ब्राह्मण विधायकों के सहभोज से BJP का बिगड़ा 'ज़ायका', पंकज चौधरी की चेतावनी के बाद बदल सकता है 2027 का खेल?
यूपी में 2027 के विधानसभा चुनाव के लिए दो बाज़ियां चली जा चुकी हैं. जाति की बिसात पर बिछी सियासी शतरंज में BJP की कोर वोटर दोनों जातियों क्षत्रिय और ब्राह्मण ने अपनी-अपनी पहली चाल चल दी है. ठाकुरों की चाल पर राजनीतिक हलचल कम रही, लेकिन ब्राह्मणों के पहले क़दम के बाद लखनऊ से दिल्ली तक एक ख़ामोश उथल-पुथल और मंथन शुरू हो गया है. सबसे बड़ा सवाल ये उठ रहा है कि ब्राह्मण जनप्रतिनिधि यूपी में पूरा चुनावी खेल पलटने वाले हैं या किसी ‘बड़े खेल’ की तैयारी है?
क्या बीस साल बाद यूपी की चुनावी राजनीति में कोई नई सोशल इंजीनियरिंग आकार लेने वाली है? क्या 2027 के लिए 2007 जैसा कोई बड़ा सियासी समीकरण वाला खेल शुरू हो चुका है? देश के सबसे बड़े राज्य में ब्राह्मण नेता अपनी बिरादरी का बाहुबल दिखाने के लिए ख़ुद को 2027 की चुनावी कसौटी के लिए तैयार कर रहे हैं? यूपी से लेकर दिल्ली तक BJP के सामने अचानक ये सारे सवाल राजनीतिक दीवार की तरह खड़े हो हैं.
लखनऊ में ब्राह्मण विधायकों की एक बैठक ने ठीक वैसी ही हलचल मचा दी है, जैसे ठहरे हुए पानी में बड़ा सा पत्थर फेंकने पर होती है. लेकिन, सवाल ये है कि इस हलचल और सियासी उथल-पुथल से ब्राह्मण विधायकों समेत उनकी सम्पूर्ण बिरादरी के हिस्से में क्या आ सकता है और क्या क़ीमत चुकानी पड़ सकती है?
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2027 में 2007 जैसा ‘खेल’ दोहराने की रणनीति?
साल 2007 के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मणों ने ग़ज़ब चुनावी खेल खेला. BSP ने यूपी की चुनावी राजनीति में ब्राह्मण बिरादरी के साथ मिलकर बड़ा उलटफेर कर दिया. BSP ने एक नपा-तुला जोखिम उठाते हुए राजनीतिक प्रयोग के तौर पर 63 ब्राह्मण प्रत्याशियों को टिकट दिया. अपने समाज के लोगों को BSP के सिंबल पर लड़ता हुआ देखकर ब्राह्मण वोटबैंक में भारी उथल-पुथल मची. लिहाज़ा चुनावी नतीजे आए, तो यूपी ने संभवत: पहली बार ब्राह्मणों और दलितों के एकसाथ आने वाली सोशल इंजीनियरिंग की ताक़त देखी. 2007 में BSP के टिकट पर 63 ब्राह्मण उम्मीदवारों में 41 ने जीत दर्ज की. उस वक़्त मायावती चौथी बार यूपी की मुख्यमंत्री बनीं. ब्राह्मण समाज का ये जनबल देखने के बाद BSP को अपना नारा बदलना पड़ा था. “तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार” का नारा देने वाली बसपा ने 2007 में नया नारा दिया...“हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है”. उसके बाद 2022 में भी मायावती ने इसी सोशल इंजीनियरिंग को दोहराने की कोशिश की, लेकिन वो नाकाम रहीं. हालांकि, BJP के ब्राह्मण विधायकों की बड़ी बैठक से मायावती को 2027 में एक बार फिर विप्र समाज पर भरोसा जताने का अघोषित इशारा मिल गया है.
‘24’ में ठाकुरों ने दिखाए तेवर, ‘27’ में ब्राह्मण दिखाएंगे बाहुबल?
