EXPLAINER NEPAL CRISIS: भारत के दुश्मन 'अमेरिका-चीन' के बीच फंसे 'नेपाल' को अपनों द्वारा ही ‘आग’ में झोंकने की 100 वजहें!

नेपाल में बढ़ते भ्रष्टाचार और जनविरोधी राजनीति के खिलाफ युवाओं का गुस्सा फूट पड़ा है. अमेरिका और चीन से आर्थिक मदद पाने की लालच में नेताओं ने भारत से दूरी बनाई, जिससे देश अस्थिर हो गया. प्रदर्शन हिंसक रूप ले चुका है, जिसमें पूर्व प्रधानमंत्रियों पर हमले और आगजनी जैसी घटनाएं हुईं. युवा वर्ग लोकतंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार से तंग आकर सड़कों पर उतरा है. यह सिर्फ भावनात्मक नहीं, बल्कि राजनीतिक असमानता और सामाजिक संघर्ष का नतीजा है.;

By :  संजीव चौहान
Updated On : 10 Sept 2025 7:07 PM IST

कालांतर में कभी भारत को अपना ‘बड़ा-भाई’ कहने वाला नेपाल अमेरिका-चीन जैसे भारत के दुश्मनों के बीच जा फंसते ही बर्बादी-तबाही के रास्तों पर चलने लगा था. नेपाल को लग रहा था कि भारत से जितना और जो कुछ उसे मिलने की उम्मीद थी नेपाल भारत का छोटा भाई बनकर उससे (भारत) वसूल-ऐंठ चुका है. लिहाजा जैसे ही ऐसे नेपाल के सामने चीन और अमेरिका ने ‘लालच के टुकड़े’ फेंके. वैसे ही नेपाल तुरंत भारत के इन दोनों दुश्मन देशों (अमेरिका-चीन) के बीच जाकर झूलने लगा.

भारत से दूर होकर और अमेरिका-चीन के पांवों में ‘चरणम् शरणम् गच्छामि’ यानी इन दोनों मक्कार देशों की ‘चरण-वंदना’ करके नेपाल को क्या हासिल हुआ है? बीते दो तीन दिन से दुनिया खुली आंखों से खुद देख रही है. अपनी ही नाराज नेपाली-युवा पीढ़ी के नौजवानों के हाथों खूबसूरत देश को धू-धू कर आग, गोलीबारी और पथराव के हवाले कर दिए जाने के बाद. गोलीबारी-आगजनी की रूह कंपाती घटना में 22 से ज्यादा लोगों के अकाल मौत मार डाले जाने की खबरें आ रही हैं.

देश छोड़कर भागे प्रधानमंत्री केपी शर्मा कोली

मौजूदा प्रधानमंत्री केपी शर्मा कोली (Nepal Prime Minister KP Sharma oli) के बारे में कहा जा रहा है कि वे अपनी और परिवार की जान बचाने के लिए, पद से इस्तीफा देकर सिर पर पांव रखकर रातों-रात अपने ही देश से 'उठाईगिरों' की तरह भाग चुके हैं. देश के गृहमंत्री रमेश लेखक (Nepal Home Minister Ramesh Lekhak) देश के बौखलाए युवाओं के हाथों अपनी जान गंवाने से बचने के लिए पद से इस्तीफा दिए बैठे हैं. नेपाल के वित्त मंत्री बिष्णु प्रसाद (Nepal Finance Minister Bishnu Prasad) जोकि देश के उप-प्रधानमंत्री भी थे, वह मुंह छिपाने के लिए सिर पर हेलमेट लगाकर भाग रहे थे. उन्हें नाराज भीड़ ने पहचान लिया और देश की राजधानी काठमांडू की सड़कों पर उन्हें लाठी-डंडों, लात-घूंसों से उनकी जबरदस्त धुनाई की. तब तक जब तक की भीड़ को यह नहीं लगने लगा कि अब वे मर ही जाएंगे.

