया’ का नारा दिया, जिसने पूरी देश को एकजुट किया. जेलों और मुश्किलों के बावजूद उन्होंने मजदूरों, किसानों और समाज के लिए लड़ाई जारी रखी, और बॉम्बे के मेयर के रूप में जनता के विश्वास का प्रतीक बने. आप पढ़ रहे हैं 'आजादी के मुस्लिम परवाने' सीरीज की सातवीं पेशकश, जिसमें मुझे यानी यूसुफ मेहर अली को जानने का मौका मिलेगा.;
साल 1923 की बात है. मुंबई का शहर ब्रिटिश शासन के दमन और सामाजिक असमानताओं के बीच उभर रहा था. एक धूप भरे दोपहर यूसुफ मेहर अली अपने हाथ में एक किताब ‘गांधी और स्वतंत्रता का रास्ता’ लेकर शहर के भीड़-भाड़ वाले बाज़ार में घूम रहे थे. तभी उनकी नजर कुछ किसानों पर पड़ी, जिन्हें एक ब्रिटिश पुलिस अफ़सर बेरहमी से धमका रहा था. यूसुफ ने बिना देर किए उन किसानों की ओर दौड़ लगाई और अफ़सर को रोकने की कोशिश की. पुलिस अफ़सर ने उन्हें डांटा और धमकाया, लेकिन यूसुफ ने साहस से कहा, “हम न्याय के लिए खड़े हैं और डरेंगे नहीं.”
यह छोटी लेकिन निर्णायक घटना उनके जीवन का पहला संघर्षमय अनुभव बन गई. उसी दिन यूसुफ के मन में यह दृढ़ संकल्प बैठ गया कि उनका जीवन केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं, बल्कि समाज और देश के लिए होगा. इस घटना ने उनके भीतर अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने और सामाजिक सुधार के लिए पूरी जिंदगी समर्पित करने की प्रेरणा दी. यही वह क्षण था जिसने यूसुफ मेहर अली को एक सामान्य युवक से समाज और राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार क्रांतिकारी में बदल दिया.
यूसुफ मेहर अली सिर्फ़ एक क्रांतिकारी ही नहीं, बल्कि एक दूरदर्शी नेता और समाज सुधारक भी थे. उनकी सोच में स्वतंत्रता, समानता और न्याय तीनों का समन्वय था. उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाज उठाने के साथ-साथ मजदूरों, किसानों और आम जनता के अधिकारों के लिए भी संघर्ष किया. उनके नेतृत्व और प्रेरणा से ‘क्विट इंडिया मूवमेंट’ जैसे राष्ट्रव्यापी आंदोलन ने भारत को आज़ादी की ओर अग्रसर किया. मेहर अली खुशनसीब रहे कि उन्होंने जिस आजादी के लिए संघर्ष किया उसे अपनी आंखों से देख भी पाए. निधन के बाद उनको अंतिम बिदाई देने पूरा बॉम्बे सड़क पर आ गया था. यूसुफ की कहानी यह साबित करती है कि सही दृष्टि और साहस के साथ एक व्यक्ति पूरे समाज और राष्ट्र के लिए बदलाव ला सकता है. आइए पढ़ते हैं यूसुफ मेहर अली की कहानी उनकी ही जुबानी...
मैं यूसुफ मेहर अली, 23 सितंबर 1903 को मुंबई में जन्मा था. बचपन से ही मुझे समाज और देश की समस्याओं ने बहुत प्रभावित किया था. मेरे परिवार का माहौल पढ़ाई-लिखाई और व्यवसायिक था, लेकिन मेरा मन हमेशा उन लोगों की मदद करने और अन्याय के खिलाफ खड़ा होने में लगता था. हाईस्कूल के दौरान ही मैंने ब्रिटिश शासन की नीतियों और सामाजिक अन्याय को देखा और उनके खिलाफ आवाज उठाना शुरू कर दिया. मुझे यह समझ में आ गया था कि देश की आज़ादी केवल मेरे लिए नहीं, बल्कि हर भारतीय के लिए जरूरी है.
1923 का साल मेरे जीवन का एक मोड़ था. मैं मुंबई के भीड़-भाड़ वाले बाज़ार में घूम रहा था और हाथ में 'गांधी और स्वतंत्रता का रास्ता' किताब लिए हुए था. तभी मैंने देखा कि एक पुलिस अफ़सर कुछ किसानों को परेशान कर रहा है. मैं बिना सोचे उनके पास गया और उन्हें रोकने की कोशिश की. अफ़सर ने मुझे धमकाया, लेकिन मैंने डटकर कहा, "हम न्याय के लिए खड़े हैं और डरेंगे नहीं." उस छोटे से संघर्ष ने मेरे जीवन की दिशा बदल दी और मैंने ठान लिया कि मैं अपने जीवन को समाज और देश की सेवा के लिए समर्पित करूंगा.
