दलाई लामा के गुरु Avalokiteshvara कौन हैं और तिब्बती बौद्ध धर्म में उनकी भूमिका क्या है? जानिए सब कुछ
तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा ने अपने 90वें जन्मदिन पर लंबी उम्र की कामना करते हुए कहा कि वे 130 वर्ष तक जीना चाहते हैं. उन्होंने स्पष्ट किया कि उनका उत्तराधिकारी गद लाम्हे फाउंडेशन के माध्यम से तय किया जाएगा, ताकि चीन का हस्तक्षेप रोका जा सके, लेकिन क्या आपको पता है कि दलाई लामा के गुरु अवलोकितेश्वर कौन हैं? अगर नहीं, तो आइए जानते हैं...

Who is Avalokiteshvara Dalai Lama: तिब्बती बौद्ध धर्म गुरु 14वें दलाई लामा तेंज़िन ग्यात्सो ने अपने 90वें जन्मदिन से ठीक पहले कई अहम बयान दिए, जिनसे तिब्बती समुदाय और विश्व राजनीति दोनों में हलचल मची है. दलाई लामा ने अपने अनुयायियों के एक विशेष प्रार्थना समारोह में कहा कि वे 130 वर्ष की आयु तक जीवित रहना चाहते हैं. उन्होंने बताया, “अब तक मैंने बुद्ध-धर्म और तिब्बतियों की सेवा अच्छी तरह से की है, और आशा करता हूं कि करुणा के आशीर्वाद से मैं 130 से अधिक वर्ष तक जीवित रहूंगा.” कुछ दिन पहले ही उन्होंने घोषणा की कि उनकी गद लाम्हे फाउंडेशन ही उनके उत्तराधिकारी की पहचान करेगी, जिससे चीन की दखलंदाजी को टाला जा सकेगा. दलाई लामा ने स्पष्ट किया कि उनका पुनर्जन्म पारंपरिक ढंग से होगा, पर निर्णय स्वतंत्र रूप से 'मुक्त विश्व' से लिया जाएगा, न कि बीजिंग के दबाव में.
2 जुलाई को जारी एक बयान में उन्होंने कहा कि पिछले चौंदह वर्षों में तिब्बत की सभी मुख्य धार्मिक परंपराओं और निर्वासित तिब्बती संसद ने आग्रह किया कि दलाई लामा की संस्था जारी रहे.इस परिप्रेक्ष्य में उन्होंने पुष्टि की कि दलाई लामा की संस्था जारी रहेगी. इन घोषणाओं से चीन की ओर बढ़े तनाव भी स्पष्ट हैं. चीन दावा करता है कि पुनर्जन्म प्रक्रिया पर उसका नियंत्रण होना चाहिए, पर दलाई लामा ने इसे ठुकराया. इसके चलते तिब्बती धार्मिक नेतृत्व और भारत–चीन संबंधों में भी कूटनीतिक दबाव बढ़ा है.
परंपरागत रहस्य और अनुष्ठानों के बीच, दलाई लामा संभवतः अपने जीवनकाल में ही उत्तराधिकारी की पहचान कर सकते हैं. विशेषज्ञों के अनुसार, यह कदम न सिर्फ आध्यात्मिक निरंतरता सुनिश्चित करेगा, बल्कि चीन की वैकल्पिक नियुक्ति को भी निरर्थक बनाएगा. इन सबके बीच यह सवाल उठता है कि आखिर दलाई लामा के गुरु अवलोकितेश्वर कौन हैं? आइए, इस बारे में विस्तार से जानते हैं...
अवलोकितेश्वर (Avalokiteśvara) कौन हैं?
अवलोकितेश्वर (Avalokiteśvara) महायान बौद्ध धर्म के प्रमुख बोधिसत्त्वों में से एक हैं, जिन्हें करुणा (दया) का प्रतीक माना जाता है. तिब्बती बौद्ध परंपरा में दलाई लामा को अवलोकितेश्वर के अवतार या प्रतिनिधित्व के रूप में देखा जाता है.
1- नाम और अर्थ
अवलोकितेश्वर का शाब्दिक अर्थ है- जो सभी के दृष्टिकोण को अवलोकन करता है (अवलोक = देखना, इश्वर = ईश्वर/स्वामी). इन्हें करुणा और पीड़ितों की सहानुभूति का सागर बताया गया है.
2- उद्भव और पुराणिक कथा
महायान ग्रंथों के अनुसार, अवलोकितेश्वर ने निर्जरा (निर्बन्ध) तोड़कर संसार की पीड़ा देखी और अपने वचन 'जब तक प्राणी पीड़ित हैं, मुझे निर्वाण नहीं' का संकल्प लिया. इन्हें ब्रह्मांड की सभी पीड़ाओं को दूर करने का प्रण लेने वाला बोधिसत्त्व माना जाता है.
3. प्रतीकवाद और रूप–रंग
अक्सर इनकी हजार भुजाएं और आंखों वाली कलाएं दर्शायी जाती हैं (हजार भुजावाल अवलोकितेश्वर, Sahasra-bhuja), जो सर्वदर्शी दया और सहायता का प्रतीक हैं. कुछ रूपों में इन्हें एक नहीं, बल्कि बगैर हाथों (अभया मुद्रा) या चार मुखों वाले (चतुर्भुज) के रूप में देखा जाता है. अवलोकितेश्वर का पांचमुखी रूप (Pancha-ksara) और अडिगरूप (Padmakara: कमल धारण) भी अत्यंत पूजनीय हैं.