पूर्व प्रधानमंत्री की पत्‍नी को भीड़ ने जिंदा जलाया

सोचिए कालांतर में 'राजशाही' के जमाने में जो नेपाल खुद को दुनिया का इकलौता हिंदू-राष्ट्र, हिंदू-राष्ट्र कहते नहीं थकता था. आज देखिए ऐसे नेपाल से राजशाही जाने और देश में लोकतंत्र के आने के बाद बेलगाम होकर आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे नेताओं ने देश को कहां ला पटका है. नतीजा जमाने के सामने है कि आज देश में सिर से ऊपर तक फैल चुके भ्रष्टाचार की जड़ में मौजूद नेताओं से बौखलाई युवा पीढ़ी ही नेपाल के नेताओं की जान के पीछे हाथ धोकर पड़ी है. उस हद तक कि गले से ऊपर तक खाने-कमाने के चक्कर में भ्रष्टाचार में डूबे पड़े नेताओं को सबक सिखाने के लिए दो दिन की हिंसा-आगजनी-फसाद गोलीबारी में अगर 22 लोगों की मौत हुई, तो वहीं दूसरी ओर नेपाल के बौखलाए युवाओं की भीड़ ने न केवल नेपाल की संसद को आग के हवाले किया. अपितु अपने देश के पूर्व प्रधानमंत्री झालानाथ खनल (Ex Nepal PM Jhalanath Khanal) की पत्नी राज्यलक्ष्मी चित्रकार (Rajyalaxhmi Chitrakar) को राजधानी काठमांडू (Kathmandu) में दल्लू स्थित उनके घर के भीतर घेरकर पहले तो बुरी तरह से पीट-पीट कर अधमरा किया उसके बाद उन्हें आग में झोंककर मार ही डाला.

धुंआ वहीं उठता है जहां कभी आग लगी हो

नेपाल (Nepal Protests) के भ्रष्ट नेताओं के प्रति नेपाली युवा किस कदर गुस्से से बौखलाए हुए हैं इसका अंदाजा इससे भी लगाना आसान है कि, कोटेश्वर इलाके में पुलिसकर्मियों ने भीड़ के सामने पूरी तरह से समर्पण कर दिया था. इसके बाद भी बौखलाए प्रदर्शनकारियों की भीड़ ने तीन नेपाली पुलिसकर्मियों को घेरकर कत्ल कर डाला. मतलब, साफ है कि नेपाल में बीते रविवार से शुरू हुआ खूनी आंदोलन अचानक ही नहीं भड़का होगा. जिस तरह से बीते दो-तीन दिन से नेपाल विरोध प्रदर्शनों की आग में धू-धू कर जल फुंक रहा है, यह गुस्सा नेपाली युवाओं में देश से राजशाही जाने के बाद आई ‘लोकतांत्रिक-व्यवस्था’ के कुछ वक्त बाद ही तब से उबलना शुरू हो चुका था, जब लोकतंत्र के नाम पर देश के नेताओं ने अपने और अपनी औलादों के लिए सरकारी खजाने का धन अपने घरों में लूटकर भरना शुरू कर दिया होगा. क्योंकि अगर लोकतांत्रिक व्यवस्था में नेपाल के नेता बेईमान-भ्रष्ट न हुए होते तो शायद आज का युवा नेपाली पीढ़ी अपने ही हाथों अपने देश और नेताओं को “आग” में झोंककर तबाह कर डालने पर न उतरी होती. क्योंकि धुंआ वहीं उठता है जहां कभी आग लगी हो.

 

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राजशाही के अंत के बाद से ही नेपाल में हो गए थे दो धड़े

नई दिल्ली में मौजूद 'स्टेट मिरर हिंदी' के एडिटर इनवेस्टीगेशन से आज अपनों के ही द्वारा जलाए-फूंके जा रहे नेपाल के मुद्दे पर, भारतीय थलसेना के रिटायर्ड लेफ्टिनेंट कर्नल जे एस सोढ़ी ने भी लंबी विशेष बात की. जे एस सोढ़ी के मुताबिक, “दरअसल जबसे नेपाल में खून-खराबे के बाद राजशाही का अंत और नेपाल में लोकतांत्रिक व्यवस्था का पदार्पण हुआ, तभी से नेपाल के लोग दो धड़ों में बंट गए. एक वह धड़ा जो देश में राजशाही का कट्टर समर्थक था. दूसरा वह धड़ा जो नेपाल में लोकतांत्रिक व्यवस्था बनने के पक्ष में था. यह अलग बात है कि देश से राजशाही खूनी-हालातों में जाने के बाद उसे चाहने वाले, लोकतांत्रिक व्यवस्था के आगमन का विरोध करने की स्थिति में नहीं थे, तो उन्होंने तब से अब तक खामोश रहने में ही अपनी भलाई समझी. अब चूंकि देश के नेता ही जब भ्रष्टाचार में आकंठ डूबकर, अपने-अपने घर सरकारी खजाने से भरने लगे, तब ऐसे में आज नहीं तो कल युवा पीढ़ी का यह गुस्सा तो बाहर आना ही था. जो दो दिन से नेपाल को अपनों के ही हाथों आग में धू-धू कर जलवा रहा है.”

