EXPLAINER: बिहार विधानसभा चुनाव पॉलिटिकल पार्टियां कम, यादव ठाकुर पंडित-भूमिहार, अगड़ा-पिछड़ा की ‘ताकत’-‘वर्चस्व’ ज्यादा लड़ेंगे!
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में मुकाबला पार्टियों से ज्यादा जातियों के वर्चस्व का होगा. यहां राजनीति विकास से नहीं, बल्कि ठाकुर, भूमिहार, यादव, कुर्मी, कोयरी और धानुक जैसी जातियों की ताकत से तय होती है. जातीय समीकरण हर सीट का गणित बदल रहे हैं. नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव, और प्रशांत किशोर जैसे नेता भी अपनी रणनीति इसी सामाजिक समीकरण के हिसाब से बना रहे हैं. बिहार में चुनाव नारा नहीं, जाति ही तय करती है - कौन हारेगा, कौन जीतेगा.
  बिहार में जल्दी ही राज्य विधानसभा चुनाव 2025 होने जा रहे हैं. बिहार को समझने के लिए गंभीर और लंबे अनुसंधान की जरूरत है. बिहार को ‘गूगल-ज्ञान’ के आधार पर समझ लेना भर सबसे बड़ी मूर्खता या बेवकूफी होगी. बिहार में सत्ता की धौंस से सिंहासन नहीं मिला करता है. बिहार का राजनीतिक और कौमी यानी जाति-पांति का मौजूद पुराना इतिहास इसकी तस्दीक के लिए काफी है. मतलब, साफ है कि बिहार बीते कई दशक से जिस ‘कौम-कास्ट-जाति-पांति’ के नाम पर आगे बढ़ता आ रहा था. उसी तर्ज पर इस बार के चुनावी नतीजे भी सामने आने की प्रबल संभावनाएं हैं.
हर बार की तरह ही इस बार के भी बिहार विधानसभा चुनाव में लड़ाई सिर्फ ‘विकास’ की नहीं होगी. यहां असल जंग तो ‘कौम’ की ताकत-वर्चस्व की होनी है. बिना किसी यदि किंतु-परंतु के मतलब साफ है कि बिहार विधानसभा चुनाव 2025 भी राज्य के विकास के मुद्दे पर तो नहीं ही लड़ा जाना है. यह चुनाव भी बाकी पिछले चुनावों की तरह ही कौम (ठाकुर, भूमिहार, पंडित, यादव, पिछड़ी जाति) के आधार पर लड़ा जाएगा. सिर्फ मतदाता भर नहीं बल्कि बिहार का घोर ‘कौमी-मतदाता’ तय करेगा कि उसकी जाति-पांति का कौन उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरा है. वह उम्मीदवार सूबे की सरकार में मंत्री-विधायक बनेगा या नहीं. इससे बिहार के मतदाता को उतना सरोकार कतई नहीं होगा. जितना कि मताधिकार का इस्तेमाल करने से पहले बिहार का मतदाता हर बार की तरह इस बार भी यही सोचेगा कि वह जिसे अपना मत देने जा रहा है, क्या वह उम्मीदवार उसकी ‘कौम’ का है या नहीं.
ऐसे ही तमाम सवालों के जवाब के लिए स्टेट मिरर हिंदी के एडिटर ने एक्सक्लूसिव-विश्लेषणात्मक बात की राजधानी पटना में मौजूद बिहार की राजनीति पर पैनी नजर-पकड़ रखने वाले वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार-विश्लेषक मुकेश बालयोगी से. बिहार को समझने के लिए गूगल को सर्च कराना या खंगालना या फिर जेएनयू दिल्ली में मौजूद लोग जो कुछ बताते हैं. सच्चाई उससे कोसों दूर है. बिहार के समझने के लिए पहले बिहार में रहकर बिहार को जीना पड़ेगा. तभी बिहार को समझा जा सकता है. जो बिहार के मूल निवासी हैं वे जानते हैं कि राज्य में ‘कौम-कास्ट’ किस तरह का सोशल इंश्योरेंस (सामाजिक बीमा) है. यहां कौम से ऊपर या उसके नीचे दायें-बाएं और कुछ नहीं है. दूसरे शब्दों में कहें तो बिहार में यहां के मूल निवासी की जाति ही उसकी सबसे बड़ी धरोहर या पहचान है. भारत के बिहार ही ऐसा इकलौता हिंदीवासी राज्य है जिसने हरियाणा, उत्तर प्रदेश या उत्तराखंड-राजस्थान की तरह किसी जाति ने किसी अन्य जाति के वर्चस्व को स्वीकार नहीं किया है.
