इस बार मौन क्यों हैं उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी, किस चीज का है इंतजार?
बिहार की राजनीति चरम पर होने के बावजूद ‘तीन स्थानीय क्षत्रप’ लंबे अरसे से खामोशी अब खलने लगी हैं. आप सही समझ रहे हैं. मैं सियासी क्षत्रप उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी की बात कर रहा हूं. हालांकि, बीच बीच में ये लोग बयान देते रहते हैं, लेकिन सियासी पहचान के अनुरूप इन नेताओं की चुप्पी वाली मंशा को लेकर अब कई तरह के सवाल उठने लगे हैं. प्रदेश में मतदाता यह पूछने लगे हैं कि ये नेता इस बार क्या करेंगे, खुलकर कुछ बोल नहीं रहे हैं.

बिहार विधानसभा चुनाव नजदीक आते ही प्रदेश की राजनीति गरम हो गई है. गठबंधन बनने और बिगड़ने की संभावना बरकरार हैं. मगर तीन छोटे और अहम दलों ( राष्ट्रीय लोक मोर्चा के उपेंद्र कुशवाहा, हिन्दुस्तानी अवाल मोर्चा के जीतन राम मांझी और विकासशील इंसान पार्टी के मुकेश सहनी) अभी तक चुप्पी साधे बैठे हैं. हालांकि, सहनी ने 65 सीटों की लिस्ट तेजस्वी यादव को सौंपी हैं, लेकिन उन्हें इस बार भी वह पिछली बार की तरह सियासी धोखे की आशंका से ग्रस्त हैं. यही वजह है कि अब चर्चा इस बात की है कि क्या ये कोई रणनीति है या सही मौके का इन नेताओं को इंतजार हैं?
कुशवाहा के मौन में रहने का होता है 'अर्थ'
राष्ट्रीय लोक मोर्चा के मुखिया उपेंद्र कुशवाहा इस समय न तो NDA के मंच पर दिख रहे हैं, न ही विपक्ष के किसी बयान पर टिप्पणी कर रहे हैं. उनके समर्थक इस चुप्पी को "रणनीतिक मौन" बता रहे हैं. कुशवाहा ऐसे समय अक्सर तब बोलते हैं जब डील पक्की हो चुकी होती है. बीते कुछ महीनों में उन्होंने खुद को विकल्प के तौर पर रखा है, न NDA के खिलाफ, न पूरी तरह उसके साथ. ये मौन किसी मजबूत सौदेबाजी की जमीन तैयार कर सकता है.
केंद्रीय मंत्री होना मांझी की बड़ी समस्या
हिन्दुस्तान अवामी पार्टी के संस्थापक और पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी हमेशा से चुनाव के ठीक पहले पाला बदलने की वजह से चर्चा में रहते हैं. इस बार वे NDA का हिस्सा तो हैं, लेकिन BJP या JDU से उनकी बातचीत का कोई ठोस संकेत नहीं आया है. उनकी सबसे बड़ी बाधा इस बार केंद्रीय मंत्री होना है. मांझी का फोकस हमेशा से दलित वोट बैंक पर रहा है. वे देख रहे हैं कि किस गठबंधन में उन्हें बेहतर सीटें और सम्मानजनक जगह मिलेगी. ऐसे में उनका शांत रहना सियासी चाल है, जो आखिरी वक्त में बदल भी सकता है.
पिछड़ों का नेता बनने का सपना या गठबंधन की मजबूरी?
विकासशील इंसान पार्टी के मुखिया मुकेश सहनी भी फिलहाल मीडिया से दूरी बनाकर चल रहे हैं. एक समय BJP के साथ रहे सहनी को बाद में बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था. उसके बाद वे महागठबंधन में भी फिट नहीं हो पाए. अब वे ‘सन ऑफ मल्लाह’ की छवि के जरिए अकेले लड़ने की तैयारी कर रहे हैं या फिर NDA से किसी सम्मानजनक वापसी की कोशिश में हैं. हाल ही में उन्होंने कहा था कि अगर मोदी निषादों को आरक्षण दे दें तो मैं उनके लिए जान भी दे दूंगा. जबकि वो इंडिया गठबंधन के सहयोगी है. यानी सीटों की सौदेबाजी में अपनी चुप्पी को वह एक पावरफुल हथियार मानकर चल रहे हैं. शायद इसी समीकरण में उलझे हैं कुशवाहा, मांझी और सहनी.
बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी मिलकर लड़े थे, लेकिन तेजस्वी यादव ने अंतिम समय में सीट देने से इनकार कर दिया था. उसके बाद हम प्रमुख ने जेडीयू यानी नीतीश कुमार के मिलकर चुनाव लड़ा, जबकि बीजेपी ने मुकेश सहनी को अपनी सीटें देकर चुनाव लड़ाया था. उपेंद्र कुशवाहा बसपा के साथ चुनाव लड़े थे.