“दरबार नरसंहार” का जिक्र भी है जरूरी

“Nepal Crisis Protest” को लेकर इस “Explainer” को लिखने के दौरान “स्टेट मिरर हिंदी” ने जब आज अपनों के ही द्वारा आग में झोंक डाले गए नेपाल के अतीत पर नजर डाली तो, 1 जून 2001 यानी अब से 24 साल पहले नेपाल के राजघराने में घटित ‘खूनी-रात’ का ख्याल आना लाजिमी था. नेपाल और नेपाली-जनता के लिए यह वही मनहूस खौफनाक काली रात थी, जब राजा बीरेंद्र उनके शाही परिवार-खानदान को ‘दरबार-सामूहिक हत्याकांड’ में खतम कर डाला गया था. दुनिया ने उस रात नेपाल के राजमहल में हुई उस लोमहर्षक घटना को “दरबार नरसंहार” (Darbar Massacre Nepal) का नाम दिया था. कहा तो यह गया था कि वह नरसंहार राजशाही परिवार के ही बिगड़ैल शराबी-कबाबी युवराज दीपेंद्र ने अंजाम दिया था. जिसने शराब के नशे में उस रात अंधाधुंध गोलियां बरसाकर नेपाल में राज-परिवार को पूरी तरह से नेस्तानाबूद या कहिए मिटा दिया था.

एक हत्याकांड ने छीन लिया हिंदू राष्‍ट्र का ओहदा

नेपाल के नारायणहिती पैलेस (तब नेपाल के राजा का शाही निवास) में घटी अंधाधुंध गोलीबारी की उस घटना में राजा बीरेंद्र, रानी ऐश्वर्या सहित परिवार के 9 लोगों को कत्ल करके, हमलावर और शाही परिवार के युवराज दीपेंद्र ने खुद को भी गोली मारकर खतम कर लिया था. समझिए कि वह रूह कंपाती सामूहिक नरसंहार की घटना नेपाल को, दुनिया का इकलौता “हिंदू राष्ट्र” बनाए रखने की कोशिशों के ताबूत में पहली और अंतिम कील साबित हुई थी. उस घटना ने न केवल नेपाल की दशा और दिशा बदल दी थी. अपितु उस नरसंहार ने नेपाल से हिंदू राष्ट्र का ओहदा भी छीन लिया. उस घटना ने नेपाल से राजशाही को ज़मींदोज कर डाला. उस घटना ने नेपाल को राजशाही से मुक्ति दिलाकर, देश को लोकतांत्रिक व्यवस्था की ओर आंख मूंदकर दौड़ पड़ने के लिए भी 'उकसाने' का काम किया. बिना यह सोच-विचार करने का मौका दिए हुए कि, जिन इमारतों की नींव में 'खून' बिछा हो वे इमारतें कभी भी इंसानों चैन से अपनी हद में नहीं सोने देती हैं.

2008 में खत्‍म हुई राजशाही

ऐसी खून सनी बुनियादों के ऊपर खड़ी इमारतों में हमेशा नकारात्मक शक्तियों का ही वास-निवास होता है. हालांकि 1 जून 2001 को नेपाल के शाही महल में घटी उस सामूहिक नरसंहार की घटना के बाद बिगड़े माहौल में, क्योंकि एकदम राजशाही को देश से हटाकर लोकतांत्रिक व्यवस्था को लाने की सोचना भी 'गुनाह' था. नेपाल में राजशाही का मुरीद जनमानस वाला धड़ा भड़क उठता. इसलिए कुछ वक्त के लिए एक सोची-समझी रणनीति के तहत दीपेंद्र के चाचा ज्ञानेंद्र शाह नेपाल के राजा बना दिए गए. उन्होंने भी मगर देश के विपरीत हालातों में साल 2008 में राजशाही-व्यवस्था को नेपाल से खतम करने में ही खुद की भलाई समझी.

