बेदखली के बुलडोज़र से सीएम हिमंत ने कौन सी ज़मीन साधी? जानें अब तक इस अभियान से सरकार को क्या हासिल हुआ
हिमंत बिस्वा सरमा का बेदखली अभियान असम के इतिहास में एक निर्णायक अध्याय बन चुका है. एक तरफ इसने राज्य को अवैध अतिक्रमण से मुक्त करने का प्रयास किया है, तो दूसरी तरफ यह कदम राजनीतिक ध्रुवीकरण और सांप्रदायिक विभाजन की ज़मीन भी तैयार कर रहा है.
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा की सरकार 2021 से एक आक्रामक बेदखली अभियान चला रही है, जिसका मकसद सरकारी और वन भूमि को अवैध अतिक्रमण से मुक्त कराना है. मुख्यमंत्री के अनुसार, यह अभियान न केवल असम की भूमि और संसाधनों की रक्षा करने की दिशा में एक बड़ा कदम है, बल्कि अवैध प्रवासन से उत्पन्न जनसांख्यिकीय बदलावों पर भी अंकुश लगाने का प्रयास है.
लेकिन यह मुहिम अब केवल एक प्रशासनिक कदम नहीं रही, बल्कि एक संवेदनशील राजनीतिक मुद्दा बन गई है, जिसमें मानवीय अधिकार, सांप्रदायिक पहचान, और चुनावी रणनीति की गूंज सुनाई दे रही है. चलिए जानते हैं अब तक सीएम हिमंत की सरकार ने इस बेदखली अभियान से क्या हासिल किया.
बेदखली अभियान कहां तक पहुंचा?
सरमा सरकार के तहत अब तक 1.5 लाख बीघा (लगभग 50,000 एकड़) भूमि को अतिक्रमण से मुक्त किया जा चुका है. यह अभियान असम के कई जिलों जैसे गोलपारा, कामरूप और डारांग में सरकारी राजस्व भूमि, आरक्षित वन क्षेत्र और जलाशयों पर केंद्रित रहा है. गोलपारा जिले के बांदरमथा रिजर्व फॉरेस्ट में हाईकोर्ट के आदेश के तहत लगभग 2,000 लोगों को हटाया गया, जबकि अगस्त 2025 में गोलाघाट जिले के रेंगा रिजर्व फॉरेस्ट से 4,000 से अधिक निर्माण ढांचे ढहाए गए. राज्य सरकार के आंकड़ों के अनुसार, अब भी लगभग 63 लाख एकड़ भूमि अवैध कब्जे में है. मुख्यमंत्री ने इन अतिक्रमणों के लिए खासकर बांग्लादेश से आए "अवैध प्रवासियों" को जिम्मेदार ठहराया है.
असम की भौगोलिक और सामाजिक पृष्ठभूमि
असम दशकों से बांग्लादेश से अवैध प्रवास के मुद्दे से जूझता रहा है. 1979 में हुए नीलोमणि फुकन के नेतृत्व में शुरू हुए असम आंदोलन से लेकर 1985 के असम समझौते तक, इस क्षेत्र में बाहरी लोगों की उपस्थिति एक राजनीतिक और सांस्कृतिक मुद्दा रही है. हेमंत बिस्वा सरमा का यह अभियान उसी पुराने संघर्ष की एक नई राजनीतिक प्रस्तुति है, जहां 'भूमि' अब अस्मिता और अस्तित्व के सवालों से जुड़ चुकी है.
राजनीतिक निहितार्थ
2026 में होने वाले विधानसभा चुनावों को देखते हुए यह साफ है कि बेदखली अभियान महज प्रशासनिक नहीं, बल्कि राजनीतिक हथियार भी बन चुका है. आलोचकों का आरोप है कि इस अभियान के जरिए सरकार खासकर बंगाली भाषी मुस्लिम समुदाय को निशाना बना रही है, जिन्हें 'बांग्लादेशी' कहकर उनकी वैधता पर सवाल उठाए जा रहे हैं. मुख्यमंत्री सरमा ने खुद कहा है कि '100 में से 99 वोट' कांग्रेस को उन इलाकों से मिलते हैं, जहां 'बांग्लादेशी मूल के मुसलमान' रहते हैं. इससे संकेत मिलता है कि यह अभियान न केवल भू-राजनीतिक रणनीति है, बल्कि मतदाता समीकरण को प्रभावित करने का एक तरीका भी है.
विपक्ष और नागरिक समाज की प्रतिक्रिया
इस अभियान को लेकर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और विपक्षी दलों ने आलोचना की है. प्रसिद्ध अधिवक्ता प्रशांत भूषण और सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने असम सरकार पर 'कानूनविहीन' तरीके अपनाने और नागरिकों को अवैध रूप से बांग्लादेश भेजने का आरोप लगाया है. भूषण का आरोप है कि सरकार कृषि योग्य भूमि को कंपनियों, विशेष रूप से अडानी समूह, को सौंपने की योजना बना रही है.
मानवता बनाम पहचान की लड़ाई
हालांकि सरकार ने यह आश्वासन दिया है कि पक्के मकानों के लिए 10 लाख रुपये तक का मुआवजा दिया जाएगा, लेकिन वास्तविक कार्यान्वयन को लेकर कई सवाल खड़े हो चुके हैं. ज़्यादातर प्रभावित लोगों का दावा है कि उन्हें न तो समय पर नोटिस मिला और न ही वैकल्पिक पुनर्वास की कोई ठोस व्यवस्था की गई. सरकार का दावा है कि केवल 'संदिग्ध नागरिकों' या 'घुसपैठियों' को बेदखल किया गया है, जबकि 'भारतीय नागरिकों' को नहीं छुआ गया है. लेकिन जमीनी हकीकत इससे मेल नहीं खाती. एक तरफ जहां अन्य समुदायों के खिलाफ हुई बेदखलियों को लेकर कोई खास जनचर्चा नहीं हुई, वहीं मुस्लिम बहुल इलाकों में हुए अभियानों ने बड़े पैमाने पर सामाजिक तनाव पैदा किया है.
राष्ट्रीय सुरक्षा और बाहरी हस्तक्षेप की बातें
24 अगस्त को सरमा ने आरोप लगाया कि 'पाकिस्तान और बांग्लादेश के तत्व', कांग्रेस, जमात-ए-इस्लामी, और कुछ कार्यकर्ता असम को कमजोर करने की साजिश कर रहे हैं. उनका कहना है कि ये समूह बेदखलियों को एक 'मानवीय संकट' के रूप में दिखाकर असम के 'भारतीय स्वरूप' को मिटाने की कोशिश कर रहे हैं. केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने भी समर्थन करते हुए कहा कि 'अगर असम जनसांख्यिकीय रूप से असुरक्षित हो जाता है, तो उत्तर-पूर्व के बाकी राज्य शारीरिक रूप से खतरे में पड़ जाएंगे.'