यूपी में 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान BJP जाति के जाल में बुरी तरह उलझकर हार चुकी है. 2024 के लोकसभा चुनाव में ठाकुर बिरादरी को लेकर BJP के अंदर से आवाज़ उठी, जिसके बाद समाज ने ज़ाहिर तौर पर अपनी नाराज़गी दर्ज कराई थी. क्षत्रिय समाज के कई नेताओं के बयानों के बाद से हर बार वोटिंग से पहले ठाकुर बिरादरी ने तेवर दिखाए. नतीजा ये हुआ कि 2024 के लोकसभा चुनाव में सपा ने ,सटीक सामाजिक समीकरण सेट किए और 37 सीटों पर जीत दर्ज कर ली. 2024 के लोकसभा चुनाव में सपा सूबे में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. जबकि BJP को सिर्फ़ 33 सीटें ही हासिल हो सकीं. वहीं, 2019 के लोकसभा चुनाव में BJP ने 80 लोकसभा सीटों में 62 पर जीत दर्ज करते हुए प्रचंड बहुमत हासिल किया था. लेकिन, 2024 में 3% वाली ठाकुर बिरादरी की नाराज़गी ने नतीजे पलट दिए. अब 2027 में अगर 13-14% वोटबैंक वाले ब्राह्मणों ने लीक से हटकर फ़ैसला कर लिया तो, 2027 का चुनाव BJP के लिए सबसे मुश्क़िल साबित हो सकता है.
हर आठवां विधायक ब्राह्मण, फिर भी बैकफुट पर!
यूपी की 403 सीटों वाली विधानसभा में फिलहाल 52 विधायक ब्राह्मण बिरादरी से हैं. इनमें 46 BJP के टिकट पर चुनकर आए हैं. संख्या के लिहाज़ से देखें तो यूपी में हर आठवां विधायक ब्राह्मण है. इसके बावजूद 36 साल से बिरादरी का कोई भी नेता सत्ता शीर्ष पर नहीं पहुंच सका है. यानी किसी भी ब्राह्मण नेता को 1989 के बाद से मुख्यमंत्री का ताज नसीब नहीं हुआ है. इसीलिए, सवाल उठ रहा है कि क्या BJP के ब्राह्मण जनप्रितिनिधियों ने अपने समाज को सियासी शिखर तक पहुंचाने के लिए रणनीतिक बैठक की है? कुशीनगर से BJP विधायक पीएन पाठक के लखनऊ वाले आवास पर 23 दिसंबर को ‘सहभोज’ आयोजित किया गया. इसमें पूर्वांचल और बुंदेलखंड क्षेत्र के कई ब्राह्मण विधायक शामिल हुए. सहभोज बैठक में BJP विधायक रत्नाकर मिश्रा, प्रेम नारायण पांडे, प्रकाश द्विवेदी, विनय द्विवेदी, एमएलसी साकेत मिश्रा, शलभमणि त्रिपाठी, विवेकानंद पांडे, ऋषि त्रिपाठी, रमेश मिश्रा, राकेश गोस्वामी और कैलाश नाथ शुक्ला सहित क़रीब 40 विधायक मौजूद रहे.
ख़बर है कि BJP के इन विधायकों ने सत्ता में ब्राह्मणों की उपेक्षा, अनदेखी या कमतर करके आंकने वाले नज़रिये पर मंथन किया. शासन, प्रशासन से लेकर सत्ता तक ब्राह्मण समाज के प्रति उदासीनता पर विचार किया गया. बताया जाता है कि समाज में ब्राह्मणों के प्रति BJP का ही एक ख़ास वर्ग नकारात्मक रवैया रखता है. इससे सामाजिक तौर पर ब्राह्मणों की स्थिति चिंताजनक होती जा रही है. ब्राह्मणों के मुद्दों पर बिरादरी का कोई भी नेता खुलकर अपनी बात नहीं रख पा रहा है. अगर वो ऐसा करता है, तो उसे जातिवादी कहकर नकारने की कोशिश होती है. इसके अलावा शासन-प्रशासन और सत्ता में भी ब्राह्मण नेता इतने प्रभावशाली नहीं हैं, कि वो समाज के उत्थान को लेकर कोई ठोस प्रयास कर सकें. इस बात पर भी चर्चा हुई कि समाज के कुछ वर्गों द्वारा जिस तरह से ब्राह्मण बिरादरी के लोगों का उत्पीड़न हो रहा है, उसे रोकने के लिए क्या रणनीति बनाई जानी चाहिए. कुल मिलाकर 2027 से पहले BJP के ब्राह्मण विधायकों के ‘सहभोज’ से संघ, संगठन और सरकार का हाजमा गड़बड़ा सकता है.
BJP के ब्राह्मण विधायकों की बैठक ने यूपी से दिल्ली तक एक सियासी तूफ़ान उठा दिया है. वहीं, यूपी BJP के अध्यक्ष पंकज चौधरी ने बैठक करने वाले पार्टी विधायकों को चेतावनी दी है. उन्होंने कह दिया है कि दोबारा ऐसी मीटिंग हुई, तो इसे अनुशासनहीनता माना जाएगा. हालांकि, 11 अगस्त 2025 को लखनऊ के एक पांच सितारा होटल में ठाकुर विधायकों की ‘कुटुम्ब’ बैठक हुई थी. इसमें तो BJP के अलावा सपा के बाग़ी क्षत्रिय विधायक भी शामिल हुए थे. तब भी पार्टी ने इस बैठक की रिपोर्ट दिल्ली हाईकमान को भेजी थी. लेकिन, ब्राह्मण विधायकों की बैठक ने बड़ी हलचल मचा दी है.
