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मेवात अस्पताल की शर्मनाक हरकत, गर्भाशय फटा तो टांके की जगह ठूंस दिया कपड़ा, खतरे में महिला की जान

नूंह ज़िले का स्वास्थ्य विभाग इन दिनों सवालों के घेरे में है. कभी नवजात शिशु का हाथ काटने की घटना, कभी महिला की नसबंदी, और अब बिछोर पीएचसी में गर्भाशय फटने का मामला. जबरन गर्भाशय को खींचा गया, जिससे फटने लगा. इसके कारण खून बहने लगा और जब खून नहीं रूका तो नर्स ने उस जगह पर कपड़ा डाल दिया.

मेवात अस्पताल की शर्मनाक हरकत, गर्भाशय फटा तो टांके की जगह ठूंस दिया कपड़ा, खतरे में महिला की जान
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( Image Source:  Canva )
हेमा पंत
Edited By: हेमा पंत

Updated on: 5 Sept 2025 1:08 PM IST

मेवात के नागरिक अस्पताल से एक ऐसा मामला सामने आया है जिसने पूरे स्वास्थ्य तंत्र की लापरवाही और अमानवीयता पर सवाल खड़े कर दिए हैं. डिलीवरी के दौरान एक महिला का गर्भाशय फट गया और जब उसका खून नहीं रुका तो डॉक्टर या सर्जिकल ट्रीटमेंट करने के बजाय नर्स ने खून रोकने के लिए उसके गर्भाशय में कपड़ा ठूंस दिया.

यह घटना न सिर्फ चिकित्सा व्यवस्था की भयावह सच्चाई को उजागर करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि सरकारी अस्पतालों में मरीजों की जान किस हद तक भगवान भरोसे छोड़ दी जाती है.

जबरन खींचा गर्भाशय

एक सितंबर की सुबह बिछोर निवासी शहाजान अपनी गर्भवती पत्नी अरसीदा को पेट दर्द की शिकायत पर पीएचसी बिछोर लेकर पहुंचे. परिवार को उम्मीद थी कि यहां सेफ तरीके से डिलीवरी होगी. लेकिन जो हुआ उसने उनकी ज़िंदगी को हमेशा के लिए बदल दिया. आरोप है कि स्टाफ नर्स निशा और सफाई कर्मचारी बीरबती ने बिना एक्सपर्ट डॉक्टर के मौजूदगी के डिलीवरी शुरू कर दी. इंजेक्शन लगाने के बाद प्रसव कराने के लिए नर्सों ने बच्चे को जबरन खींचा. इसी दौरान महिला का गर्भाशय फट गया और खून का बहाव रुकने का नाम नहीं ले रहा था.

गर्भाशय में ठूंसा कपड़ा

महिला के परिवार वालों का आरोप है कि खून रुकाने के बजाय नर्सों ने महिला के निजी अंगों में कपड़ा ठूंस दिया और घरवालों को कुछ भी बताए बिना छुट्टी थमा दी. जब हालत बिगड़ गई, तो परिवार ने अरसीदा को निजी अस्पताल ले जाया, जहां डॉक्टरों ने कपड़ा निकाला और 25 टांके लगाए. इलाज के नाम पर 25 हज़ार रुपये वसूले गए. डॉक्टरों ने साफ कह दिया कि 40 दिन बाद दूसरी सर्जरी करनी पड़ेगी और शायद गर्भाशय निकालना ही पड़े.

ज़िम्मेदारी से भागते अधिकारी

जब मामला सुर्ख़ियों में आया तो परिवार ने सीएम विंडो, प्रधानमंत्री पोर्टल और मानवाधिकार आयोग तक शिकायत दर्ज कराई. लेकिन ज़िले के सिविल सर्जन डॉ. सर्वजीत ने फोन उठाना तक ज़रूरी नहीं समझा. सवाल यह है कि जब सरकारी अस्पतालों में ऐसे हालात हैं, तो ग्रामीण इलाक़ों की महिलाओं को सुरक्षित मातृत्व का हक़ कौन देगा?

सवाल जिनका जवाब ज़रूरी है

क्या ग्रामीण अस्पताल सिर्फ़ प्रयोगशाला बन गए हैं, जहां गरीब मरीजों की ज़िंदगी दांव पर लगाई जाती है? स्वास्थ्य विभाग और डॉक्टरों की जवाबदेही तय क्यों नहीं होती? क्या हर बार निजी अस्पतालों का ही सहारा लेना पड़ेगा, जहां गरीब को कर्ज़ और मौत के बीच चुनाव करना पड़ता है?

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