मुग़ल शाही रसोई या मराठा दरबार की देन? क्या है चांदी से लिपटी बर्फी काजू कतली का इतिहास
अब सवाल ये उठता है कि असली आविष्कारक कौन था? मराठों की कहानी हमें पाककला की जिज्ञासा और प्रयोगशीलता दिखाती है, जबकि मुगलों की दास्तान इस मिठाई को स्वतंत्रता और राजनीति से जोड़ देती है. दोनों ही कथाओं में दम है और दोनों ही मीठी लगती हैं.
अगर आपने कभी 'विविधता में एकता' देखनी हो, तो किसी त्योहार पर काजू कतली का डिब्बा खोलकर देख लीजिए. जैसे ही वह डिब्बा खुलता है, घर का हर कोना जीवंत हो उठता है. बच्चे हों या बड़े, सबकी नज़रें सिर्फ़ उन चमचमाती, चाँदी की वर्क से ढकी पतली परतों पर टिक जाती हैं. हर कोई चाहता है कि कम से कम एक टुकड़ा तो उसकी प्लेट में आ ही जाए.
यही है काजू कतली का जादू मुंह में घुल जाने वाला स्वाद और मिठास का ऐसा स्वाद, जो इसे भारत की सबसे पसंदीदा मिठाइयों में शुमार करता है. लेकिन, इस मीठी कहानी का इतिहास उतना सरल नहीं है जितना इसका स्वाद. इसकी उत्पत्ति को लेकर अलग-अलग दावे हैं, कहीं मराठा रसोइयों का ज़िक्र आता है, तो कहीं मुगलों के शाही किचन का..आइए, इस परत-दर-परत मीठी कहानी को जानने की कोशिश करें.
मराठा रसोई में जन्मी मीठी गलती या बड़ा आविष्कार?
माना जाता है कि 16वीं शताब्दी में मराठों के दरबार में एक रसोइया, भीमराव, अक्सर नई-नई रेसिपी बनाने के प्रयोग करता रहता था. उस समय 'हलवा-ए-फ़ारसी' नाम का एक पारसी मिठाई बहुत प्रसिद्ध थी, जो बादाम और चीनी से बनती थी. भीमराव ने सोचा क्यों न बादाम की जगह किसी और मेवे का इस्तेमाल किया जाए?. उसी दौर में पुर्तगाली व्यापारी काजू को भारत में लेकर आए थे और गोवा समेत पश्चिमी तट पर इसकी खेती शुरू हो चुकी थी. भीमराव ने बादाम की जगह काजू पीसकर मिठाई बनाने की कोशिश की. नतीजा सामने आया एक बेहद मुलायम, रेशमी और स्वादिष्ट व्यंजन. जब इसे पतली परतों में काटा गया, तो इसका नाम पड़ा- काजू कतली यानी काजू का टुकड़ा. मराठा राजघरानों को यह मिठाई इतनी पसंद आई कि यह जल्द ही महलों की शोभा बन गई और धीरे-धीरे आम जनता तक भी पहुंच गई. हालांकि मजेदार तथ्य यह है कि काजू भारत के मूल निवासी नहीं हैं. इन्हें पुर्तगालियों ने 16वीं सदी में लाकर भारत की मिट्टी से मिलवाया. यानी अगर पुर्तगाली व्यापारी काजू न लाते, तो शायद हम आज काजू कतली का स्वाद भी न चख पाते.
मुगलों की कहानी में आज़ादी और मिठास का संगम
काजू कतली की दूसरी कहानी उतनी ही रोमांचक और ऐतिहासिक है. कहा जाता है कि 1619 के आसपास बादशाह जहांगीर ने ग्वालियर किले में कई सिख शासकों को कैद कर रखा था, जिनमें छठे गुरु, गुरु हरगोविंद भी शामिल थे. गुरु हरगोविंद जी ने चतुराई से कैदियों को आज़ाद करवाया. उन्होंने एक खास कपड़ा बनवाया जिसमें 52 पल्लू लगे थे, ताकि हर कैदी उस पल्लू को पकड़कर उनके साथ बाहर निकल सके. दिवाली के दिन, वे सभी कैदियों को साथ लेकर स्वतंत्रता की ओर निकल पड़े. इस घटना को आज भी 'बंदी छोड़ दिवस' के रूप में मनाया जाता है. कहते हैं कि इस शुभ अवसर को यादगार बनाने के लिए जहांगीर के शाही बावर्चियों ने काजू, चीनी और घी से एक खास मिठाई तैयार की. यही मिठाई आगे चलकर 'काजू कतली' कहलाने लगी.
असली क्रेडिट किसे?मराठा या मुग़ल
तो अब सवाल ये उठता है कि असली आविष्कारक कौन था? मराठों की कहानी हमें पाककला की जिज्ञासा और प्रयोगशीलता दिखाती है, जबकि मुगलों की दास्तान इस मिठाई को स्वतंत्रता और राजनीति से जोड़ देती है. दोनों ही कथाओं में दम है और दोनों ही मीठी लगती हैं. असल में, शायद यही काजू कतली का आकर्षण है इसकी असली उत्पत्ति चाहे जहां भी हो, इसने भारत की संस्कृति और परंपरा में गहरी जगह बना ली है. आज काजू कतली सिर्फ़ मिठाई नहीं रही, यह एक भावनात्मक जुड़ाव है. चाहे शादी हो, त्योहार हो या कॉर्पोरेट गिफ्ट काजू कतली हमेशा डिब्बे की पहली पसंद होती है. इसका हीरे जैसा आकार केवल देखने में सुंदर नहीं लगता, बल्कि यह इसकी खास पहचान भी है.