2007 में BSP को सत्ता दिलाई, ‘27’ में ब्राह्मण फिर बनेंगे बाज़ीगर?
यूपी की राजनीति में 1993 में बसपा से महज एक ब्राह्मण विधायक था, लेकिन चुनाव दर चुनाव यह आंकड़ा बढ़ता गया. यूपी में 2007 के विधानसभा चुनाव में सीएसडीएस की रिपोर्ट ख़ासी दिलचस्प रही. इसके मुताबिक 2007 के चुनाव में महज़ 17% ब्राह्मणों ने ही BSP को वोट दिया था. फिर भी पार्टी के 41 ब्राह्मण प्रत्याशी चुनकर विधानसभा पहुंचे थे. वहीं, 2007 के चुनाव में BJP को ब्राह्मणों ने 40% वोट दिया था. लेकिन, सरकार BSP की बनी. इसका सबसे बड़ा कारण ये रहा कि ब्राह्मण वोटर्स ने ना सिर्फ़ उन सीटों पर BSP को जिताया, जहां प्रत्याशी उनकी बिरादरी का था, बल्कि अपने असर वाली सीटों पर BJP का समीकरण भी बिगाड़ा. यानी अपने प्रभाव से एक तरफ़ BSP को जिताया और दूसरी ओर बिरादरी का बाहुबल दिखाकर BJP को हराया भी.
कांग्रेस के दौर में 23 साल ब्राह्मण CM, 1989 के बाद से हाशिये पर!
यूपी की राजनीति में आज़ादी के बाद से लेकर अब तक 23 साल ब्राह्मण ही सत्ता शीर्ष पर रहे. लेकिन, इत्तेफ़ाक ये रहा कि सारे ब्राह्मण मुख्यमंत्री कांग्रेस के राज में ही रहे. यूपी के पंडित मुख्यमंत्रियों में गोविंद वल्लभ पंत, सुचेता कृपलानी, कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा, श्रीपति मिश्रा और नारायण दत्त तिवारी रहे. 1989 तक यूपी में ब्राह्मण मुख्यमंत्रियों ने कुल मिलाकरर 23 साल तक सूबे की कमान संभाली. नारायण दत्त तिवारी तीन बार मुख्यमंत्री बने. लेकिन, 1989 के बाद से कांग्रेस कमज़ोर होती गई और ब्राह्मण वोटर्स ने BJP का दामन थाम लिया. हालांकि, BJP ने यूपी को अब तक एक भी ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं दिया. शायद अपने आंकड़ों के इतिहास पर मंथन करने के बाद ही 2007 में ब्राह्मण वोटबैंक ने प्रयोग के तौर पर ही सही लेकिन BSP का साथ देकर अपनी सामाजिक ताक़त का एहसास कराया था.
‘सहभोज’ के बाद ब्राह्मण विधायकों के ‘बड़े समागम’ की तैयारी?
अब सवाल ये है कि क्या BJP के विप्र विधायकों की ‘सहभोज’ बैठक ब्राह्मणों की बिखरी हुई ताक़त को एकजुट करने का प्रयास है? क्या पार्टी के ब्राह्मण विधायक “जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” वाले फॉर्मूले पर आगे बढ़ने की तैयारी कर रहे हैं? क्या ब्राह्मण विधायक अपने समाज की ताक़त को सत्ता की ताक़त में तब्दील कर पाएंगे? क्या BJP के ब्राह्मण विधायकों ने 2027 में नए नीति और सामाजिक समीकरण के बनने-बिगड़ने का इशारा कर दिया है? ब्राह्मण विधायकों का ये ‘सहभोज’ बड़े सियासी मक़सद तक पहुंच सकेगा या अनुशासन के नाम पर पार्टी विप्र जनप्रतिनिधियों की रणनीति को सीमित कर देगी? ब्राह्मण विधायकों ने 2027 की चुनावी पिच पर अपनी पहली चाल चल दी है. ख़बर है कि अगले दस दिनों में यूपी में ब्राह्मण विधायक कुछ बड़ा खेल कर सकते हैं. अब देखना ये होगा कि इस बड़े राजनीतिक घटनाक्रम पर BJP का अगला क़दम क्या होगा?





