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अगर महागठबंधन चुनाव का बहिष्‍कार करे तो क्या बिहार में नहीं होगी वोटिंग? जानिए क्या कहता है नियम

बिहार में वोटर लिस्ट विवाद के बाद तेजस्वी यादव ने चुनाव बहिष्कार की चेतावनी दी है. सवाल है कि अगर महागठबंधन चुनाव में हिस्सा न ले तो क्या चुनाव रुक जाएंगे? भारतीय संविधान, चुनाव आयोग की शक्तियां और सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसले इस सवाल का स्पष्ट जवाब देते हैं – बहिष्कार हो सकता है, लेकिन चुनाव रुक नहीं सकते.

अगर महागठबंधन चुनाव का बहिष्‍कार करे तो क्या बिहार में नहीं होगी वोटिंग? जानिए क्या कहता है नियम
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( Image Source:  ANI )
नवनीत कुमार
Curated By: नवनीत कुमार

Updated on: 24 July 2025 9:40 AM IST

बिहार में 56 लाख वोटरों के नाम लापता पाए जाने के बाद महागठबंधन ने गंभीर सवाल खड़े किए हैं. तेजस्वी यादव और राहुल गांधी ने आरोप लगाया है कि यह एक 'संगठित वोट चोरी' है. तेजस्वी ने यहां तक कह दिया कि अगर ऐसी ही स्थिति रही तो चुनाव में हिस्सा लेने का कोई मतलब नहीं. उनका बॉयकॉट का ऐलान राजनीतिक दृष्टि से बड़ा संकेत है. लेकिन सवाल उठता है- अगर सभी विपक्षी दल चुनाव का बहिष्कार करते हैं, तो क्या बिहार में चुनाव नहीं होगा?

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत चुनाव आयोग को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने का पूरा अधिकार प्राप्त है. आयोग यह तय करता है कि चुनाव कब होंगे, कैसे होंगे और कौन उन्हें लड़ेगा. यह अधिकार न तो सरकार और न ही किसी राजनीतिक दल के हस्तक्षेप से बाधित हो सकता है. चुनाव में कोई पार्टी भाग ले या न ले, आयोग को तय समय पर चुनाव कराना ही होगा. बहिष्कार लोकतांत्रिक विरोध हो सकता है, लेकिन चुनाव प्रक्रिया को यह नहीं रोक सकता.

अवैध या दंडनीय अपराध नहीं है बहिष्कार

भारत के कानून में चुनाव बहिष्कार को न तो अवैध माना गया है, न ही इसे दंडनीय अपराध की श्रेणी में रखा गया है. यह एक राजनीतिक पार्टी का स्वैच्छिक निर्णय होता है. हालांकि, जब बहिष्कार की संख्या और गंभीरता बढ़ती है, तो यह चुनाव की वैधता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर सवाल उठाने लगता है. फिर भी कानून चुनाव रद्द करने की अनुमति नहीं देता जब तक कि किसी बड़े संकट जैसे हिंसा, आपदा या कानून व्यवस्था की विफलता न हो.

राजनीतिक पहचान का संकट

अगर कोई दल लंबे समय तक चुनाव में हिस्सा नहीं लेता, तो उसे चुनाव आयोग की मान्यता खोने का खतरा होता है. 1968 के चुनाव चिन्ह आदेश के अनुसार, न्यूनतम वोट प्रतिशत न पाने या बार-बार चुनाव न लड़ने पर आयोग किसी पार्टी की मान्यता रद्द कर सकता है. हालांकि, केवल बहिष्कार के आधार पर ऐसा करना आयोग की विवेकाधीन शक्ति के तहत आता है. इसलिए बहिष्कार केवल विरोध नहीं, एक राजनीतिक जोखिम भी है.

जनता का समर्थन भी मिलना चाहिए

चुनाव बहिष्कार का असर इस बात पर भी निर्भर करता है कि जनता उस बहिष्कार का समर्थन करती है या नहीं. कई बार इस तरह के निर्णय पार्टी के भीतर मतभेद को भी जन्म देते हैं. कार्यकर्ता, स्थानीय नेता और समर्थक चुनावी भागीदारी की मांग करते हैं. संसाधन और राजनीतिक जमीन छोड़ देने से पार्टी की मौजूदगी पर भी प्रश्नचिह्न लग सकता है. इसलिए यह निर्णय केवल भावनात्मक नहीं, रणनीतिक भी होना चाहिए.

अगर सिर्फ सत्ता पक्ष मैदान में हो?

चुनाव आयोग संविधान के तहत चुनाव की प्रक्रिया को बाधित नहीं कर सकता. अगर केवल सत्तारूढ़ दल चुनाव में हिस्सा लेता है और कोई अन्य उम्मीदवार मैदान में नहीं होता, तो आयोग उन प्रत्याशियों को निर्विरोध निर्वाचित घोषित कर देगा. यह प्रक्रिया वैध मानी जाती है. यानी अगर महागठबंधन पूरा चुनाव बहिष्कार करता है, तब भी चुनाव होगा और सत्ता पक्ष सभी सीटें जीत सकता है. यह तकनीकी रूप से पूरी तरह वैध.

क्या सुप्रीम कोर्ट रोक सकता है चुनाव?

सिद्धांततः कोई भी पार्टी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकती है. लेकिन कोर्ट का रुख अब तक स्पष्ट रहा है. 1989 के मिजोरम चुनाव के दौरान भी बहिष्कार हुआ था और सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव रद्द करने से इंकार कर दिया था. कोर्ट ने कहा कि जब तक चुनाव प्रक्रिया वैध है और संवैधानिक मानकों का पालन हो रहा है, तब तक बहिष्कार चुनाव को रद्द करने का आधार नहीं हो सकता.

क्या ऐसा पहले हुआ है?

भारत में सभी प्रमुख विपक्षी दलों द्वारा एक साथ चुनाव बहिष्कार करने का कोई रिकॉर्ड नहीं है. लेकिन अलग-अलग उदाहरण जरूर मौजूद हैं. मिजोरम 1989 में, जम्मू-कश्मीर 1999 में और हरियाणा 2014 में कुछ पार्टियों ने आंशिक बहिष्कार किया था. लेकिन चुनाव समय पर हुए. परिणामस्वरूप जिन दलों ने बहिष्कार किया, वे सरकार में हिस्सेदार नहीं बन पाए.

वोटर टर्नआउट पर असर

जहां-जहां बहिष्कार हुआ, वहां वोटिंग परसेंटेज में भारी गिरावट देखी गई. लेकिन यह भी देखा गया कि चुनाव आयोग ने चुनाव को वैध माना और परिणामों को स्वीकार किया गया. हालांकि, कम टर्नआउट और एकतरफा जीत की वैधता पर सैद्धांतिक सवाल उठते रहे हैं. लोकतांत्रिक नैतिकता बनाम संवैधानिक वैधता की यह बहस आज भी जारी है.

चुनाव आयोग बनाम राजनीतिक रणनीति

अंततः यह साफ है कि चुनाव कराना चुनाव आयोग की संवैधानिक ज़िम्मेदारी है. कोई भी राजनीतिक रणनीति, चाहे वह बहिष्कार हो या दबाव की राजनीति, चुनावी प्रक्रिया को रोक नहीं सकती. हां, ऐसे बहिष्कार से सरकार की नैतिक वैधता पर असर पड़ सकता है, लेकिन संविधान के तहत यह कानूनी वैधता को चुनौती नहीं दे सकता. इसलिए चुनाव का बहिष्कार एक ताकतवर संदेश तो दे सकता है, लेकिन चुनाव को रद्द नहीं कर सकता.

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