बिहार में इस बार युवा नेताओं की बहार, पर जात-पात की बिसात आज भी पुराने ढर्रे पर क्यों?
Bihar Chunav 2025: बिहार की 57 फीसदी आबादी 25 साल के कम उम्र के युवा हैं. इस बार चुनावी मैदान में भी युवा नेताओं की फौज उतर चुकी है, लेकिन प्रदेश के लोगों का दुर्भाग्य यह है कि सत्ता की बिसात पर अब भी वही पुरानी जात-पात की गोटियां चली जा रही हैं. बिहार में आखिर क्यों नहीं टूट पा रही जातिगत गणित की ये जंजीर?

बिहार में एक नई सियासी पीढ़ी का उदय हुआ है. इसमें सम्राट चौधरी, तेजस्वी यादव, चिराग पासवान, प्रशांत किशोर, कन्हैया कुमार, पुष्पम प्रिया, सुमन मांझी जैसे युवा नेता शामिल हैं. इस बार ये सभी चुनावी जंग में ताल ठोक के खड़े हैं. सवाल उठता है, क्या इनका नेतृत्व बिहार की राजनीति को जाति के दायरे से बाहर निकाल पाएगा? या सिर्फ चेहरों की उम्र बदली है, राजनीति के उसूल नहीं? जी हां, सच यही है. इन युवा नेताओं के मैदान में उतरने के बावजूद बिहार की सियासी फिजां में कोई तब्दीली नहीं आई है. जबकि इन युवा नेताओं में कई देश विदेश के अच्छे संस्थानों प्रोडक्ट हैं.
बिहार के युवा नुताओं की चर्चा इसलिए कर रहे हैं कि अब राजनीति की कमान धीरे-धीरे युवा नेताओं के हाथ में आ रही है. तेजस्वी यादव 30 के दशक में ही दो बार डिप्टी सीएम बन चुके हैं. चिराग पासवान खुद को 'बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट' का चेहरा बताते हैं. निखिल मंडल पिछड़ी जाति से हैं और सोशल मीडिया पर युवाओं के बीच काफी पॉपुलर हैं. प्रशांत किशोर शिक्षा, रोजगार और विकास पर जोर देते नजर आते हैं, लेकिन उनका हर भाषण में सबसे ज्यादा जोर जाति पर ही होता है. यही हाल कमोवेश कांग्रेस के युवा नेता कन्हैया कुमार की है. वो तो यहां तक कहते हैं कि बिहार में जाति की बात किए बगैर आप चुनाव लड़ ही नहीं सकते. जबकि वो जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष रह चुके हैं.
दरअसल, बिहार के युवाओं को लगा था कि शायद अब जाति की राजनीति की जगह विकास और रोजगार पर बात होगी, पर युवाओं नेताओं के आने के बाद भी जाति पर जोर ने सभी को निराश किया है. ये बात अलग है कि युवा नेता बिहार के गांवों, कस्बों और बस्तियों में सक्रिय रूप से जनसभाएं और प्रचार कर रहे हैं.
बिहार के चुनावी मैदान में दिखाई दे रहे ज्यादातर युवा नेता 35 से 55 साल की उम्र के हैं, फिर भी बिहार के कई युवा मतदाता इनसे जुड़ाव महसूस करते हैं. उन्हें पुराने राजनेताओं के अपेक्षाकृत नए और ऊर्जावान विकल्प के रूप में देखा जा रहा है, न कि 'फुंका हुआ तीर' (एक खत्म्ख़ हो चुका, बेअसर तीर) या 'चला हुआ खोखा' (गोली का एक खाली, चला हुआ गोला).
न करें उम्मीद, युवा नेता भी वंशवाद की राह पर
अफसोस की बात यह है कि ज्यादा युवा नेता राजनीतिक विरासत के उत्तराधिकारी हैं. पुत्र और पुत्रियां वंशवाद की राह पर ही आगे बढ़ रहे हैं. ऐसी भी अटकलें हैं कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पुत्र निशांत कुमार अपने पिता के स्वास्थ्य को लेकर चिंताओं के कारण चुनाव लड़ सकते हैं. यही हाल चिराग, तेजस्वी, सुमन और पुष्पम प्रिया का है.
तेज प्रताप सोप ओपेरा से कम नहीं
बिहार में लालू प्रसाद यादव के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव से जुड़ा पारिवारिक विवाद किसी प्राइम-टाइम सोप ओपेरा जैसा है. तेज प्रताप ने हाल ही में सोशल मीडिया पर अनुष्का यादव के लिए अपने प्यार का इजहार किया और 12 साल पुराने रिश्ते का दावा किया. जबकि वह अभी भी पूर्व मुख्यमंत्री दरोगा प्रसाद राय की पोती ऐश्वर्या राय से विवाहित हैं. हालांकि बाद में उन्होंने दावा किया कि उनका फेसबुक अकाउंट हैक कर लिया गया था. तस्वीरों से छेड़छाड़ की गई थी, लेकिन लालू ने जवाब में अपने बेटे को राजद से छह साल के लिए निष्कासित कर दिया और कहा कि उनका व्यवहार गैर-जिम्मेदाराना था और उनके कार्य "हमारे पारिवारिक मूल्यों और परंपराओं के अनुरूप नहीं थे."
जात-पात का गेम जिंदा क्यों?
इस सवाल का जवाब बिहार के समाज और उसके इतिहास में छुपा है. बिहार की राजनीति 90 के दशक से ही मंडल-कमंडल के बीच घूमती रही है. लालू राबड़ी राज के बाद भी किसी भी पार्टी ने जातिगत समीकरणों को छोड़कर टिकट नहीं बांटे. हर सीट पर अभी भी पहले जाति देखा जाता है. "यहां कौन-सी जाति का वोटर ज्यादा है?" उसके बाद तय होता है उम्मीदवार.
बदलाव के लिए समाज कितना तैयार?
सवाल सिर्फ नेताओं का नहीं है, जनता का भी है. बिहार में वोटर अब भी 'हमर जात वाला' कहकर वोट देता है. भले उम्मीदवार पर भ्रष्टाचार या क्राइम के आरोपी क्यों न हों.जब समाज खुद जाति को मुख्य मुद्दा मानेगा, तब नेता भी उसी रास्ते पर चलेंगे.
हालांकि, कुछ क्षेत्रों में बदलाव की बयार जरूर दिखी है. जहां युवाओं ने रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य को मुद्दा बनाया है, लेकिन पूरे राज्य की बात करें तो ये बदलाव अभी भी 'शुरुआती हवा' ही है. बिहार की आबादी में 57 प्रतिशत आबादी 25 वर्ष से कम आयु की है. देश में युवाओं का सबसे अधिक अनुपात है. यही वजह है कि युवाओं की यह बढ़ती संख्या राजनीतिक बातचीत को नया रूप देने लगी है.