मैं समाजवादी विचारधारा से प्रभावित था. मेरे लिए स्वतंत्रता केवल राजनीतिक नहीं थी, बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय भी जरूरी था. इसी सोच के चलते मैंने मजदूरों और किसानों के अधिकारों के लिए कई आंदोलन शुरू किए. बॉम्बे और आसपास के क्षेत्रों में मजदूरों और किसानों को संगठित करने में मेरी पूरी कोशिश रही. मुझे यह विश्वास था कि बिना न्याय के स्वतंत्रता अधूरी है.
1925 में मैंने युवाओं को स्वतंत्रता आंदोलन के लिए प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से 'यूथ यंग इंडिया सोसायटी' की स्थापना की. इसके बाद मैंने बॉम्बे यूथ लीग बनाई और ट्रेड यूनियनों को सशक्त किया. मजदूर हड़तालों और किसान आंदोलनों ने मुझे जन-जन का नेता बना दिया. 1934 में जेल से रिहा होने के बाद मैं कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुआ और देशभर में स्वतंत्रता आंदोलन की कहानी को आगे बढ़ाने में जुट गया.
1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया, तब मैंने और मेरे साथियों ने कुली का वेश धारण कर बॉम्बे बंदरगाह पर जाकर अंग्रेज अफसरों को आंखों में आंखें डालकर कहा, "साइमन गो बैक." हमें लाठियां खानी पड़ी और गिरफ्तार किया गया, लेकिन हमारा नारा पूरे देश में गूंज चुका था और युवाओं के लिए प्रेरणा बन गया था. यही मेरा पहला बड़ा सार्वजनिक संघर्ष था जिसने मेरे जीवन को क्रांतिकारी के रूप में आकार दिया.
साल 1942 मेरे जीवन का सबसे अहम मोड़ था. मैं यरवदा सेंट्रल जेल में कैद था. उसी समय महात्मा गांधीजी को एक ऐसा नारा चाहिए था जो पूरे देश को अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़ा होने के लिए प्रेरित करे. मैंने उन्हें "Quit India" लिखा धनुष भेंट किया और गांधीजी ने इसे तुरंत स्वीकार कर लिया. इस नारे ने देशभर में क्रांति की लहर पैदा की और मैं गर्व महसूस कर रहा था कि मेरी सोच और प्रयासों ने राष्ट्रीय आंदोलन को दिशा दी.
उसी साल मुझे बॉम्बे का मेयर चुना गया, जबकि मैं जेल में था. यह मेरे नेतृत्व और जनता के विश्वास का प्रतीक था. जेल में रहते हुए भी मैं समाज सुधार और सार्वजनिक कल्याण की योजनाओं पर काम करता रहा. मेरी प्राथमिकता शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक उत्थान थी. मैंने स्कूल, पुस्तकालय और प्रशिक्षण केंद्र खोलने में मदद की ताकि लोग जागरूक हों और अन्याय के खिलाफ खड़े हों.
मेरी जिंदगी में कई बार कठिनाई और संघर्ष आया. जेल की सजा, ब्रिटिश प्रशासन का दमन, राजनीतिक विरोध इन सबके बावजूद मैंने कभी हार नहीं मानी. मेरा मानना था कि अगर आप अपने विचार और न्याय के लिए खड़े हैं, तो कोई भी शक्ति आपको रोक नहीं सकती. मैंने हमेशा कोशिश की कि मेरे कदम समाज और देश के लिए प्रेरणा बनें.
आज जब मैं पीछे देखता हूं, तो मुझे गर्व होता है कि मैंने सिर्फ़ ब्रिटिश शासन के खिलाफ नहीं बल्कि समाज में न्याय, समानता और शिक्षा के महत्व के लिए भी काम किया. मेरे द्वारा रचे गए नारे 'साइमन गो बैक' और 'भारत छोड़ो' आज भी इतिहास में अमर हैं. मुझे खुशी है कि मेरी आवाज ने देश को जागृत किया और हजारों लोगों को स्वतंत्रता की लड़ाई में भाग लेने के लिए प्रेरित किया.
2 जुलाई 1950 को मैं इस दुनिया से चला गया, लेकिन मेरे संघर्ष और आदर्श आज भी जीवित हैं. बॉम्बे की सड़कों पर मेरी अंतिम यात्रा में पूरा शहर रुका हुआ था, यह दिखाता है कि लोगों ने मेरे जीवन और कार्य को कितना सम्मान दिया. मेरी कहानी यह साबित करती है कि एक व्यक्ति की प्रतिबद्धता पूरे समाज और राष्ट्र को बदल सकती है. मैंने अपने जीवन को देश और समाज की सेवा में समर्पित किया और यही मेरा असली सम्मान था.
- यूसुफ मेहर अली