4- तिब्बती बौद्ध धर्म में भूमिका
तिब्बती परंपरा में अवलोकितेश्वर को छेचुआ शाक्यमुनि के बाद सर्वाधिक पूजनीय समझा जाता है. दलाई लामा को इनकी जीवंतमूल अवतार माना जाता है, जब भी पिछले दलाई लामा का देहांत होता है, अवलोकितेश्वर अपना स्रोत प्रकाश (emanation) छोड़ते हुए नए अवतार में पुनर्जन्म लेते हैं. इस अवतारिक स्वरूप को खोजकर तिब्बती सन्यासी इसे पुष्टि करते हैं, और फिर उसे तिब्बत का दलाई लामा घोषित करते हैं.
5- साधना और जाप
अवलोकितेश्वर का जाप 'ओं मणि पद्मे हूं' (ॐ मणिपद्मे हूं) संसार में सर्वप्रिय है. यह करुणा के छह गुणों का संक्षिप्त पाठ माना जाता है. इस मंत्र का उच्चारण साधकों को दयालुता, शांति और सेवा भाव देने वाला कहा जाता है.
6- विश्व में पूजन और महत्त्व
पूरे एशिया में, विशेषकर तिब्बत, नेपाल, भूटान और पूर्वोत्तर भारत में अवलोकितेश्वर का व्यापक पूजन होता है. इनकी प्रतिमाएं अक्सर मंदिरों और स्तूपों पर हजारों छोटे-छोटे रूपों में उकेरी जाती हैं, यह दर्शाने के लिए कि करुणा सर्वव्यापी है.
अवलोकितेश्वर महायान बौद्ध धर्म में करुणा के सर्वोच्च प्रतीक हैं, और तिब्बती परंपरा उन्हें दलाई लामा का आध्यात्मिक अभिव्यक्ति मानती है. उनका जीवन-दर्शन 'सबकी पीड़ा दूर करने तक निर्वाण न लेना' मानवता के लिए करुणा एवं सेवा का सर्वोत्कृष्ट आदर्श प्रस्तुत करता है.
दलाई लामा के मुख्य गुरु (Root Gurus)
14 वें दलाई लामा तेंज़िन ग्यात्सो के जीवन में कई महान बौद्ध मास्टरों ने उन्हें बोधिचित्त, विशिष्ट योग और तिब्बती विवेकधर्म के गूढ़ सिद्धांतों की शिक्षा दी. इनमें से सबसे महत्वपूर्ण तीन गुरु रहे:
1- लिंग रिनपोचे (Ling Rinpoche)
- पूरा नाम: त्सेमोन् थोर्पल डॉन्गयेन्ग रिनपोचे (Tsering Tharpa Dorje Rinpoche)
- परंपरा: गेलुक् पंथि (Gelug)
- भूमिका: उन्होंने दलाई लामा को त्सोंगखपा के दर्शन, विशिष्ट योग (प्रमाध्यान) और मंथरा (मन्त्र अभ्यास) की गहन शिक्षाएं दीं.
- लिंग रिनपोचे को 'परम शिक्षक' (Principal Teacher) का दर्जा प्राप्त था, और वे दलाई लामा के समग्र शिक्षण‑पथ के मुख्य मार्गदर्शक थे.
2- त्रिजांग डोर्जे चंग रिनपोचे (Trijang Dorje Chang Rinpoche)
- पूरा नाम: त्रिजंग लोघद्रुब जूप (Trijang Lobzang Yeshe Tenzin Gyatso)
- परंपरा: गेलुक्
- भूमिका: त्रिजांग रिनपोचे ने त्सोंगखपा के शास्त्रों पर विशेष दृष्टि दी और तिब्बती विवेकधर्म (Lamrim) के व्यावहारिक पहलुओं पर शिक्षा दी. वे 'गुरु गुरु' यानी गुरुओं के गुरु के रूप में प्रतिष्ठित थे, क्योंकि उनके शिष्य भी अनेक थे.
3. केया-जीन लामा और अन्य उपगुरु
केयाजीन लामा (Kyabje Ling Rinpoche) और श्रमनाथ रिनपोचे (Shamar Rinpoche) जैसे मास्टरों ने भी दलाई लामा को शांतचित्त ध्यान (शमथ-विपश्यना) और तांत्रिक अभ्यास सिखाया. सडघे रिनपोचे (Sakya Trizin Rinpoche) से उन्होंने साक्य परंपरा से संबंधित कुछ शिक्षाएं ग्रहण कीं, जिससे उनकी ज्ञान-छात्रा और व्यापक हुई.
गुरु-शिष्य संबंध की परंपरा
दलाई लामा को जन्म से ही अवलोकितेश्वर (करुणा के बोधिसत्त्व) का अवतार माना जाता है, लेकिन ज्ञान‑प्राप्ति के लिए इन्हें मानव रूपी गुरु‑शिष्य परंपरा का पालन करना पड़ता है. इन गुरु‑शिष्य संबंधों ने दलाई लामा को गहन तांत्रिक संप्रदाय, शास्त्रीय विवेक और सार्वभौमिक करुणा की शिक्षा दी.
दलाई लामा तेंज़िन ग्यात्सो के मुख्य गुरु लिंग रिनपोचे और त्रिजांग रिनपोचे थे, जिनके मार्गदर्शन में उन्होंने बौद्ध दर्शन, ध्यान और तांत्रिक अभ्यास की गहराइयों को आत्मसात किया। इनके अलावा अन्य उप‑गुरुओं ने भी उनके समग्र शैक्षिक पथ को संपूर्ण बनाया।