यूपी, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तराखंड का हाल
उत्तर प्रदेश में तय हो चुका है कि पंडित, राजपूत, यादव और दलित ही राजनीति, समाज और सियासत के इर्द-गिर्द घूमेंगीं घूमेगी. बाकी कौमें इन्हीं कौम के साथ मिलकर चलेंगीं. राजस्थान में राजपूतों का सामाजिक वर्चस्व बरकरार है. तमिलनाडु-कर्नाटक में भी तय हो चुका है कि बस फलां दो तीन जाति का ही वर्चस्व रहेगा. महाराष्ट्र में मराठा और पंडितों के बीच जब वर्चस्व की लड़ाई चली तो वहां तय हो गया, कि वहां हर बाकी जाति मराठाओं के पीछे चलेगी. गुजरात में पटेल-राजपूतों के बीच राजनीतिक और सामाजिक वर्चस्व की लड़ाई में पटेल ही आगे रहे हैं. हालांकि इनके बीच भूले-भटके कभी-कभार कोई नरेंद्र मोदी भी गुजरात की राजनीति में दिखाई दे जाते हैं. मगर इनकी संख्या नगण्य है.
पिछड़ी जातियों के सामने चुनौती
बिहार में जब लोकतांत्रिकीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई तब हमेशा ही इस जातिगत ध्रुवीकरण का दायरा बढ़ता ही गया. जिसकी शुरुआत में राजपूत, पंडित और भूमिहार थे. दायरा बढ़ने के साथ ही इन जातियों में यादव, कुर्मी और कोयरी भी अपने वर्चस्व को बढ़ाने या पहचान देने के लिए सिर उठाने लगे. आज इन सभी को मिला-जुलाकर बिहार में 10-12 जातियां अपने को वर्चस्व की इस लड़ाई में उतार चुकी हैं. इन 10-12 जातियों के अलावा बिहार में जो अन्य पिछड़ी-नीची जातियां बचीं हैं अब उनके सामने अपना वर्चस्व बनाने की लड़ाई खड़ी है. अभी जो कुछ मोकामा विधानसभा सीट का राजनीतिक हाल है. तो जनसुराज पार्टी प्रत्याशी पीयूष प्रियदर्शी, जिनके चुनाव प्रचार काफिले में शामिल बाहुबली बदमाश दुलारचंद यादव मार डाला गया, वह पीयूष प्रियदर्शी तो मोकामा के मूल निवासी ही नहीं है. फिर फिर मगर प्रशांत किशोर ने उन्हें मोकामा विधानसभा सीट पर अनंत सिंह और पूर्व सांसद माफिया डॉन सूरजभान सिंह की प्रत्याशी पत्नी व पूर्व सांसद वीणा देवी के सामने चुनाव मैदान में उतार दिया. आखिर क्यों और कैसे? यह समझने वाली बात है.
मोकामा में जनसुराज पार्टी इसलिए उतरी
पीयूष प्रियदर्शी तो मोकामा से सैकड़ों मील दूर बांका (बिहार) के रहने वाले हैं. वे धानुक जाति के हैं और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से पढ़े हैं. साफ है कि पीयूष प्रियदर्शी और जनसुराज पार्टी के मालिक प्रशांत किशोर ने मोकामा की जातिगत जरूरतों-कमजोरियों और सामाजिक जटिलताओं का अध्ययन जरूर किया होगा. जब मोकामा में प्रशांत किशोर और पीयूष प्रियदर्शी को सामाजिक और जाति के आधार पर चुनाव में सफलता की कोई गुंजाइश नजर आई होगी, तभी पीयूष अपना बांका का इलाका छोड़कर कई सौ मील दूर मोकामा से चुनाव लड़ने पहुंचे होंगे. इससे साफ है कि जनसुराज पार्टी वाले प्रशांत किशोर, पीयूष प्रियदर्शी के कंधे पर चुनावी बंदूक चलाने की आड़ में, मोकामा इलाके में एक नए जातीय ध्रुवीकरण की कोशिशों में जुटे हैं. ताकि मोकामा में भी धानुक जाति का ध्रुवीकरण किया जा सके. कभी इसी मोकामा विधानसभा क्षेत्र को मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सामाजिक विधानसभा समझा जाता था. अगर इस चुनाव में पीयूष प्रियदर्शी मोकामा में कुछ बड़ा या हैरतंगेज कर गुजरते हैं तो यहां से नीतीश कुमार की ताकत का रेत उनके हाथों से फिसलता नजर आने लगेगा.