 

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इसी साल अप्रैल में उठ चुकी है राजशाही को वापस लाने की मांग

बेशक विपरीत हालातों या कठिन परिस्थितियों के चलते नेपाल से 'राजशाही' चली गई थी. इसके बाद भी मगर देश में राजशाही समर्थकों को अपनी ताकत को कम कर डाले जाने का मलाल हमेशा रहा. पहले साल 2006 में और उसके बाद इसी साल अप्रैल (साल 2025 में) महीने के अंत में राजधानी काठमांडू की सड़कों पर एक बार नेपाल के पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र शाह का नाम गूंजा. साल 2006 और साल 2025 में नेपाल की सड़कों पर उतरे जन-सैलाब की सोच में फर्क बस यह था कि अप्रैल 2006 में जो जनमानस ज्ञानेंद्र शाह और उनकी राजशाही को नेपाल में पूरी तरह से समाप्त करने की मांग कर रहा था. साल 2025 के अप्रैल महीने में वही जन-सैलाब सड़कों पर उतरकर नेपाल देश से 'लोकतांत्रिक व्यवस्था' को समाप्त करके फिर से देश में 'राजशाही' को वापस लाने की मांग कर रहा था. यह जनसैलाब न सिर्फ देश में “राजशाही” वापिस लाने की मांग भर कर रहा था, अपितु जनमानस के बीच से देश को दुबारा से 'हिंदू राष्ट्र' घोषित करने की भी तेज आवाजें आतीं हुई सबने सुनीं.

अमेरिका-चीन बचा लें अपने चहेते प्रधानमंत्री ओली को

सोचिए इस कदर का खुद में “अस्थाई” देश नेपाल जो अपनी ही जड़ें मजबूत नहीं कर पा रहा है. जिस लोकतांत्रिक नेपाली सरकार को भारत की तुलना में “चीन-अमेरिका’ के बीच, सच्चा और मतलबपरस्त साथी या दोस्त के बीच ही अंतर तक कर पाने की कुव्वत बाकी न बची हो, तो फिर उस नेपाल को अगर आज अपनों से बौखलाए अपने ही नेपाली युवा नेपाल को आग में झोंकने पर आमादा हैं. तब फिर ऐसे में भला सोचिए भारत क्या करेगा? अब जलते हुए नेपाल को बचाने के लिए तो उस चीन और अमेरिका को सामने आना चाहिए उतरकर मैदान में, जिन मतलबपरस्त देशों के ऊपर नेपाल के नेता अपना-अपना खजाना भरने के लिए आंख-मूंदकर विश्वास करके, भारत को भूलकर, अमेरिका और चीन को ही अपना ‘माई-बाप’ बनाए बैठे हैं. अब अगर भारत से अंदर ही अंदर खार खाए बैठे नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को सिर पर पांव रखकर अपनों से ही जान बचाने के लिए देश छोड़कर भागना पड़ा है, तो इसमें भी भारत क्या करेगा? अमेरिका और चीन ही उतरें मैदान में अपने चहेते नेपाली प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को बचाने के लिए.

युवाओं के भड़कने की सबसे बड़ी वजह नेताओं का लालच तो नहीं?

