क्या है बंगाल का अपराजिता महिला एवं बाल सुरक्षा विधेयक 2024 जिसे राज्यपाल ने लौटाया?
बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों पर सख्त कार्रवाई की दिशा में पश्चिम बंगाल सरकार की पहल को फिलहाल विराम लग गया है. साल 2024 में पारित किए गए ‘अपराजिता महिला और बाल (पश्चिम बंगाल आपराधिक कानून संशोधन) विधेयक’ को मंजूरी से पहले ही राज्यपाल ने राज्य सरकार के पास दोबारा समीक्षा के लिए भेज दिया है.

पश्चिम बंगाल में बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों के खिलाफ सख्त कानून लाने के प्रयास को फिलहाल झटका लगा है. राज्यपाल सी.वी. आनंद बोस ने ‘अपराजिता महिला और बाल (पश्चिम बंगाल आपराधिक कानून संशोधन) विधेयक’ को राज्य सरकार को पुनर्विचार के लिए लौटा दिया है. यह विधेयक सितंबर 2024 में विधानसभा में पारित हुआ था और इसमें बलात्कार के दोषियों को उम्रभर जेल या मृत्युदंड की सजा देने का प्रावधान किया गया था, जो वर्तमान में न्यूनतम 10 साल की सजा है.
सूत्रों के मुताबिक, केंद्र सरकार ने इस विधेयक के कुछ संशोधनों पर गंभीर आपत्तियां जताई हैं, खासतौर पर भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धाराओं से जुड़े बलात्कार के सजा संबंधी प्रावधानों पर. इन्हीं चिंताओं के चलते राज्यपाल ने यह विधेयक मंजूरी देने के बजाय विचार-विमर्श के लिए वापस भेज दिया है. ऐसे में चलिए जानते हैं क्या है अपराजिता बिला?
क्या है अपराजिता विधेयक?
अपराजिता विधेयक कोई सामान्य विधेयक नहीं था. यह उन अपराधियों के लिए कड़ा संदेश था जो बलात्कार और यौन हिंसा जैसे अपराध करते हैं. इसके प्रमुख प्रावधानों में से कुछ इस प्रकार थे:
- बलात्कार पर मृत्युदंड: यदि बलात्कार की शिकार महिला की मौत हो जाए या वह अचेत अवस्था में चली जाए, तो दोषी को मृत्युदंड तक की सजा मिल सकती है.
- दोहराए गए अपराधों पर आजीवन कारावास: यदि कोई अपराधी बार-बार वही अपराध करता है, तो उसके लिए उम्रकैद या परिस्थिति अनुसार मृत्युदंड का प्रावधान है.
- तेज और समयबद्ध न्याय: जांच को 21 दिनों में और सुनवाई को 30 दिनों में पूरा करने का निर्देश दिया गया, ताकि पीड़ित को वर्षों तक न्याय की राह न ताकनी पड़े.
ढांचे में बदलाव
राज्य सरकार जानती थी कि सिर्फ कानून कड़ा करने से कुछ नहीं होगा, जब तक व्यवस्था साथ न दे. इसलिए विधेयक में कई संस्थागत सुधार भी प्रस्तावित किए गए. 52 स्पेशल फास्ट-ट्रैक अदालतें बनाई जाएंगी ताकि यौन अपराधों के मामलों को जल्द निपटाया जा सके. 'अपराजिता टास्क फोर्स' का गठन हर जिले में किया जाएगा, जिसमें एक पुलिस उपाधीक्षक नेतृत्व करेगा. पीड़िता की गोपनीयता और सम्मान सुनिश्चित करने के लिए विशेष प्रावधान रखे गए हैं.
जवाबदेही तय: लापरवाही की कोई जगह नहीं
सरकार ने यह साफ कर दिया कि अब लापरवाही को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. यदि कोई पुलिस अधिकारी या चिकित्सक समय पर कार्रवाई नहीं करता या सबूतों से छेड़छाड़ करता है, तो उन्हें दंडित किया जाएगा. साथ ही, अदालत में चल रही कार्यवाही की अनधिकृत रिपोर्टिंग पर भी 3 से 5 साल की सजा का प्रावधान है, ताकि पीड़िता की गरिमा बनी रहे.
इस बिल की चुनौतियां
हर कहानी में कुछ अड़चनें होती हैं और अपराजिता विधेयक भी इससे अछूता नहीं है. भारत का संविधान कहता है कि अपराध और दंड जैसे विषय समवर्ती सूची में आते हैं, यानी इस पर राज्य और केंद्र दोनों कानून बना सकते हैं, लेकिन अगर राज्य का कानून केंद्रीय कानून से टकराता है, तो उसे राष्ट्रपति की मंजूरी लेनी होती है. इसीलिए विधेयक की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठे हैं.
क्या 21 दिन में जांच संभव है?
गवाहों के बयान, मेडिकल रिपोर्ट, फॉरेंसिक साक्ष्य आदि के कारण बलात्कार जैसे गंभीर मामलों की जांज में समय लगता है. ऐसे में 21 दिन की समय-सीमा अवास्तविक मानी जा रही है, खासकर जब पहले से अदालतों में लाखों केस लंबित हैं.
क्या न्यायपालिका इस बदलाव को स्वीकार करेगी?
भारत की न्यायपालिका पहले भी ऐसे प्रयासों को खारिज कर चुकी है. 1964 में सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल के भूमि सुधार अधिनियम को केंद्रीय कानून के खिलाफ बताकर रद्द कर दिया था. 1960 में मध्य प्रदेश के एक कृषि कानून को इसी कारण रद्द किया गया था. इसका मतलब है कि अगर अपराजिता विधेयक केंद्रीय कानूनों से टकराता है, तो वह न्यायिक समीक्षा की कसौटी पर खरा उतरना होगा.