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बिहार की राजनीति का 'ट्रिगर प्वाइंट' है सीमांचल, BJP और ओवैसी की प्रतिष्ठा दांव पर, क्या लालू इस बार पलट पाएंगे हारी हुई बाजी?

बिहार का सीमांचल इलाका चुनावी रणनीतिकारों के लिए किसी रणभूमि से कम नहीं है. यहां की 24 विधानसभा सीटों पर जातीय और धार्मिक समीकरण इतना प्रभावी है कि छोटी सी चूक भी सत्ता के समीकरण बिगाड़ने के लिए काफी होता है. जानिए, किस जाति और धर्म का कितना वोट बैंक है, कौन-से दल की पकड़ है मजबूत और 2025 के चुनावों में क्या दिख सकते हैं नए ट्रेंड?

बिहार की राजनीति का ट्रिगर प्वाइंट है सीमांचल, BJP और ओवैसी की प्रतिष्ठा दांव पर, क्या लालू इस बार पलट पाएंगे हारी हुई बाजी?
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बिहार की राजनीति में सीमांचल एक ऐसा इलाका है जिसे हमेशा से ‘किंगमेकर’ की भूमिका में देखा जाता है. अररिया, कटिहार, किशनगंज और पूर्णिया जैसे जिलों में फैला ये इलाका कुल 24 विधानसभा सीटों को समेटे हुए है. यहां चुनावी हार-जीत का फैसला सिर्फ विकास के वादों से नहीं होता बल्कि यहां की हवा जातीय और धार्मिक समीकरणों से बहती है. यही समीकरण तय करते हैं कि पटना की गद्दी तक किसकी सवारी पहुंचेगी?

सीमांचल क्षेत्र में अररिया, कटिहार, किशनगंज और पूर्णिया जिले आते हैं. इन जिलों में मुस्लिम आबादी 35 प्रतिशत से लेकर 70 फीसदी तक है. विशेष रूप से किशनगंज में मुस्लिम आबादी 68 फीसदी के करीब है, जो इसे भारत के सबसे बड़े मुस्लिम बहुल विधानसभा क्षेत्र बनाता है. 25 सीटों में करीब 11से 12 सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं.

RJD का पारंपरिक गढ़

ष्ट्रीय जनता दल (RJD) इस क्षेत्र में मुस्लिम-यादव (MY) समीकरण पर सबसे ज्यादा निर्भर करती आई है. साल 2020 की हार से सबक लेते हुए आरजेडी ने अति पिछड़े मुस्लिमों को अपने पाले में करने में जुटी है. यादवों की संख्या सीमांचल में अपेक्षाकृत कम है लेकिन मुस्लिम वोटों के साथ मिलकर ये गठजोड़ RJD को एक मजबूत स्थिति में रखता है. तेजस्वी यादव के नेतृत्व में RJD ने यहां अपनी पकड़ और मजबूत की है. 2020 में जब NDA को यहां मुश्किल से 8 सीटें मिली थीं.

AIMIM की वजह से ध्रुवीकरण के आसार

साल 2015 और 2020 में AIMIM यानी असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने सीमांचल में मजबूत एंट्री की. खासकर 2020 में जब पार्टी ने किशनगंज, अमौर, जोकिहाट जैसी सीटों पर जीत हासिल की. ओवैसी की पार्टी को कुल 5 सीटों पर जीत मिली थी. मुस्लिम मतदाताओं का बंटवारा RJD और AIMIM के बीच हुआ, जिससे NDA को अप्रत्याशित लाभ मिला. बीजेपी अकेले दम पर आठ सीटें जीत गई. 2025 में ये देखना होगा कि क्या AIMIM फिर से मुस्लिम वोटों को बांटने में सफल होगी या नहीं?

