सीमांचल की सियासत: ‘घुसपैठिया’ के शोर के बीच नई आवाज़ें, नया आत्मविश्वास - अल्पसंख्यक समाज का बदलता मिज़ाज
बिहार का सीमांचल इलाका - पूर्णिया, किशनगंज, अररिया और कटिहार - इन दिनों एक नई राजनीतिक चेतना और आत्ममंथन के दौर से गुजर रहा है. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, यहां की मुस्लिम आबादी, जो दशकों से कांग्रेस और आरजेडी के M-Y समीकरण की धुरी रही है, अब “मुख्यधारा बनाम मुस्लिम पार्टी” की नई बहस में सक्रिय है. 2020 में AIMIM की अप्रत्याशित जीत के बाद इस इलाके की राजनीति में एक नया आत्मविश्वास उभरा, जिसने मुस्लिम मतदाताओं को अपनी राजनीतिक पहचान पर पुनर्विचार के लिए प्रेरित किया.
बिहार के उत्तर-पूर्वी छोर पर फैला सीमांचल इलाका - पूर्णिया, किशनगंज, अररिया और कटिहार - एक ऐसा भूभाग है जहां सीमाएं बहुत करीब हैं. पश्चिम बंगाल के रास्ते बांग्लादेश और उत्तर की ओर नेपाल से सटी यह धरती न केवल भौगोलिक रूप से खास है, बल्कि यहां की भाषाएं, धर्म और राजनीतिक समीकरण इसे देश की विविधता का जीवंत उदाहरण बनाते हैं. यहां साइनबोर्ड पर बंगाली में लिखा दिखता है, तो रोज़मर्रा की बातचीत में “खेला” जैसे शब्द आम हैं. स्थानीय लोग ‘सूरजपुरी’ बोलते हैं - एक ऐसी बोली जिसमें हिंदी, उर्दू और बंगाली तीनों की झलक मिलती है.
इडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार सीमांचल के जिलों में मुस्लिम आबादी काफी बड़ी है - पूर्णिया में लगभग 39% से लेकर किशनगंज में करीब 68% तक. यह इलाका लंबे समय तक कांग्रेस और आरजेडी के पारंपरिक M-Y (मुस्लिम-यादव) समीकरण का गढ़ माना जाता था. लेकिन साल 2020 के विधानसभा चुनावों में जब असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM ने सीमांचल की पांच सीटों पर अप्रत्याशित जीत दर्ज की, तो यह समीकरण हिल गया. इन जीतों ने भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को यहाँ बढ़त दिलाने में अहम भूमिका निभाई.
वर्तमान विधानसभा की 24 सीटों में से ओवैसी की पार्टी ने पांच, एनडीए के पास 12 (बीजेपी-8, जेडीयू-4) और महागठबंधन के पास कुल सात सीटें थीं. लेकिन जल्द ही ओवैसी के चार विधायक आरजेडी में शामिल हो गए, जिससे सीमांचल की राजनीति फिर पुराने ढर्रे पर लौटती दिखी.
नई सियासी बातचीत और ‘मुस्लिम पार्टी’ की बहस
सीमांचल आज एक ऐसी जगह है जहां “मुस्लिम पार्टी की ज़रूरत है या नहीं” जैसे कठिन सवाल खुले तौर पर पूछे जा रहे हैं. यहां की मुस्लिम आबादी संख्या के लिहाज़ से आत्मविश्वास रखती है, इसलिए वे खुद को कोने में धकेला हुआ महसूस नहीं करते. यही कारण है कि लोग यहां आरजेडी-कांग्रेस जैसे “सेक्युलर” दलों पर भी सवाल उठाते हैं.
ओवैसी की पार्टी के आने से मुसलमानों को एक विकल्प और आवाज़ मिली है. जबकि प्रशांत किशोर की जन सुराज अभी भी नयेपन के कारण अविश्वसनीय मानी जाती है. इस नए राजनीतिक विकल्प ने स्थानीय मुस्लिम मतदाताओं में बहस की एक नई लहर पैदा की है कि क्या उन्हें अपनी राजनीतिक पहचान के लिए अलग पार्टी चाहिए या फिर मुख्यधारा के साथ बने रहना चाहिए.
‘घुसपैठिया’ का शोर और जमीनी जवाब
बीजेपी की तरफ से चुनावों के दौरान उठाई गई ‘घुसपैठिया’ (अवैध बांग्लादेशी प्रवासी) की थीम सीमांचल में गूंज रही है. लाइन बाज़ार के झंडा चौक पर मनोज कुमार शाह कहते हैं, “यहां तो हर जगह बांग्लादेशी भरे पड़े हैं.” वहीं पास के कब्रिस्तान चौक पर यूनिफॉर्म सिलने वाले कैसर इसका जवाब देते हैं - “अगर कोई विदेशी हमारे इलाके में रहेगा तो हम खुद रिपोर्ट करेंगे. यह हमारी भी ज़िम्मेदारी है.”
मेडिकल क्षेत्र से जुड़े शदाब बताते हैं, “1971 में जब शरणार्थी आए थे, सरकार ने उन्हें बसाया था. वे बंगाली बोलते हैं लेकिन घुसपैठिए नहीं हैं.”
इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकान चलाने वाले सबीर अंसारी कहते हैं, “अगर इतने सालों से मोदी सरकार है, तो फिर ये घुसपैठिए कहां से आए? ये सिर्फ चुनावी मुद्दा है.” मियां बाज़ार के मोहम्मद अफ़ज़ल हुसैन तंज कसते हैं, “ये लोग ‘मुस्लिम’ नहीं कह सकते, इसलिए ‘घुसपैठिया’ कहते हैं. हमें पता है खेल क्या है.”
SIR और मतदाता सूची का विवाद
हाल में चुनाव आयोग द्वारा किए गए Special Intensive Revision (SIR) अभियान में नामों की गड़बड़ी को लेकर लोगों में नाराजगी है. कई जगह लोगों ने कहा, “जो ज़िंदा है उसका नाम काट दिया, जो मर चुका है उसे ज़िंदा कर दिया.” लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इसे लोग जानबूझकर की गई साजिश नहीं, बल्कि प्रशासनिक लापरवाही मानते हैं. अधिकांश का मानना है कि गलतियां सुधारी जाएंगी, और अगर घुसपैठिए हैं तो उन्हें सरकार दिखाए.
‘मुस्लिम पार्टी’ बनाम ‘मुख्यधारा की राजनीति’
बैसी के चाय की दुकान पर चर्चा का विषय है - क्या मुसलमानों को अपनी पार्टी चाहिए या मुख्यधारा में रहना चाहिए? किसान मोहम्मद ग़ियासुद्दीन कहते हैं, “पिछली बार हमने AIMIM को मौका दिया, पर हमारे विधायक तो बाद में RJD में चले गए.” कई लोग मानते हैं कि नीतीश कुमार ने राज्य में विकास किया, लेकिन बीजेपी के दबाव में रहकर अपनी साख खो दी. महंगाई, बेरोजगारी और वक्फ़ क़ानून पर चुप्पी जैसे मुद्दे अब लोगों के मन में नाराज़गी पैदा कर रहे हैं. कांग्रेस, जो राज्य में कमजोर दिखती है, सीमांचल में फिर से मजबूती पा रही है. लोग राहुल गांधी के प्रति सकारात्मक हैं - “वो धर्मनिरपेक्ष बात करते हैं, जातिवादी नहीं हैं.”
अल्पसंख्यक समाज का ‘मुख्यधारा में हिस्सा’
बैसी के मोहम्मद मोइन कहते हैं, “ओवैसी मुसलमानों की बात करते हैं, लेकिन आरजेडी उन्हें प्रतिनिधित्व नहीं देता. जहां यादव प्रत्याशी होते हैं, वहां मुस्लिम वोट भाजपा को चला जाता है.” वार्ड सदस्य असलम सवाल उठाते हैं, “अगर हम अपने हिस्से की सीटें मांग भी लें तो क्या हम अकेले सरकार बना सकते हैं? हमें तो किसी न किसी के साथ ही रहना पड़ेगा.” असलम का तर्क है कि मुख्यधारा की राजनीति में मुसलमानों की भागीदारी ही असली हकीकत और जरूरत है. वह कहते हैं, “बीजेपी 20 साल से नीतीश के साथ सत्ता में रही - क्या मुसलमानों का वोट उसमें नहीं था? लेकिन बीजेपी कभी मुसलमान को टिकट क्यों नहीं देती?” वह चुनौती देते हैं, “अगर बीजेपी मुसलमान को टिकट दे, तो देखिए खेल कैसे बदलता है.”
सीमांचल में आत्ममंथन की नई हवा
किशनगंज के चुरिपट्टी बाजार में कारोबारी सनाउर रशीद कहते हैं, “ओवैसी साहब ने हमें विकल्प दिया, लेकिन उनके समर्थक अक्सर उग्र हो जाते हैं. यह लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है.” बहादुरगंज के एलआरपी चौक पर मोटरसाइकिल गैरेज में काम करने वाले शमशेर आलम कहते हैं, “जो काम बीजेपी ने हिंदुओं के साथ किया, वही गलती हम मुसलमानों को नहीं करनी चाहिए. हमें 2% और 18% की लड़ाई नहीं, बल्कि रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य की बात करनी चाहिए.” वह कहते हैं, “अगर मुसलमान 18% एकजुट होकर मुस्लिम सीएम की मांग करेंगे, तो क्या हमें मंज़ूर होगा कि हिंदू 82% एकजुट होकर वोट करें? हिंदुस्तान की फिज़ा पहले से ही खतरे में है.”
नतीजा जो भी हो, सीमांचल में खुली नई बहस
सीमांचल की जमीन पर आज जो आवाज़ें उठ रही हैं, वे सिर्फ चुनावी मुद्दे नहीं हैं, बल्कि भारत के लोकतंत्र में अल्पसंख्यक समुदाय की भूमिका पर गहरी बहस हैं. चाहे इस बार सीमांचल फिर आरजेडी-कांग्रेस के साथ जाए या ओवैसी की पार्टी को मौका दे, यह साफ़ है कि यहां के मतदाता अब केवल धार्मिक या जातीय समीकरण से नहीं, बल्कि सवाल पूछने की नई चेतना से आगे बढ़ रहे हैं. यह वही सीमांचल है जिसे कभी ‘मुस्लिम बेल्ट’ कहा जाता था, लेकिन आज यही इलाका भारत की राजनीतिक परिपक्वता और आत्ममंथन का प्रतीक बन चुका है.





