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10वीं में टॉप करने पर जमींदार ने कहा था 'पैर दबाओ', जानें बिहार के CM रहे कर्पूरी ठाकुर से जुड़े तमाम किस्से

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और दिवंगत नेता कर्पूरी ठाकुर की सादगी और ईमानदारी से जुड़े तमाम किस्से हैं. एक किस्सा ये भी है कि जब उन्होंने 10वीं में टॉप किया तो जमींदार ने कहा पैर दबाओ! यह कोई फिल्मी स्क्रिप्ट नहीं बल्कि बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और जनता के नेता कर्पूरी ठाकुर की असल जिंदगी थी. एक ऐसा नेता जो खुद गरीब था और बतौर सीएम ऐसे काम किए कि गरीबों का मसीहा बन गया, जिनके लिए राजनीति 'सेवा' थी, सत्ता नहीं.

10वीं में टॉप करने पर जमींदार ने कहा था पैर दबाओ, जानें बिहार के CM रहे कर्पूरी ठाकुर से जुड़े तमाम किस्से
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जी हां, मैं उसी कर्पूरी ठाकुर की बात कर रहा है. इस समय वह चर्चा में हैं, चर्चा में इसलिए कि बिहार में नवंबर में चुनाव होना है. तो हम बात की शुरुआत वहां से करते हैं, जब कर्पूरी ठाकुर ने 10वीं क्लास पास किया था. उन्होंने पूरे जिले में टॉप किया, तो गांव का जमींदार बोला - "अब तो हमारे पैर दबाने लायक हो गए हो!" जिस समाज ने ज्ञान को जाति से तौल दिया, उसी समाज को बाद में ये लड़का यानी कर्पूरी ठाकुर 'सामाजिक न्याय' का असली मतलब समझा गया. संभवत: किस्मत ने तय कर दिया था कि 'कर्पूरी' एक दिन बिहार के तख्त पर बैठेगा, लेकिन गरीबों की नजरों में 'भगवान' बनकर.

वैसे भी, भारतीय समाज में जब भी किसी व्यक्ति के निजी जीवन को लेकर या विषय पर भविष्य की बात करते हैं, तो अमूमन लोग यही कहते हैं, जो होना होगा, हो जाएगा. विधाता ने पहले ही तय कर रखा है. किसका क्या होना है? बात भी सही है. एक होनहार लड़के से भले ही जमींदार ने 10वीं पास करने पर पांव दबवाया लेकिन विधाता ने उसकी किस्मत में लिखा था, तू जननायक बनेगा, वो बिहार का सीएम बना भी. साथ ही जनहितैषी नीतियों पर अमल की वजह से गरीबों का मसीहा भी कहलाया. इतना ही नहीं, सीएम नीतीश कुमार हों या लालू यादव या बीजेपी नेता, सभी को बिहार चुनाव के बीच वही मसीहा यानी कर्पूरी ठाकुर याद आने लगे हैं. सभी लोग उनकी नीतियों पर अमल की बात करने लगे हैं.

आज भी कर्पूरी ठाकुर की चर्चा होती है कि कभी उनके रिक्शे पर चलने वाली कहानी सुनाई जाती है. तो कभी फटा कोट पहनकर ऑस्ट्रिया जाने वाला किस्सा. सच कहूं तो कर्पूरी ठाकुर ईमानदारी और सादगी के प्रतीक थे. उनकी ईमानदारी के कई किस्से हैं जो मिसाल हैं.

वॉयस ऑफ वॉइसलेस

'द जननायक कर्पूरी ठाकुर' वॉयस ऑफ वॉइसलेस के लेखक संतोष सिंह और आदित्य अनमोल हैं. किताब में संतोष सिंह ने बिहार के पहले पिछड़े मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के जीवन के अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डाला है. इस किताब में संतोष सिंह ने ठाकुर के जीवन से जुड़े कई किस्से सुनाए, जिनमें 1924 में कर्पूरी के रूप में जन्म लेने से लेकर उनकी राजनीति और विरासत तक की यात्रा को दर्शाया गया है.

जननायक कर्पूरी ठाकुर से जुड़ी एक दिलचस्प कहानी है. पढ़ाई के दौरान वह स्कूल की फीस जमा नहीं कर पा रहे थे. वह गांव के एक जमींदार के पास फीस के पैसे के लिए गए. जमींदार ने कहा कि पैसे चाहिए पैसे के लिए मेहनत करने होंगे. पैसे देने के बदले जमींदार ने उनसे 27 बाल्टी पानी से नहलवाने के बाद पैसे दिए.

छुपकर ट्यूशन पढ़ते थे कर्पूरी ठाकुर

कर्पूरी ठाकुर के गांव पितौझिया में एक शिक्षक थे जो सवर्ण जाति से आते थे. राजा गुरु जी सिर्फ सवर्ण जाति के लड़कों को पढ़ाते थे. कर्पूरी ठाकुर ने उनसे पढ़ने का अनुरोध किया. राजा गुरु जी सामाजिक दबाव के चलते पढ़ा नहीं सकते थे लेकिन उन्होंने बीच का रास्ता निकाला और कहा कि जहां मैं पढ़ाता हूं वहां तुम खलिहान में आ जाना और पुआल में बैठकर चुपचाप सुनना. मैं जोर-जोर से बोलूंगा. इससे तुम्हारी पढ़ाई भी पूरे हो जाएगी. कर्पूरी ठाकुर ने इसी तरीके से बचपन में पढ़ाई पूरी की.