ऐसा नहीं है कि भारत से मुंह मोड़कर चीन और नेपाल की गोद में बीते कई साल से झूल रहे नेपाल के नेता, अमेरिका चीन और भारत के बीच फर्क करना नहीं जानते हैं. हाल-फिलहाल अपने ही नाराज युवाओं के हाथों अकाल मौत मार डाले जाने के भय से रातों रात देश छोड़कर भागने को मजबूर होने वाले नेपाल के मौजूदा प्रधानमंत्री (अब पूर्व क्योंकि भागने से पहले वे पद से इस्तीफा दे चुके हैं) के पी शर्मा ओली बहुत भोले हैं. जैसे कि मानों वे दीन-दुनिया कुछ जानते-समझते ही न हों. ऐसा भी नहीं है कि नेपाल की मौजूदा हुकूमत चीन और अमेरिका ने धोखे से अपने जाल में फंसा ली हो. नहीं ऐसा कुछ नहीं है. अंदर की सच्चाई यह है और जिस वजह से आज नेपाल का युवा सड़कों पर उतर कर अपनी ही हुकूमत और हुक्मरानों के खून का प्यासा बन बैठा है, वे सब केपी शर्मा ओली जैसे नेपाली नेता दरअसल बहुत चतुर-बुद्धि हैं. केपी शर्मा ओली जैसे पहले पायदान के “महाघाघ मास्टरमाइंड” नेपाली नेता दरअसल, चीन और अमेरिका से कम समय में ज्यादा से ज्यादा “आर्थिक-मदद” लूट-खसोट कर अपने खजाने भर लेने के मोह में मदांध हुए पड़े थे. यह बात देश में मंगहाई, भुखमरी बेरोजगारी से जूझ रही युवा पीढ़ी को जैसे ही पता चली, तब वह सड़कों पर उतर आई. और नतीजा यह रहा है कि आज नेपाल के प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली को रातों रात सिर पर पांव रखकर अपनी और परिवार की जान बचाकर देश छोड़कर भागने को मजबूर होना पड़ा. जबकि उसके गृहमंत्री रमेश लेखक को पद से हटना पड़ा. नेपाली विदेश मंत्री आरजू देउबा को जबसे युवा नेपालियों की भीड़ में जमीन पर डालकर पीटा तब से उनका भी कहीं कोई अता-पता नहीं है. वित्त मंत्री बिष्णु प्रसाद को नाराज भीड़ ने सड़कों पर और गलियों में दौड़ा-दौड़ा कर लात घूंसों से जबरदस्त तरीके से पीटा.

इन तमाम बवाल के बीच नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री जोकि शौकिया नेपाली-लेखकों में भी शुमार रहे हैं, बी पी कोइराला द्वारा अपनी किताब ‘नरेंद्र दाई’ (Nepal Former PM BP Koirala book Narendra Dai) में मौजूद कुछ पंक्तियां आज इस एक्सप्लेनर को लिखने के वक्त याद आ रही हैं. जिनका यहां जिक्र करना करना जलते हुए नेपाल के मौजूदा बदतर हुए हालातों में करना बेहद जरूरी है.

 

नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बी पी कोइराला अपनी किताब ‘नरेंद्र दाई’ में लिखते हैं... “हमने सालों तक सहा, चुपचाप बैठे रहे, लेकिन अब गुस्से की ज्वाला बाहर आनी चाहिए. इस समाज की जड़ता ने हमें दबाया, अब विद्रोह का समय है.”

बी पी कोइराला ने पहले ही कर दी थी 'भविष्‍यवाणी'

दरअसल इन पंक्तियों का पूर्व नेपाली प्रधानमंत्री ने नेपाल में कभी “राणा शासन” के दमन के विरोध में अपनी किताब उल्लेख किया था. आज मगर दो दिन से जिस तरह से अपनी ही भ्रष्ट और मक्कार मौजूदा सरकार व हुक्मरानों से बिफरे पड़े नेपाली युवा सड़कों पर उतर कर, अपने ही देश को आग के हवाले करने पर उतारू हैं, उसे तो देखकर पूर्व नेपाली प्रधानमंत्री बी पी कोइराला की किताब में उनके द्वारा उल्लिखित यह पंक्तियां आज के नेपाल के बुरे दौर के लिए काफी साल पहले कर दी गई किसी सटीक भविष्यवाणी सी ही जान पड़ती हैं. जो कुछ नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री ने अपनी किताब में कई साल पहले दर्ज किया था, वही सब तो आज बीते दो तीन दिनों से नेपाल में सामने होता हुआ आंखों से देख रही है दुनिया. जो कुछ नेपाल में हो रहा है इसे ही तो कहते हैं बगावत में उठी “विद्रोह की चिंगारी”. वह चिंगारी जिससे लगी आग ने आज न नेपाली फौज, न नेपाली पुलिस, न ही नेपाल के हुक्मरानों और न ही आलीशान नेपाली संसद को फूंकने में कोई लिहाज बाकी छोड़ा है. सरकारी तंत्र और उससे जुड़ा जो कुछ भी आज नाराज नेपाली युवाओं के सामने आ रहा है, वह सब आग में फूंक कर स्वाहा कर डाला जा रहा है. ऐसा नहीं है कि हिंसा का समर्थन करना चाहिए. लेकिन इस सवाल का जवाब भी तो खोजना जरूरी है कि आखिर नेपाल की सी हिंसा की मूल वजह क्या है? मूल वजह ही अगर न सुलगती तो फिर आग के शोले आज नेपाल में क्यों “लोकतंत्र” और “दुनिया” को डरा रहे होते.

