मैं गुरुग्राम हूं - ना मिलेनियम सिटी रहा ना ही वेनिस बन पाया
गुरुग्राम, जिसे कभी 'मिलेनियम सिटी' कहा जाता था, हर साल मॉनसून में अपनी असलियत दिखाता है. करोड़ों के घर, आईटी हब और आधुनिक सुविधाओं के बावजूद बारिश में शहर डूब जाता है. टूटी सड़कों, जाम नालियों और फंसे लोगों के बीच इसकी चमक फीकी पड़ जाती है. आईटी पार्क और कॉर्पोरेट टावर्स के पीछे स्थानीय लोग, मजदूर और ऑटो-ड्राइवर भी पीड़ित हैं. गुरुग्राम सपनों और हकीकत का संगम है, जहां हर साल प्रशासन की उम्मीदें पानी में बह जाती हैं.

रहता है सिर्फ एक ही कमरे में आदमी,
उसका गुरूर रहता है बाकी मकान में।
महशर आफरीदी का ये शेर मानो गुरुग्राम की हकीकत को बयां करता है. देश की आर्थिक ताकत और आधुनिक शहरीकरण का प्रतीक माना जाने वाला ये शहर, जहां 100-100 करोड़ रुपये के आलिशान घर बिकते हैं, वहां एक बारिश पूरे सिस्टम की पोल खोल देती है. सड़कों पर घुटनों तक पानी, ट्रैफिक में फंसी लग्ज़री कारें और लोगों का बेहाल हाल, हर साल बारिश के मौसम में आती ऐसी तस्वीरें चमकते गुरुग्राम के पीछे कितनी बड़ी अव्यवस्था छिपी है.
स्वार्थ को सबसे ऊपर रखकर विकास की अंधी दौड़ दौड़ने का नतीजा क्या हो सकता है, खुद ग्रुरुग्राम सुना रहा है अपनी ये दास्तां...
मैं गुरुग्राम हूं. हां, वही गुरुग्राम, जिसे कभी 'मिलेनियम सिटी' कहा गया था. जिस पर चमचमाती इमारतों, आईटी पार्कों, मॉल्स और विदेशी कंपनियों की वजह से भारत की आधुनिक पहचान का ठप्पा लगा. कहते थे - यहां सपने पूरे होते हैं, यहां हर किसी को 'ग्लोबल लाइफ' मिलती है. मुंबई के बाद मैं ही हूं, जहां एक आम आदमी घर खरीदने का बस ख्वाब ही देख सकता है. 100 करोड़ रुपये से ज्यादा की कीमत के अपार्टमेंट, दुनिया की हर तरह की चमचमाती कारें, गूगल-माइक्रोसॉफ्ट जैसी तमाम दिग्गज कंपनियों के दफ्तर और हर वो सुविधा जो किसी आधुनिक शहर में मौजूद होनी चाहिए, मेरे पास मौजूद है.
मुझे उत्तर भारत के साइबर हब और दुनिया का बेहतरीन शहर बनाने का सपना देखा गया, लेकिन मेरा सच इससे कहीं अलग है. हर साल अगर बारिश के मौसम में आप मुझे देखें तो आपको इटली के मशहूर शहर वेनिस की याद जरूर आ जाएगी. जी हां, वही वेनिस जो पानी पर बसा एतिहासिक शहर है.
जी हां, मैं हर साल मॉनसून में डूबता हूं, सड़कों पर नावें उतरती हैं, लोग घंटों ट्रैफिक में फंसे रहते हैं. मैं सपनों का शहर हूं, लेकिन हकीकत में बदइंतजामियों का दलदल भी.
मेरा नाम भले ही आजकल गुरुग्राम है लेकिन पहले मुझे गुड़गांव कहा जाता था. मेरी जड़ें महाभारत काल तक जाती हैं. कहा जाता है, द्रोणाचार्य को कौरवों और पांडवों ने जो गांव दान में दिया था, वही गुरुग्राम कहलाया. समय बदला, नाम बदल गया, लेकिन हालात नहीं. पहले मैं खेतों और गांवों से भरा था, फिर अचानक 90 के दशक में आईटी और कॉर्पोरेट हब बनने की होड़ मुझ पर चढ़ गई. कहते थे कि मैं भारत का सिंगापुर बनूंगा.
चमक-दमक के पीछे मेरी नसें कमजोर हैं. मेरे पास मॉल्स हैं, पास में एयरपोर्ट है, ऊंची-ऊंची सोसायटीज़ हैं. लेकिन नालियां, सीवरेज, बारिश का पानी निकालने की व्यवस्था - सब नाकाम. यहां करोड़ों के फ्लैट बिकते हैं, लेकिन एक घंटे की बारिश मुझे आईना दिखा देती है.
