...तो नेपाल में भी होगी बांग्लादेश जैसी सरकार, आंदोलनकारियों को किसी राजनीतिक पार्टी पर नहीं भरोसा; सेना भी है तैयार
नेपाल में काठमांडू की सड़कों पर भड़की हिंसा ने देश की पूरी राजनीतिक व्यवस्था को चुनौती दी है. प्रदर्शनकारी अब नागरिक नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार की मांग कर रहे हैं, जिसे पूर्व मुख्य न्यायाधीश या सेना प्रमुख संभालें और छह महीने में चुनाव कराए. यह आंदोलन बांग्लादेश स्टाइल बदलाव की तरह दिख रहा है. जबकि सरकार संवाद की बात कर रही है, प्रदर्शनकारी कठोर हैं. क्षेत्रीय अस्थिरता को लेकर भारत समेत पड़ोसी देशों की चिंता बढ़ गई है.

नेपाल की राजधानी काठमांडू में उत्पात मच चुका है. संसद भवन जल चुका है, सुप्रीम कोर्ट पर भी हमला कर उसे आग के हवाले कर दिया गया है. राष्ट्रपति भवन और पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली का घर भी हिंसा का शिकार बने हैं. शहर की सड़कों पर गुस्साई भीड़ ने व्यवस्था के खिलाफ बगावत कर दी है. अब ये विरोध केवल कुछ सुधारों की मांग नहीं रहा, बल्कि जन विरोधियों की पूरी राजनीति व्यवस्था को ध्वस्त कर नई शुरुआत करने की मांग तेज हो गई है.
न्यूज़ 18 की रिपोर्ट के अनुसार काठमांडू में एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने बताया कि प्रदर्शनकारियों का एक बड़ा वर्ग अब नागरिक नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार की मांग कर रहा है. इनमें जनरेशन Z के युवा शामिल हैं जो मानते हैं कि ओली सरकार ने जनता का भरोसा खो दिया है. उनके अनुसार, देश में अब कोई राजनीतिक दल विश्वसनीय नहीं बचा है. इसलिए वे ऐसे अंतरिम शासन की मांग कर रहे हैं, जिसे पूर्व मुख्य न्यायाधीश या पूर्व सेना प्रमुख जैसे निष्पक्ष नेतृत्व संभाले और छह महीने के भीतर चुनाव कराए.
अधिकारियों का मानना है कि यह स्थिति बांग्लादेश में हाल में हुए राजनीतिक परिवर्तन से मेल खाती है. वहां भी सड़कों पर उभरी जनता की नाराज़गी ने सत्ता को गिरा दिया था और सेना-न्यायपालिका आधारित अंतरिम व्यवस्था लागू हुई थी. नेपाल में भी इसी तरह का दबाव बढ़ता जा रहा है.
जितने लोग उतनी बातें
हालांकि, नेपाल की सत्ता संरचना इस मुद्दे पर बंटी हुई है. सरकार का एक वर्ग इस अंतरिम व्यवस्था को 'अपरिहार्य' मान रहा है, जबकि सत्ताधारी दल इसे 'भीड़ की राजनीति' कहकर अस्वीकार कर रहा है. उनका कहना है कि संवाद के रास्ते से समाधान निकालना ही उचित होगा. लेकिन प्रदर्शनकारी सड़क पर डटे हुए हैं और उन्हें किसी औपचारिक बातचीत में दिलचस्पी नहीं दिख रही.
Gen Z की 6 महीने में चुनाव कराने की मांग
एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “अब विरोध प्रदर्शन कई विचारों में बंट चुके हैं. एक धड़ा चाहता है कि सभी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि, जनरेशन Z के सदस्य, नागरिक समाज और सेना का नेतृत्व एक साथ मिलकर अंतरिम सरकार बनाएं. इस सरकार का नेतृत्व पूर्व मुख्य न्यायाधीश या सेना प्रमुख करे और छह महीने में चुनाव कराए. यह स्थिति हमें बांग्लादेश मॉडल की याद दिला रही है.”
वहीं, अधिकारी ने यह भी कहा कि “हिंसा बढ़ने के साथ आंदोलन बिना नेतृत्व के हो गया. अब सेना, सरकार, नागरिक समाज और कुछ राजनीतिक दलों के वरिष्ठ प्रतिनिधि प्रदर्शनकारियों से संवाद शुरू करने की कोशिश कर रहे हैं.”
जरूरत पड़ी तो सेना संभालेगी बागडोर
नेपाल सेना को भी परामर्श में शामिल किया गया है, लेकिन वह फिलहाल सतर्क है. सेना ने स्पष्ट किया है कि आवश्यकता पड़ने पर वह नियंत्रण संभाल सकती है. पूर्व मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व वाली अंतरिम व्यवस्था की मांग को इसलिए भी समर्थन मिल रहा है क्योंकि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में निष्पक्ष नेतृत्व की बहुत कमी है.
प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार गोपाल खनाल ने कहा, “सरकार, सेना, नागरिक समाज और प्रदर्शनकारियों के प्रतिनिधियों के बीच संवाद शुरू करने का रास्ता खुला रहना चाहिए. जो भी अंतरिम व्यवस्था को संभालेगा, वही नेपाल के भविष्य की दिशा तय करेगा.”
प्रदर्शनकारियों को व्यवस्था में बदलाव का यकीन
प्रदर्शनकारी इस अंतरिम सरकार को महज अस्थायी समाधान नहीं मानते. उनके लिए यह नई राजनीतिक संधि की शुरुआत है. उनका विश्वास है कि यही पहला कदम है जिससे व्यवस्था में बदलाव लाया जा सकता है.
भारत पर हो सकता है सबसे ज्यादा असर
विशेषज्ञों का कहना है कि यह संकट केवल नेपाल तक सीमित नहीं है. इसका प्रभाव पूरे दक्षिण एशिया में महसूस होगा. भारत, जो पहले ही बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन के बाद नई अस्थिरता से चिंतित है, नेपाल की इस स्थिति को लेकर सतर्क है. क्षेत्रीय स्थिरता, सीमा सुरक्षा और आपसी सहयोग के लिहाज़ से यह मुद्दा बेहद संवेदनशील हो गया है.
फिलहाल यह स्पष्ट हो चुका है कि काठमांडू में उठी आग ने पुराने शासन की अंत्येष्टि कर दी है. अब जनता का स्पष्ट संदेश है - वे अस्थायी व्यवस्था नहीं, बल्कि नई दिशा चाहती है. नागरिक नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार की मांग अब नारे तक सीमित नहीं रही; यह सड़क पर खड़े लोगों का साझा एजेंडा बन चुका है.
नेपाल के लिए यह एक निर्णायक मोड़ है. आने वाले दिनों में यह देखना होगा कि संवाद के रास्ते से समाधान निकलता है या सड़क की ताकत नए राजनीतिक ढांचे को जन्म देती है. एक बात तय है - काठमांडू की सड़कों ने अपना फैसला सुनाया है. पुराने राजनीतिक तंत्र का अस्तित्व खतरे में है और बदलाव की लहर पूरे देश में फैल चुकी है.