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बस्तर ओलंपिक बना बदलाव की पहचान, माओवादी ने बंदूक छोड़ उठाए बैडमिंटन-हॉकी स्टिक, 3 हजार से ज्यादा खिलाड़ियों ने लिया भाग

कभी माओवाद की हिंसा और डर के लिए पहचाना जाने वाला बस्तर आज एक नई कहानी लिख रहा है. जंगलों की खामोशी अब तालियों की गूंज में बदल चुकी है. तीन दिवसीय बस्तर ओलंपिक न सिर्फ खेलों का उत्सव बना, बल्कि यह उम्मीद, बदलाव और मुख्यधारा में लौटने की सबसे खूबसूरत मिसाल भी बनकर उभरा.

बस्तर ओलंपिक बना बदलाव की पहचान, माओवादी ने बंदूक छोड़ उठाए बैडमिंटन-हॉकी स्टिक, 3 हजार से ज्यादा खिलाड़ियों ने लिया भाग
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( Image Source:  AI SORA )
हेमा पंत
Edited By: हेमा पंत

Updated on: 13 Dec 2025 7:07 PM IST

कभी हिंसा और माओवादी गतिविधियों के लिए पहचाना जाने वाला बस्तर अब देश के सामने बदलाव की अलग तस्वीर पेश कर रहा है. तीन दिवसीय बस्तर ओलंपिक ने यह दिखा दिया कि अगर सही मंच और मौका मिले, तो भटके हुए रास्तों से लौटकर नई शुरुआत करना पूरी तरह संभव है.

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इस आयोजन में पूर्व माओवादियों ने बंदूक छोड़कर बैडमिंटन रैकेट और हॉकी स्टिक थामी, जो सिर्फ खेल नहीं बल्कि शांति, भरोसे और उम्मीद का मजबूत संदेश बन गया. तीन हजार से ज्यादा खिलाड़ियों की भागीदारी के साथ बस्तर ओलंपिक खेलों से कहीं आगे बढ़कर सामाजिक बदलाव का उत्सव बन गया.

3,500 खिलाड़ियों की ऐतिहासिक भागीदारी

बस्तर ओलंपिक में बीजापुर, दंतेवाड़ा, कांकेर, कोंडागांव, नारायणपुर, सुकमा और जगदलपुर से करीब 3,500 खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया. कभी संघर्ष की आग में झुलस चुके इन इलाकों के युवाओं ने खेल के मैदान में अपनी नई ताकत और आत्मविश्वास दिखाया. यह आयोजन साबित करता है कि अवसर मिले तो बस्तर के युवा किसी से कम नहीं.

क्या है ‘नुआ बाट’?

इस ओलंपिक की सबसे खास बात रही ‘नुआ बाट’ श्रेणी, जिसका मतलब है नया रास्ता. इसमें वे पूर्व माओवादी शामिल हुए, जिन्होंने हिंसा छोड़कर समाज की मुख्यधारा को अपनाया. बंदूक थामने वाले हाथों में जब बल्ला, हॉकी स्टिक और बैडमिंटन रैकेट आए, तो यह सिर्फ खेल नहीं, बल्कि जीवन बदलने की कहानी बन गई.

खेल के साथ सम्मान और प्रोत्साहन

छत्तीसगढ़ सरकार ने खिलाड़ियों के हौसले को और ऊंचा करने के लिए बड़ा कदम उठाया. ओलंपिक में स्वर्ण, रजत और कांस्य पदक जीतने वालों को क्रमशः 3 करोड़, 2 करोड़ और 1 करोड़ रुपये की सम्मान राशि दी जा रही है. यह पहल बताती है कि सरकार खेल को सिर्फ प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि बदलाव का माध्यम मान रही है.

जब भावनाएं मैदान पर उतर आईं

वॉलीबॉल में हिस्सा लेने वाले आत्मसमर्पित माओवादी सुकलाल की आंखों में खुशी साफ झलक रही थी. उन्होंने बताया कि 20 साल तक जंगलों में भटकने और हाथ में हथियार रखने के बाद, अब खेलना उनके लिए किसी सपने के सच होने जैसा है. इसी तरह गंगा वट्टी, जो अपनी पत्नी के साथ आत्मसमर्पण कर चुके हैं, परेड प्रतियोगिता और रस्साकशी में शामिल हुए. उनके लिए यह आयोजन पहली बार था, जिसने उन्हें समाज का हिस्सा होने का एहसास दिलाया.

दिव्यांग खिलाड़ियों ने दिया हौसले का संदेश

बस्तर ओलंपिक सिर्फ आत्मसमर्पित माओवादियों तक सीमित नहीं रहा. माओवादी हिंसा से प्रभावित दिव्यांग खिलाड़ियों ने भी मैदान में उतरकर यह दिखा दिया कि हौसले किसी चोट के मोहताज नहीं होते. बीजापुर हमले में घायल किशन ने उम्मीद जताई कि बस्तर जल्द ही माओवाद से पूरी तरह मुक्त होगा.

समापन समारोह में ऐतिहासिक मौजूदगी

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का समापन समारोह में पहुंचना इस आयोजन को और खास बनाता है. मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने इसे बस्तर के बदलाव का ऐतिहासिक पल बताया. उनके अनुसार, बस्तर अब संघर्ष नहीं, बल्कि आत्मविश्वास, उत्साह और सांस्कृतिक गर्व का प्रतीक बन रहा है.

बस्तर ओलंपिक: खेल से बदलाव की मिसाल

छत्तीसगढ़ खेल एवं युवा कल्याण विभाग की यह वार्षिक पहल आज बस्तर की नई पहचान बन चुकी है. यह आयोजन साबित करता है कि खेल सिर्फ जीत-हार नहीं, बल्कि टूटे हुए भरोसे को जोड़ने और समाज को एक नई दिशा देने का सबसे सशक्त माध्यम भी है.

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