किसने दी जननायक की उपाधि

पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने कर्पूरी ठाकुर को जननायक की उपाधि दी थी. कर्पूरी ठाकुर ने अपने राजनीतिक जीवन में जनता के लिए ढेरों ऐसे काम किया जो आज माइलस्टोन की तरह है.

'कर्पूरी मिल जाए तो देश बदल देंगे'

1952 तक डा. राम मनोहर लोहिया कुछ नहीं कर पा रहे थे. 1964 में उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया. कर्पूरी ठाकुर जब लोहिया के साथ जुड़े तब डॉक्टर लोहिया की सियासत को धार मिला. डॉ. लोहिया के आदर्शों को जमीन पर लाने का काम कर्पूरी ठाकुर ने किया. डॉक्टर लोहिया कहते थे कि अगर मुझे पांच कर्पूरी ठाकुर मिल जाए तो हम देश बदल देंगे.

'ऐसे बने कपूरी से कर्पूरी ठाकुर'

कक्षा 12वीं तक कर्पूरी ठाकुर का नाम कर्पूरी ठाकुर हुआ करता था. इससे जुड़ी हुई एक दिलचस्प कहानी है. कर्पूरी ठाकुर आठवीं में पढ़ते थे.समस्तीपुर के कृष्णा टॉकीज के पास स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान रामनंदन मिश्र का भाषण चल रहा था. कर्पूरी ठाकुर ने भी वहां भाषण दिया. भाषण सुनकर रामनंदन मिश्र बहुत प्रभावित हुए और कर्पूरी ठाकुर से नाम पूछा तो उन्होंने अपना नाम कर्पूरी ठाकुर बताया रामनंदन मिश्र ने कहा कि तुम कर्पूरी हो तुम्हारी खुशबू दूर-दूर तक फैले तब से कर्पूरी ठाकुर कर्पूरी ठाकुर कहे जाने लगे.

जमींदार ने पिता को लठैत से उठवाया

साल 1970 के दिसंबर में कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने. उस समय समस्तीपुर दरभंगा का हिस्सा हुआ करता था. गांव के एक जमींदार ने कर्पूरी ठाकुर के पिता को बाल-दाढ़ी बनाने के लिए बुलावा भेजा, लेकिन वह तबीयत खराब होने के चलते नहीं गए. तब जमींदार ने अपने लठैत को यह कह कर भेजा कि गोकुल ठाकुर को पकड़ कर लाओ. लठैत जबरदस्ती उन्हें पकड़ कर जमींदार के पास ले गए. बात जब पुलिस प्रशासन तक पहुंची तो पुलिस ने जमींदार को गिरफ्तार करने पहुंची. यह बात जब कर्पूरी ठाकुर को पता चला तो उन्होंने पुलिस को फोन किया उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जाए, क्योंकि वह हमारे ग्रामीण हैं.

गरीब रिश्तेदारों को देते थे उस्तुरा

जननायक कर्पूरी ठाकुर के पास उनके कई रिश्तेदार नौकरी के लिए जाते थे. एक करीबी रिश्तेदार जब उनके पास गए और नौकरी दिलाने की बात कही तो उन्होंने उन्हें 50 रुपये निकाल कर दिए और कहा कि कैंची और उस्तूरा खरीद लीजिए और नाई का कम कीजिए.

शिक्षक से नेता और फिर मुख्यमंत्री

आजादी के बाद शिक्षक बने, लेकिन समाज सेवा का जज्बा उन्हें राजनीति में खींच लाया. 1952 में पहली बार विधायक बने और 1970 में बिहार के मुख्यमंत्री. सत्ता में आने के बाद भी उन्होंने कभी विलासिता को नहीं अपनाया. उनका घर, रहन-सहन और पहनावा सब कुछ आम आदमी जैसा ही रहा.

आरक्षण की नींव रखने वाले नेता

साल 1978 में उन्होंने पहली बार बिहार में पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया. यह फैसला इतना क्रांतिकारी था कि कई उच्च जातियों ने विरोध किया, लेकिन कर्पूरी जी डिगे नहीं. आज OBC आरक्षण की जो नींव दिखती है, वह कर्पूरी ठाकुर की ही देन है.

क्यों कहलाए जननायक?

कर्पूरी ठाकुर ने हमेशा दबे-कुचले वर्गों के लिए आवाज उठाई. चाहे शराबबंदी हो, हिंदी भाषा को बढ़ावा देना हो या शिक्षा के क्षेत्र में सुधार, उन्होंने कभी अपने उसूलों से समझौता नहीं किया. इसलिए, आज भी उन्हें 'जननायक' कहा जाता है.

अंतिम सांस तक सादगी

24 फरवरी 1988 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया. उस वक्त भी उनके पास कोई बड़ी दौलत नहीं थी, लेकिन लोगों के दिलों में इतनी जगह थी कि आज तक उनके नाम पर नारे लगते हैं. बिहार चुनाव से पहले सभी सियासी दलों के नेताओं को वह याद आते हैं.

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