हिंसा सिर्फ भावनात्मक या व्यक्तिगत नहीं होती

आज जिस तरह से अपने ही महाभ्रष्ट हुक्मरानों और हुकूमत से आजिज नेपाली युवा सड़कों पर अपनी जान देने और दूसरों की जान लेने पर उतारू हैं, उसका कतई समर्थन नहीं किया जाना चाहिए. लेकिन आखिर यह नौबत आई किस वजह से है? इस सवाल का जवाब भी तो तलाशा जाना जरूरी है. ऐसे में चार्ल्स टिली की किताब “The Politics of Collective Violence” की कुछ पंक्तियां याद आती हैं. जिनमें चार्ल्स टिली लिखते हैं कि, “भीड़ की हिंसा को अक्सर तर्क या समझदारी से परे समझा जाता है लेकिन असल में यह पॉलिटिकल परफॉरमेंस है. हिंसा सिर्फ भावनात्मक या व्यक्तिगत नहीं होती. यह राजनीतिक और सामाजिक शक्ति के संघर्ष से जुड़ी हुई होती है. यह एक तरह से कलेक्टिव एक्शन होता है. जो समाज में बदलाव, सत्ता की मांग या फिर संसाधनों के लिए की जाने वाली प्रतियोगिता से पैदा होता है. जब जब सामाजिक आंदोलन कुचले या दबाए जाते हैं तब तब हिंसा की संभावना प्रबल होती जाती है. असल में देखा जाए तो आर्थिक और सामाजिक असमानता हिंसा को भड़काती है.”

भ्रष्टाचार और भ्रष्ट नेताओं में भला पुराने नए का फर्क क्यों किया जाए?

तो क्या आज एक लंबे अरसे बात नेपाल में सब कुछ हू-ब-हू वही नहीं हो रहा है जिसका जिक्र तो चार्ल्स टिली अपनी किताब में बहुत पहले ही लिखकर कर चुके थे. आज नेपाल में अगर मौजूदा हुकूमत के खिलाफ गुस्सा और खूनी आंदोलन भड़का है यह तो आसानी से समझ में आता है कि, युवा और देश की जनता मौजूदा हुकूमत की जन-विरोधी नीतियों से ऊब कर ही सड़कों पर उतरा है. सवाल यह है आखिर फिर आज गुस्से से बिफरी नेपाली जनता नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्रियों को क्यों जिंदा ही आग में झोंककर मार डालने पर आमादा है? इस सवाल के जवाब में तो यही कहा जा सकता है कि, सड़कों पर उतरा नाराज नेपाली युवा सिर्फ मौजूदा भ्रष्ट हुकूमत से ही खफा नहीं है. सड़कों पर जान लेने और जान देने पर उतारू युवा नेपाली वर्ग, देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू होने के बाद से ही शुरू हो चुके भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे पड़े पूर्व नौकरशाहों और नेताओं से काफी पहले से खार खाए बैठा था. और अब जब खून खौला और नेपाल का नाराज युवा सड़क पर मरने मारने की जिद ठानकर सड़कों पर उतर ही आया है, तब फिर ऐसे में भला क्या पूर्व और क्या मौजूदा? भ्रष्टाचार और भ्रष्ट नेताओं में भला पुराने नए का फर्क क्यों किया जाए? भ्रष्ट और भ्रष्टाचार कभी नए – पुराने नहीं होते हैं. वे सिर्फ और सिर्फ हमेशा ही जनविरोधी और स्वार्थी होते हैं.

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