कौन थे एडवरटाइजिंग वर्ल्ड के जादूगर पीयूष पांडे? 70 साल की उम्र में निधन, 'अबकी बार मोदी सरकार' का दिया था स्लोगन
पीयूष पांडे ने विज्ञापनों में हिंदी भाषा को मुख्य जगह दी. साथ ही रोज़मर्रा की ज़िंदगी की बातें, हल्का-फुल्का मज़ाक, गर्मजोशी और इंसानी भावनाओं को शामिल किया. उनके एक पुराने साथी ने कहा था, 'उन्होंने न सिर्फ़ विज्ञापनों की भाषा बदली, बल्कि उसका पूरा ढांचा और नियम ही बदल दिए.;
भारतीय विज्ञापन की दुनिया को नई पहचान देने वाले महान और रचनात्मक सोच रखने वाले पीयूष पांडे का गुरुवार को 70 साल की उम्र में निधन हो गया. उनके परिवार में उनकी पत्नी-बच्चे, उनके साथ काम करने वाले सहकर्मी शामिल हैं, जो उनके लिए दूसरा परिवार जैसे थे और सबसे बड़ी बात, उनका काम ही उनका असली परिवार है, जो भारतीय विज्ञापनों की आत्मा और दिल को दर्शाता है. पीयूष पांडे वो शख्स थे, जिन्होंने भारतीय विज्ञापनों को एक खास अंदाज़ और आवाज़ दिया. उन्होंने ओगिल्वी इंडिया नाम की कंपनी को 40 साल से ज्यादा समय दिया. यह कंपनी उनके नाम और उनकी सोच के साथ इतनी गहराई से जुड़ी हुई है कि इसे अलग नहीं किया जा सकता.
सबसे पहले वे क्रिकेट खिलाड़ी बने, फिर चाय बेचने का काम किया, और थोड़े समय के लिए निर्माण स्थल पर मज़दूरी भी की. इसके बाद साल 1982 में, सिर्फ 27 साल की उम्र में, वे ओगिल्वी कंपनी में शामिल हो गए. उस समय विज्ञापनों की दुनिया में ज्यादातर अंग्रेजी का बोलबाला था, लेकिन पांडे ने इसमें हिंदी और आम भारतीय बोलचाल की भाषा को जगह दी. उन्होंने कई मशहूर ब्रांडों के लिए यादगार विज्ञापन बनाए। जैसे- एशियन पेंट्स का नारा- 'हर खुशी में रंग लाए', कैडबरी का विज्ञापन- 'कुछ खास है', फेविकोल और हच जैसे ब्रांडों के विज्ञापन. ये विज्ञापन सिर्फ़ उत्पाद नहीं बेचते थे, बल्कि लोगों के दिल में घर कर गए. इन्हें देखकर लोग मुस्कुराते थे, इमोशनल होते थे और इन्हें सालों तक याद रखते थे. ये विज्ञापन अब भारतीय संस्कृति का हिस्सा बन चुके हैं.
विज्ञापनों की बदली भाषा
पीयूष पांडे ने विज्ञापनों में हिंदी भाषा को मुख्य जगह दी. साथ ही रोज़मर्रा की ज़िंदगी की बातें, हल्का-फुल्का मज़ाक, गर्मजोशी और इंसानी भावनाओं को शामिल किया. उनके एक पुराने साथी ने कहा था, 'उन्होंने न सिर्फ़ विज्ञापनों की भाषा बदली, बल्कि उसका पूरा ढांचा और नियम ही बदल दिए. वे हमेशा नई जनरेशन के विज्ञापन बनाने वालों को सलाह देते थे कि तकनीक या नए ट्रेंड के पीछे भागने से पहले अपनी मौलिक सोच को महत्व दो. उन्होंने एक बार कहा था, 'कहीं न कहीं आपको लोगों के दिल को छूना ही पड़ेगा.' उनका मानना था कि अच्छा विज्ञापन देखकर दर्शक यह नहीं कहता कि 'यह कैसे बनाया गया?', बल्कि कहता है, 'मुझे यह बहुत पसंद आया!'
राजनीति से लेकर ग्लोबल सम्मान तक
भारत में विज्ञापन जगत के साथ-साथ बढ़ते रहे पीयूष पांडे ने एक बहुत मशहूर राजनीतिक नारा भी गढ़ने में मदद की- अब की बार, मोदी सरकार.' लेकिन उनकी सबसे बड़ी विरासत यह है कि उन्होंने नई जनरेशन के कहानीकारों को सिखाया कि स्थानीय भाषा, भावनाएं और सच्चाई में ही असली ताकत है. वे कहते थे, 'सबसे अच्छे विचार सड़क पर, ज़िंदगी में घूमते हुए, लोगों की बातें सुनकर आते हैं.' उनके नेतृत्व में ओगिल्वी इंडिया दुनिया की सबसे ज्यादा अवार्ड जीतने वाली कंपनियों में से एक बन गई. यह कंपनी नई जनरेशन के क्रिएटिव लोगों के लिए इंस्पिरेशन का सोर्स बनी. साल 2018 में पीयूष पांडे और उनके भाई, मशहूर फिल्मकार प्रसून पांडे, को कान्स लायंस फेस्टिवल में लायन ऑफ़ सेंट मार्क अवार्ड मिला. ये दोनों पहले एशियाई थे, जिन्हें यह सम्मान मिला. यह पुरस्कार उन्हें जीवन भर के योगदान के लिए दिया गया, जिसमें उन्होंने भारतीय कहानी कहने की कला को दुनिया के सामने ऊंचा उठाया.
आखिरी सफर
साल 2023 में उन्होंने ओगिल्वी इंडिया के मुख्य पद से इस्तीफा दे दिया और सलाहकार की भूमिका निभाने लगे. यह उनके करियर का एक शांतिपूर्ण अंत था. यह पूरा सफर हिंदी की मज़बूत आवाज़ में लिखा गया था और उनकी हल्की सी मुस्कान और व्यंग्य भरी हंसी से सजा हुआ था. पीयूष पांडे चले गए, लेकिन उनके बनाए विज्ञापन, उनकी सिखाई हुई बातें और उनकी सोच भारतीय विज्ञापन की दुनिया में हमेशा ज़िंदा रहेगी.