100 रुपये की रिश्वत के आरोप ने छीन ली जिंदगी, 39 साल बाद टूटी बेगुनाही की बेड़ियां, अब हाईकोर्ट ने कहा - 'आप बेगुनाह हैं'
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट से महज 100 रुपये की रिश्वत लेने के झूठे मामले में फंसे सरकारी कर्मचारी को 39 साल आखिरकार इंसाफ मिल गया. हाईकोर्ट ने बरी करते हुए कहा कि आप निर्दोष हैं. इस फैसले ने न सिर्फ न्यायिक प्रणाली की धीमी रफ्तार पर सवाल खड़े कर दिए हैं बल्कि यह कहानी इंसान की जिंदगी बर्बाद करने का जीता-जागता सबूत है.

क्या आप सोच सकते हैं कि महज 100 रुपये की रिश्वत के आरोप में किसी की पूरी जिंदगी दांव पर लग जाए? एक सरकारी कर्मचारी को ऐसा ही भोगना पड़ा. 39 साल तक न्याय की लड़ाई लड़ने के बाद उसे आखिरकार राहत मिली. छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने साफ कहा कि इस मामले में उसे दोषी ठहराया गया था, वह पूरी तरह से झूठा और आधारहीन था. न्याय मिलने के बाद 83 साल के जागेश्वर प्रसाद का कहना है कि अब मैं इस न्याय का क्या करूं. विभाग के ही एक कर्मचारी के झूठे आरोप ने मेरी नौकरी छीन, परिवार छीन लिया, जिंदगी पर झूठ आरोप का कलंक जेल के अंदर ढोता रहा. क्या ये न्याय है?
दरअसल, रायपुर में रहने वाले 83 साल के जागेश्वर प्रसाद अवधिया की जिंदगी एक झूठे रिश्वत के मामले ने बदल के रख दी. मिली जानकारी के अनुसार 1986 में जागेश्वर प्रसाद पर 100 रुपये की रिश्वत लेने का आरोप लगा था. इस आरोप ने उनकी नौकरी, उनका परिवार और उनका सम्मान सब कुछ छीन लिया. वहीं, अब 39 साल बाद हाईकोर्ट ने उन्हें पूरी तरह बेकसूर करार दिया है.
सरकार से पेंशन और मदद की मांग
जरा सोचिए, एक व्यक्ति अपने जीवन के 39 साल एक झूठे रिश्वत के मामले के खिलाफ लड़ता रहा और अपनी पूरी जिंदगी निकाल दी. न्याय मिलने के बाद जागेश्वर प्रसाद ने सरकार से बकाया पेंशन और आर्थिक मदद की मांग कर रहे हैं, जिससे वह अपने आगे का जीवन सुकून से बिता सकें.
कब लगा फर्जी झूठ रिश्वत का आरोप?
ये घटना साल 1986 की है, जब जागेश्वर प्रसाद मध्य प्रदेश स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कॉर्पोरेशन के रायपुर कार्यालय में बिल सहायक के पद पर काम करते थे. एक अन्य कर्मचारी अशोक कुमार वर्मा ने उन पर अपना बिल बकाया पास कराने के लिए दबाव डाला. जिसके बाद जागेश्वर ने नियमों का हवाला देते हुए बकाया बिल पास करने से मना कर दिया. अगले दिन वर्मा ने 20 रुपये की रिश्वत देने की कोशिश की, लेकिन जागेश्वर ने वो भी वापस कर दिए.
100 रुपये के लिए हुई थी जागेश्वर की गिरफ्तारी
इसके बाद 24 अक्टूबर 1986 को भी वर्मा ने जागेश्वर को 100 रुपये (50-50 की दो नोट) की रुपये की रिश्वत देने की कोशिश की. इसी दौरान विजिलेंस टीम ने छापा मारा और जागेश्वर प्रसाद को रंगे हाथों गिरफ्तार कर लिया. जागेश्वर ने दावा किया कि ये गिरफ्तारी एक सोची समझी साजिश है. गिरफ्तारी के दौरान जागेश्वर के हाथ केमिकल से धुलवाए गए और नोट को सबूत के तौर पर पेश किया गया. इस दौरान जागेश्वर अपने निर्दोष होने की दुहाई देते रहे लेकिन किसी ने एक नहीं सुनी.
1988 से 1994 तक रहे निलंबित
इस घटना ने जागेश्वर प्रसाद का पूरा जीवन बर्बाद कर दिया. वह 1988 से 1994 तक वे निलंबित रहे, फिर रीवा स्थानांतरित कर दिए गए और उनका वेतन भी आधा कर दिया गया, प्रमोशन और इंक्रीमेंट भी रूक गए. चार बच्चों के साथ पूरे परिवार को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा. पूरे समाज ने जागेश्वर के परिवार को रिश्वतखोर का परिवार कहकर अपमान किया. स्कूल में फीस जमा नहीं होने के कारण बच्चों की पढ़ाई भी रूक गई. पड़ोसियों ने भी पूरे परिवार से बात करना बंद कर दिया.
जिंदगी बेजार वाली देरी
वहीं, रिटायरमेंट के बाद जागेश्वर की पेंशन भी बंद कर दी. अपना घर चलाने के लिए उन्होंने चौकीदारी और छोटे मोटे काम किए. इस पूरे मामले ने न्यायिक व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं. एक मामूली रिश्वत केस में इंसाफ दिलाने में 39 साल लगना अपने आप में बड़ी त्रासदी है. इस दौरान आरोपी की नौकरी, समाज में उसकी पहचान और उसका परिवार सबकुछ दांव पर चला गया.
न्यायिक सुधार की जरूरत
विशेषज्ञ मानते हैं कि ऐसे मामले न्यायिक सुधार की सख्त जरूरत को रेखांकित करते हैं. अगर आप समय रहते सुनवाई होती, तो एक निर्दोष व्यक्ति की जिंदगी इस तरह बर्बाद नहीं होती.
इतना जुल्म भारत में ही संभव है
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के इस फैसले पर एक्स पर गगन प्रताप ने लिखा है कि रायपुर के जागेश्वर सिंह ट्रांसपोर्ट कॉर्पोरेशन में ईमानदारी से नौकरी करते थे. 1986 में उन पर 100 रुपए की झूठी रिश्वत का केस लगा और वे 39 साल तक जेल और मुकदमे की मार झेलते रहे. इस दौरान नौकरी गई, इज्जत गई. बेटा 500 रुपए की कमी के कारण पढ़ाई न कर सका और बच्चों का भविष्य बर्बाद हो गया. 39 साल की लड़ाई के बाद अदालत ने अब कहा - 'ये निर्दोष हैं' और उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया. इतना जुल्म भारत में ही संभव है.