BJP और JDU का गैर मुस्लिम OBC-Dalit पर जोर

BJP और JDU सीमांचल में यादव-मुस्लिम समीकरण को तोड़ने के लिए गैर-मुस्लिम OBC, अति पिछड़ा वर्ग, (EBC) और दलित वोटों को टारगेट करने पर है. यानी कोइरी, कुर्मी, पासवान, मुसहर, राजभर जैसी जातियों पर फोकस करते हुए BJP-JDU गठबंधन ने 2010 में अच्छा प्रदर्शन किया था. साल 2020 में प्रदर्शन अच्छा रहा. अब मिशन 2025 के लिए ‘लाभार्थी’ और महिला वोटरों को साधने की रणनीति पर बीजेपी-JDU काम कर रही है.

विकास बनाम पहचान

सीमांचल भारत के सबसे पिछड़े इलाकों में आता है. यहां बाढ़, शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी और सड़क जैसी मूलभूत समस्याएं चुनावी मुद्दे बनती हैं, लेकिन इन पर वोटिंग कम होती है. यहां की राजनीति पहचान की यह है कि कौन किस जाति-धर्म से है, किसको रोका जाए और किसे जिताया जाए? हालांकि, कुछ सीटों पर युवा और महिला मतदाता विकास को प्राथमिकता देने लगे हैं?

छोटे दलों के लिए राजनीति की प्रयोगशाला

RLSP, VIP, HAM जैसे छोटे दल यहां बार-बार प्रयोग करते हैं. यहां सीटों का समीकरण इतना उतार—चढ़ाव वाला है कि थोड़ा भी वोट शिफ्ट होने पर नतीजे बदल जाते हैं. यही वजह है कि सीमांचल गठबंधन राजनीति का केंद्र बनता जा रहा है.

कुल मिलाकर सीमांचल सिर्फ 25 सीटों का इलाका नहीं बल्कि बिहार की सत्ता के समीकरणों का ट्रिगर पॉइंट है. साल 2025 के विधानसभा चुनावों में सीमांचल की हवा को पढ़ना मतलब पूरे बिहार की दिशा को भांप लेने के समान है. मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण, यादवों की निष्ठा, AIMIM का प्रभाव और NDA की जातीय रणनीति – इस क्षेत्र को सबसे रोमांचक चुनावी रणभूमि बना सकते हैं.

सीमांचल विधानसभा क्षेत्र में आने वाली 24 सीटें

सीमांचल की 24 सीटों में पूर्णिया की 7, कटिहार की 7, अररिया की 6 और किशनगंज की 4 सीटें शामिल हैं. कटिहार में कटिहार, बलरामपुर, कदवा, मनिहारी, प्राणपुर, बरारी, कोरहा सीटें हैं. पूर्णिया में पूर्णिया, बायसी, अमौर, रूपौली, काशीचक, धमदाहा, बनमनखी. अररिया में अररिया, जाले, जोकीहाट, रानीगंज, फारबिसगंज और बघवा. जबकि किशनगंज में किशनगंज, कोचाधामन, बहादुरगंजऔर ठाकुरगंज.

AIMIM का उभार खास क्यों?

सीमांचल के मतदाताओं की उपेक्षा और पहचान की भावनाओं पर AIMIM ने जोर दिया. इसका लाभ उसे मिला. एआईएमआईएम प्रमुख ओवैसी ने पलायन और CAA-NRC जैसे स्थानीय मुद्दे जोर-शोर से उठाए. साल 2015 की बजाय 2020 में बेहतर संगठनात्मक बनावट, मजबूत प्रचार और बड़े नामों की ब्रांडिंग के दम पर एआईएमआईएम के पांच प्रत्याशियों ने जीत हासिल कर बिहार की राजनीति में तहलका मचा दिया. लेकिन इस बार एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी अपना असर दिखा पाएंगे या नहीं, यह तय नहीं है. पहली बात ये कि उन्होंने गठबंधन के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दिया था, जिसे आरजेडी ने रिजेक्ट कर दिया. अभी तक ओवैसी ने कोई बड़ी रैली नहीं की है. न ही वह पिछले साल की तरह बिहार का दौरा कर हैं. हालांकि, 2025 चुनाव से पहले AIMIM ने विस्तार की योजना बनाई. सीमांचल के बाहर मिथिलांचल, शाहाबाद और पटना आदि में 50 सीटों पर दावेदारी पेश की थी.

बिहार विधानसभा चुनाव 2025बिहार
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