बेल लेने का नया हथकंडा या कुछ और... शरजील इमाम लड़ने जा रहे बहादुरगंज से चुनाव, सीमांचल में बदलेगा मुस्लिम पॉलिटिकल इक्वेशन?
जेएनयू के पूर्व छात्र नेता और दिल्ली दंगों के आरोपी शरजील इमाम अब जेल से निकलकर राजनीति की पिच पर उतरने की तैयारी में हैं. उन्होंने बहादुरगंज विधानसभा सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने के लिए अंतरिम जमानत मांगी है. सीमांचल के मुस्लिम बहुल इलाकों में इस कदम से सियासी समीकरण बदल सकते हैं. क्या यह बिहार की राजनीति का नया मोड़ होगा?

दिल्ली दंगों का आरोपी और जेएनयू का पूर्व छात्र नेता शरजील इमाम एक बार फिर सुर्खियों में है. करीब पांच साल से तिहाड़ जेल में बंद शरजील अब बिहार की राजनीति में कदम रखने को तैयार है. उन्होंने दिल्ली की कड़कड़डूमा कोर्ट में 14 दिनों की अंतरिम जमानत की मांग की है, ताकि वे किशनगंज जिले की बहादुरगंज विधानसभा सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में नामांकन कर सकें. यह कदम न सिर्फ कानूनी बल्कि राजनीतिक दृष्टि से भी बड़ा संदेश देता है.
शरजील ने अदालत से 15 से 29 अक्टूबर तक जमानत मांगी है, ताकि वे नामांकन और प्रचार कर सकें. 11 नवंबर को बहादुरगंज में मतदान होना है. दिलचस्प बात यह है कि वे किसी भी राजनीतिक दल से जुड़े बिना चुनाव लड़ना चाहते हैं. यह स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में उनकी पॉलिटिक्स में एंट्री की कोशिश मानी जा रही है. विश्लेषक इसे अल्पसंख्यक राजनीति में नई वैचारिक धारा की शुरुआत बता रहे हैं.
जेल से निकलने की नई रणनीति
शरजील की जमानत की याचिकाएं पहले भी कई बार खारिज हो चुकी हैं. दिल्ली हाईकोर्ट ने उनके भाषणों को 'सांप्रदायिक रूप से भड़काऊ' बताते हुए कहा था कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं हो सकती. अब वे चुनावी वजह का हवाला देकर अदालत के सामने एक नया तर्क लेकर आए हैं- 'जनता के बीच जाकर अपने विचार रखने का अधिकार'. यह कानूनी और राजनीतिक दोनों मोर्चों पर एक जोखिम भरा दांव है.
बहादुरगंज सीट ही क्यों?
शरजील ने बहादुरगंज को अपनी चुनावी जमीन चुना है, जहां करीब 68% मुस्लिम आबादी है. यह सीट परंपरागत रूप से अल्पसंख्यक बहुल और कांग्रेस-एआईएमआईएम जैसी पार्टियों के प्रभाव में रही है. सीमांचल का यह इलाका सामाजिक रूप से पिछड़ा और विकास के पैमाने पर सबसे पिछड़ा माना जाता है. शरजील यहां से 'अल्पसंख्यकों की नई आवाज़' बनकर उभरना चाहते हैं.
सीट का कैसा रहा है इतिहास?
1952 से अब तक बहादुरगंज सीट पर 17 चुनाव हुए हैं, जिनमें 15 बार मुस्लिम उम्मीदवार ही जीते हैं. कांग्रेस को यहां 10 बार जीत मिली है, जबकि आरजेडी जो यादव-मुस्लिम समीकरण पर टिके होने का दावा करती है, कभी यहां जीत नहीं पाई. 2020 में AIMIM के मो. अंजार नईमी ने जीत दर्ज की थी. यही वजह है कि शरजील इस सीट को मुस्लिम राजनीति की प्रयोगशाला मानते हैं.
‘मुस्लिम नैरेटिव’ को लेकर चलने की कोशिश
शरजील का कहना है कि भारतीय राजनीति में मुसलमानों को 'प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व' से आगे नहीं बढ़ने दिया गया. वे कहते हैं, "धर्मनिरपेक्ष राजनीति ने मुस्लिम मुद्दों को हाशिए पर धकेल दिया है. अब वक्त है कि हम अपने मुद्दे खुद तय करें." उनका यह बयान बताता है कि वे खुद को पारंपरिक सेक्युलर और दक्षिणपंथी राजनीति से अलग वैचारिक विकल्प के रूप में पेश करना चाहते हैं.
सीमांचल के मुद्दों पर लड़ेंगे चुनाव
शरजील का दावा है कि बहादुरगंज और सीमांचल क्षेत्र की लगातार सरकारों ने उपेक्षा की है. यह इलाका बाढ़, गरीबी, शिक्षा और रोजगार जैसे मुद्दों से जूझ रहा है. वे कहते हैं कि उनका उद्देश्य सिर्फ जीतना नहीं बल्कि 'शिक्षित मुसलमानों की सक्रिय राजनीति में भागीदारी' को प्रतीकात्मक रूप से दिखाना है. वे खुद को 'शिक्षित बिहारी मुसलमान' के तौर पर प्रस्तुत कर रहे हैं.
कानूनी पेंच अब भी बरकरार
हालांकि, शरजील की चुनावी तैयारी पूरी तरह कोर्ट के फैसले पर निर्भर करती है. यदि कोर्ट उनकी 14 दिन की जमानत अर्जी खारिज करती है, तो उनका चुनाव लड़ना संभव नहीं होगा. वहीं, अगर उन्हें अंतरिम राहत मिलती है, तो सीमांचल की राजनीति में यह सबसे बड़ी खबर साबित हो सकती है. उनके जेल से बाहर आने पर सियासी माहौल में बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है.
विपक्ष और सत्तारूढ़ दलों की नजरें
आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस जैसी पार्टियां इस पूरे घटनाक्रम पर नजर रखे हुए हैं. विशेषज्ञ मानते हैं कि शरजील अगर मैदान में उतरते हैं, तो सीमांचल में मुस्लिम वोटों का बंटवारा तय है, जिसका सीधा असर एआईएमआईएम और आरजेडी जैसे दलों पर पड़ेगा. बीजेपी भी इस स्थिति को 'ध्रुवीकरण के अवसर' के रूप में देख सकती है.
जेल से जनमत तक का सफर
शरजील इमाम की यह कोशिश एक बड़े सामाजिक-राजनीतिक प्रयोग की तरह है. पांच साल जेल में रहने के बाद अगर वे जनता के बीच जाते हैं, तो यह न केवल उनके लिए बल्कि भारत की मुस्लिम राजनीति के लिए भी एक 'टर्निंग पॉइंट' साबित हो सकता है. अदालत क्या फैसला देती है, यह देखने वाली बात होगी, लेकिन इतना तय है कि सीमांचल की सियासत में इस बार मुकाबला सिर्फ वोटों का नहीं, बल्कि 'विचारधारा और पहचान' का भी होगा.