मुझे याद है 2016 की बारिश. लोग बोले - "गुरुग्राम जलग्राम" बन गया. मर्सिडीज, बीएमडब्ल्यू, ऑडी जैसी कारें पानी में डूब गईं. लोग ऑफिस नहीं पहुंच पाए, बच्चे स्कूल में फंसे रहे. उस दिन मेरे चेहरे से 'मिलेनियम सिटी' का मेकअप उतर गया. इसके बाद हर साल वही कहानी दोहराई जाती है. सोशल मीडिया पर मीम्स बनते हैं - 'सिटी ऑफ वाटरफॉल्स', 'सिटी ऑफ लेक्स'. लेकिन मेरे लिए ये हकीकत है.
सरकारें आती हैं, बैठकों का दौर चलता है. कहा जाता है - 'मास्टर ड्रेनेज प्लान बनेगा', 'गुरुग्राम की सड़कों से पानी तुरंत निकलेगा'. रिपोर्टें बनती हैं, तस्वीरें खिंचती हैं, लेकिन पहली ही बारिश सब वादों को बहा ले जाती है. मुझे उम्मीद दी जाती है, लेकिन सच्चाई ये है कि मेरी नसों में पानी का बहाव रोकने वाली नालियां जाम हैं.
मैं आईटी हब हूं, लेकिन लोकल लोगों का भी हूं. मुझे सिर्फ आईटी पार्क और कॉर्पोरेट टावर्स से मत देखो. मैं उन ऑटो ड्राइवरों का भी हूं, जो बारिश में गाड़ियों के धक्के लगाते हैं. मैं उन सिक्योरिटी गार्ड्स का भी हूं, जो सोसायटी में छतरी पकड़कर ड्यूटी करते हैं. मैं उन बुजुर्गों का भी हूं, जो हर मॉनसून में अपने घरों में घुटनों तक पानी देखकर रो पड़ते हैं. मेरा दर्द सिर्फ गाड़ियों में फंसे कॉर्पोरेट एग्जिक्यूटिव्स का नहीं है, बल्कि उन मजदूरों का भी है, जिनकी झुग्गियां हर बारिश में बह जाती हैं.
मैं मानता हूं कि मेरे पास एयरपोर्ट से सीधी मेट्रो है, 24x7 पब्स हैं, बड़े-बड़े हॉस्पिटल हैं. लेकिन क्या बस इसी को शहर कहते हैं? एक तरफ मेरे ग्लास टावर्स हैं, दूसरी तरफ टूटी सड़कों पर गड्ढों में भरा पानी है. एक तरफ करोड़ों के अपार्टमेंट हैं, दूसरी तरफ पानी से जूझते गांव हैं. यही मेरा असली विरोधाभास है.
जब भी बारिश होती है, मैं सोचता हूं - शायद इस बार हालात बदलेंगे. शायद प्रशासन ने कोई ठोस प्लान बनाया होगा. लेकिन पानी की एक लहर आते ही सारे सपने बह जाते हैं. फिर भी, मैं टूटता नहीं हूं. क्योंकि मेरे लोग, जो यहां रहते हैं, मुझसे प्यार करते हैं. हर साल डूबने के बावजूद वो मुझे छोड़कर नहीं जाते.
मैं मानता हूं कि मैं भारत के आधुनिक सपनों का आईना हूं. लेकिन ये आईना टूट चुका है. मेरी चमकती इमारतों के पीछे पानी से जूझती सच्चाई है. मैं सपनों और हकीकत का संगम हूं. कभी-कभी लगता है, मैं एक नकली मुस्कान हूं - बाहर से चमकदार, अंदर से बदहाल.
कुछ सवाल जो मुझसे पूछे जाने चाहिए
- कब मैं बिना डूबे मॉनसून काट पाऊंगा?
- कब मेरे बच्चों को स्कूल तक सुरक्षित पहुंचने की गारंटी मिलेगी?
- कब मेरे लोगों को फ्लड नहीं बल्कि राहत मिलेगी?
ये सवाल मैं खुद से करता हूं, और चाहता हूं कि कोई सुन ले.
मैं गुरुग्राम हूं. मैं सपनों का शहर हूं. लेकिन मेरे सपनों पर हर साल बारिश का पानी बह जाता है. मैं अब भी इंतजार कर रहा हूं - उस दिन का जब मुझे 'मिलेनियम सिटी' कहकर सिर्फ हंसाया नहीं जाएगा, बल्कि गर्व से कहा जाएगा.