जाति और उसके वर्चस्व से बढ़कर कुछ नहीं
बिहार में दरअसल बीते कई दशक से सामाजिक वर्चस्व को राजनीतिक वर्चस्व में बदलने की कोशिशें निरंतर जारी हैं. और इस काम के लिए बिहार में ‘जाति-कौम-कास्ट’ की राजनीति एक ऐसा सुरक्षित बीमा है जिसके लिए कोई प्रीमियम नहीं चुकाना है. दुनिया में कहीं भी किसी की पहचान उसके स्कूल, पढ़ाई लिखा व अन्य कामों से होती होगी. मगर बिहार में यहां के मूल निवासियों की पहचान का मूलमंत्र और सबसे मजबूत इकलौता साधन ही उसकी ‘कौम-जाति’ है. बिहार का यह दुर्भाग्य ही है कि यहां के लोगों की जाति उनकी सर्वोपरि पहचान है. यहां के लोगों के दिमाग में जाति की धारणा ही सबसे प्रबल है. चूंकि पिछड़ी जातियां बिहार में हमेशा दुत्कारी ही जाती रही हैं. इसलिए अब बदलते वक्त के साथ उन्हें भी अपने जाति-धर्म उसकी पहचान के वर्चस्व की चिंता सता रही है. राजनीतिक पार्टी हो या फिर कोई सामाजिक दायरा, बिहार के हर बाशिंदे की पहचान का सर्वोत्तम उपाय या साधन उसकी जाति ही है.
जब लालू से नीतीश ने मांगा अपना हक
आप बिहार के मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक, सांसद हैं. बिहार के लोगों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. हां, आप किस जाति से संबंधित हैं यह सबसे पहले देखा जाता है. आपको आपकी जाति और जाति के वर्चस्व के हिसाब से ही इज्जत दी जाएगी. वरना आपका पैसा और उच्च पद सब बेकार है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के बीच जब विचारों के मतभेद के चलते जब अलग होने लगे तो, अपनी पहली सभा में नीतीश कुमार ने लालू से यही कहा था कि, लालू जी सामाजिक दायरे में जो हमारी हिस्सेदारी या हमारा जो शेयर है वह आप हमें दे दीजिए. नीतीश का ऐसा कहने के पीछे मकसद था कि चूंकि वे कुर्मी जाति के हैं तो लालू यादव और उनकी पार्टी अलग होते वक्त कम से कम कुर्मी जाति के लोगों को तो नीतीश कुमार के लिए छोड़ दे. कुर्मियों के ऊपर लालू यादव अपना हक न जताएं. लेकिन लालू से कुर्मियों को मांगते वक्त नीतीश कुमार कुर्मियों से भी कहीं ज्यादा दबी-कुचली पिछड़ी हुई जाति ‘धानुक’ को भूल गए. पूर्व में नीतीश कुमार से उपेक्षित अब आज वही धानुक जाति इस बिहार विधानसभा चुनाव में जनसुराज पार्टी उम्मीदवार पीयूष प्रियदर्शी को जिताकर अपनी जाति का राजनीतिक वर्चस्व बनाने की जद्दोजहद से जूझ रही है.
जीत-हार ‘कौम’ की होगी ‘पार्टी-नेता’ की नहीं
कुल मिलाकर यह तय है कि बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में अपनी अपनी जीत का दावा नीतीश कुमार से लेकर तेजस्वी यादव तक सभी क्यों न कर रहे हों. मगर बिहार में जीतेगा वही जिसे अपनी जाति के मतदाता का समर्थन होगा. मतलब, बिहार की राजनीति में पद पैसा ऊंचा नामदार इंसान नहीं, अपनी कौम वाले व्यक्ति-विशेष की जीत होती है. राहुल गांधी नरेंद्र मोदी या कोई और बड़ा नेता बिहार के मतदाता को बरगला कर किसी गैर-जाति के मतदाता से अपने पक्ष में मतदान करवा लेगा. तो यह असंभव है. ऐसे में यह कहना कि बिहार में किसकी सरकार बनेगी. कौन मुख्यमंत्री होगा. यह सब सवाल अभी एक ‘चुटकले’ से ज्यादा कुछ नहीं है. चुनाव-परिणाम तय करेगा कि किस जाति ने अपने किस प्रतिनिधि को राज्य विधानसभा में चुनकर भेजा है. फिर चाहे वह उम्मीदवार किसी भी जाति का हो. जो कोई जीतकर विधानसभा पहुंचेगा उसे समझिए उसकी कौम-जाति के वोट ने जिताया है. उसकी जीत का श्रेय किसी पार्टी या व्यक्ति विशेष के लिए कतई नहीं जाएगा. क्योंकि बिहार का चुनाव पद-सिंहासन के आधार पर नहीं, जाति-कौम के आधार पर लड़ा जाता है.





