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'कोई भी बन जाता है संत'... रामभद्राचार्य ने प्रेमानंद महाराज की बीमारी पर साधा निशाना, दी संस्कृत बोलने की चुनौती

जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने प्रेमानंद महाराज को विद्वान मानने से इनकार कर दिया है और उन्हें खुले तौर पर चुनौती दी है कि वे संस्कृत का एक अक्षर बोलकर दिखाएं या शास्त्रीय श्लोकों का अर्थ बताएं. उन्होंने कहा कि भक्ति केवल बाहरी दिखावे से नहीं होती, बल्कि गहराई और शास्त्रों की समझ से होती है.

कोई भी बन जाता है संत... रामभद्राचार्य ने प्रेमानंद महाराज की बीमारी पर साधा निशाना, दी संस्कृत बोलने की चुनौती
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हेमा पंत
Edited By: हेमा पंत

Updated on: 24 Aug 2025 10:08 AM IST

भारत में संतों और आध्यात्मिक गुरुओं की लोकप्रियता अक्सर उनके ज्ञान, भक्ति और समाज में उनके योगदान से निर्धारित होती है. लेकिन सोशल मीडिया के दौर में अब प्रसिद्धि के मानक बदलते नजर आ रहे हैं. कुछ संतों की सादगी, रहन-सहन या कथित चमत्कारों के कारण वे जनता के बीच आकर्षण का केंद्र बन जाते हैं.

ऐसे ही संतों में एक नाम प्रेमानंद महाराज का है, जो अपनी भक्ति, विनम्रता और सादगी के लिए व्यापक रूप से लोकप्रिय हैं. लेकिन हाल ही में जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने प्रेमानंद महाराज को लेकर कहा कि अगर वह संत हैं, तो एक अक्षर संस्कृत में बोलकर दिखाएं. इसके अलावा, श्लोक का हिंदी अर्थ बताएं.

'कोई भी बन जाता है संत'

जगद्गुरु रामभद्राचार्य का मुख्य तर्क यही था कि एक सच्चा संत वह होता है, जिसे शास्त्रों की गहन समझ हो. उन्होंने कहा कि पहले कथा वाचन केवल वे लोग करते थे जो वेद, पुराण और उपनिषदों में पारंगत होते थे. लेकिन आज के समय में उनके अनुसार, केवल लोकप्रियता, मंच सज्जा और सोशल मीडिया की वजह से कई लोग 'धार्मिक गुरु' के रूप में देखे जा रहे हैं, जो कि धर्म की गहराई से अनजान हैं.

बीमारी पर साधा निशाना

रामभद्राचार्य के अनुसार, असली चमत्कार वह होता है जो शास्त्रों की अच्छी समझ रखता हो, श्लोकों का मतलब आसानी से समझा सके और धर्म की सच्ची भावना जानता हो. उन्होंने कहा कि सिर्फ बीमारी में मंदिर की परिक्रमा करना या कुछ समय के लिए मशहूर होना चमत्कार नहीं है. उन्होंने प्रेमानंद महाराज की लोकप्रियता को अस्थायी बताया. उनके मुताबिक, ऐसी लोकप्रियता कोई स्थायी सम्मान या सच्ची आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं हो सकती है.

दुश्मनी नहीं, लेकिन सैद्धांतिक विरोध

रामभद्राचार्य ने साफ किया कि प्रेमानंद महाराज के लिए उनके मन में कोई व्यक्तिगत द्वेष नहीं है. वे उन्हें एक 'बालक' के समान मानते हैं. लेकिन उन्होंने यह भी जोड़ा कि धार्मिक नेतृत्व की जिम्मेदारी केवल भावनात्मक नहीं हो सकती, उसमें बौद्धिकता और आध्यात्मिक गहराई जरूरी है. बिना शास्त्रज्ञान के उनके अनुसार, कोई भी व्यक्ति धर्म के वास्तविक मार्गदर्शक की भूमिका नहीं निभा सकता है.

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