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'तुम मर जाओ' गुस्से में कहे गए... वैवाहिक झगड़े को नहीं माना जाएगा सुसाइड के लिए उकसावा, इलाहाबाद हाईकोर्ट की टिप्पणी

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने औरैया जिले के एक केस की सुनवाई में अहम टिप्पणी की है. कोर्ट ने कहा कि पति-पत्नी के बीच झगड़े और आपसी मतभेद के कारण आत्महत्या को IPC 306 के तहत आत्महत्या के लिए उकसावा नहीं माना जाएगा. जस्टिस समीर जैन की बेंच ने ट्रायल कोर्ट का आदेश रद्द करते हुए स्पष्ट किया कि पारिवारिक कलह जीवन का हिस्सा है और इसे दंडात्मक अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता.

तुम मर जाओ गुस्से में कहे गए... वैवाहिक झगड़े को नहीं माना जाएगा सुसाइड के लिए उकसावा, इलाहाबाद हाईकोर्ट की टिप्पणी
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( Image Source:  ANI )
नवनीत कुमार
Edited By: नवनीत कुमार

Published on: 4 Oct 2025 8:20 AM

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि वैवाहिक जीवन में होने वाले झगड़े और आपसी मतभेद के चलते यदि पति या पत्नी आत्महत्या कर लेते हैं तो इसे ‘आत्महत्या के लिए उकसाना’ (Abetment of Suicide) नहीं माना जा सकता. कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि घरेलू जीवन में ऐसे विवाद आम हैं और केवल इन्हीं के आधार पर दंडात्मक कार्रवाई नहीं हो सकती.

यह टिप्पणी औरैया जिले के एक केस की सुनवाई के दौरान सामने आई. मामले में पति की आत्महत्या के बाद उसकी पत्नी और ससुराल वालों पर IPC की धारा 306 के तहत केस दर्ज हुआ था. ट्रायल कोर्ट ने आरोप तय करने का आदेश दिया, जिसके खिलाफ पत्नी और उसके परिजनों ने हाईकोर्ट में पुनरीक्षण याचिका दायर की थी.

'तुम मर जाओ' गुस्से में कहे गए शब्द

जस्टिस समीर जैन की एकल पीठ ने कहा कि झगड़े के दौरान ‘तुम मर जाओ’ जैसे शब्द क्षणिक आवेश में कहे जा सकते हैं. लेकिन यह साबित नहीं करता कि मृतक को आत्महत्या के लिए मजबूर किया गया. ऐसे बयान को आत्महत्या के लिए उकसाने की परिभाषा में नहीं रखा जा सकता. कोर्ट ने कहा कि IPC की धारा 306 लागू होने के लिए यह साबित करना आवश्यक है कि आरोपी की स्पष्ट मंशा मृतक को आत्महत्या के लिए उकसाने की थी. केवल पारिवारिक झगड़े या क्रोध में दिए गए शब्दों से यह साबित नहीं होता कि मृतक के पास आत्महत्या के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था.

याचिकाकर्ताओं की दलीलें

  • झगड़ा पति-पत्नी के बीच सामान्य विवाद की तरह था.
  • जानबूझकर आत्महत्या के लिए उकसाने का कोई प्रमाण नहीं मिला.
  • FIR में दर्ज आरोप परिस्थितिजन्य हैं, प्रत्यक्ष सबूत मौजूद नहीं.
  • दिए गए कथन मात्र आवेशपूर्ण बहस का हिस्सा थे, स्थायी मंशा नहीं.

विरोधी पक्ष की दलीलें

राज्य सरकार और शिकायतकर्ता के वकीलों ने दलील दी कि मृतक पर लंबे समय से मानसिक दबाव था. पत्नी और उसके परिजनों की टिप्पणियां लगातार अपमान और यातना को दर्शाती हैं, इसलिए यह आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला बनता है.

ट्रायल कोर्ट का आदेश रद्द

हाईकोर्ट ने माना कि सेशन जज ने उपलब्ध साक्ष्यों का समुचित विश्लेषण नहीं किया. इसलिए, ट्रायल कोर्ट का आदेश रद्द किया गया और याचिकाकर्ताओं को राहत दी गई.

न्यायिक संदेश

इस फैसले से एक महत्वपूर्ण न्यायिक संदेश गया है कि हर आत्महत्या के मामले को ‘उकसाने’ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. अदालत ने यह दोहराया कि वैवाहिक मतभेद और पारिवारिक विवाद जीवन का हिस्सा हैं, लेकिन इन्हें आपराधिक दंड के आधार के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती.

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