'जितनी आबादी, उतना हक'... राहुल गांधी के सुर में सुर मिला रहे बीजेपी के ये सीएम, ओबीसी आरक्षण पर संग्राम
मध्यप्रदेश की बीजेपी सरकार ने ओबीसी आरक्षण 14% से बढ़ाकर 27% करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में मामला दाखिल किया है. राज्य की जनसंख्या में ओबीसी 51% है, जबकि SC 15.6% और ST 21.1% हैं. सरकार का कहना है कि मौजूदा आरक्षण असंतुलित और सामाजिक न्याय के खिलाफ है. दिलचस्प बात यह है कि यह तर्क कांग्रेस और राहुल गांधी के “जितनी आबादी, उतना हक़” के एजेंडे से मेल खाता है. मामला न सिर्फ कानूनी बल्कि पूरे देश की आरक्षण नीति के लिए निर्णायक हो सकता है.

मध्यप्रदेश की राजनीति में एक दिलचस्प मोड़ तब आया जब मुख्यमंत्री मोहन यादव के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) के लिए आरक्षण 14% से बढ़ाकर 27% करने का मामला सुप्रीम कोर्ट में रखा. यह वही तर्क है जिसे कांग्रेस नेता राहुल गांधी लंबे समय से उठा रहे हैं - “जितनी आबादी, उतना हक़”, यानी जितनी हिस्सेदारी जनसंख्या में, उतनी ही हिस्सेदारी सत्ता और अवसरों में.
बीजेपी सरकार का यह कदम न सिर्फ कांग्रेस के सामाजिक न्याय के एजेंडे से मेल खाता है, बल्कि यह भारत की आरक्षण नीति को लेकर एक नया राजनीतिक विमर्श भी खड़ा कर रहा है.
सुप्रीम कोर्ट में मामला: 50% की सीमा पर सीधा हमला
23 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामे में मध्यप्रदेश सरकार ने कहा कि राज्य में ओबीसी की आबादी 51% से ज्यादा है, जबकि अनुसूचित जाति (SC) 15.6% और अनुसूचित जनजाति (ST) 21.1% हैं. कुल मिलाकर, ये तीनों वर्ग राज्य की 87% से अधिक आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं. सरकार ने कहा कि “इतनी बड़ी जनसंख्या को मात्र 14% आरक्षण देना न सिर्फ असंतुलित है, बल्कि यह सामाजिक न्याय की मूल भावना के भी खिलाफ है.” राज्य ने इसे “संवैधानिक रूप से अनिवार्य सुधारात्मक कदम” बताया और कहा कि यह ऐतिहासिक अन्याय को ठीक करने की दिशा में जरूरी कदम है. सरकार ने अपने तर्क में कहा कि ओबीसी समाज अब भी शिक्षा, आय और सामाजिक अवसरों में पिछड़ा है. कई समुदाय आज भी दूरदराज़ इलाकों में रहते हैं और राष्ट्रीय जीवन की मुख्यधारा से कटे हुए हैं.
पृष्ठभूमि: महाजन आयोग से लेकर कोर्ट की रोक तक
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश में ओबीसी आरक्षण की जड़ें बहुत पुरानी हैं. 1983 में महाजन आयोग ने राज्य में 35% आरक्षण की सिफारिश की थी, जिसमें आय, शिक्षा और सामाजिक पिछड़ेपन के संकेतकों का अध्ययन किया गया था. 2003 में दिग्विजय सिंह की कांग्रेस सरकार ने भी इसी दिशा में डेटा एकत्र किया. इसके बाद 2019 में बीजेपी सरकार ने मध्यप्रदेश लोक सेवा अधिनियम में संशोधन करते हुए ओबीसी कोटा 27% करने का अध्यादेश पारित किया.
लेकिन 2022 में हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगा दी - हालांकि यह रोक केवल मेडिकल शिक्षा तक सीमित थी. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को अपने पास स्थानांतरित कर लिया और स्वतः संज्ञान लेकर सुनवाई शुरू की. सरकार ने बताया कि 12 विभागों में भर्तियां इस वजह से रुकी हुई हैं और 13% पद खाली पड़े हैं. हलफनामे में कहा गया, “राज्य को अपूरणीय क्षति हो रही है, यदि राहत नहीं मिली तो भर्ती प्रक्रिया प्रभावित होती रहेगी.”
बीजेपी की दलील और राहुल गांधी की लाइन में समानता
दिलचस्प यह है कि मध्यप्रदेश सरकार का तर्क लगभग वही है जो राहुल गांधी और कांग्रेस लंबे समय से उठा रहे हैं. राहुल गांधी लगातार कहते रहे हैं कि देश में आरक्षण की 50% की सीमा हटाई जानी चाहिए और जातीय जनगणना कराई जानी चाहिए ताकि “जितनी आबादी, उतना हक़” लागू हो सके. सितंबर 2023 में कांग्रेस वर्किंग कमेटी (CWC) की बैठक में पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की अध्यक्षता में एक प्रस्ताव पारित हुआ था जिसमें आरक्षण की सीमा बढ़ाने और 50% की कैप खत्म करने की मांग की गई थी.
राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव से पहले और विपक्ष के नेता बनने के बाद कई बार संसद में यह मुद्दा उठाया. उन्होंने कहा कि कांग्रेस सत्ता में आई तो 50% की सीमा हटाकर “वास्तविक सामाजिक प्रतिनिधित्व” लागू करेगी. अब जब बीजेपी की मध्यप्रदेश सरकार वही बात सुप्रीम कोर्ट में रख रही है, तो यह भारतीय राजनीति में एक नया संगम दर्शाता है - जहां सत्तारूढ़ दल और विपक्ष दोनों एक ही सामाजिक न्याय के सूत्र पर खड़े दिखाई देते हैं.
अध्ययन से साबित हुआ असंतुलन
सरकार ने अपने पक्ष को मजबूत करने के लिए डॉ. भीमराव अंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय की 2023 की रिपोर्ट का हवाला दिया. रिपोर्ट में कहा गया कि “ओबीसी समाज की जनसंख्या और सरकारी प्रतिनिधित्व में भारी असमानता है. वे आज भी सामाजिक रूप से पिछड़े हैं, भेदभाव और बहिष्कार का सामना करते हैं.” इस रिपोर्ट के अनुसार, 14% आरक्षण से ओबीसी वर्ग का वास्तविक उत्थान नहीं हो पाया है. सरकार का दावा है कि 27% आरक्षण डेटा और सामाजिक साक्ष्यों पर आधारित “वास्तविक न्याय” की दिशा में कदम है.
राजनीतिक मायने और भविष्य की दिशा
यह मामला सिर्फ मध्यप्रदेश का नहीं, बल्कि पूरे देश की आरक्षण नीति के लिए निर्णायक साबित हो सकता है. 1992 के इंद्रा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% तय की थी, लेकिन अब कई राज्य - जैसे तमिलनाडु और महाराष्ट्र - इस सीमा को तोड़ने की कोशिश कर चुके हैं. यदि सुप्रीम कोर्ट मध्यप्रदेश सरकार के पक्ष में फैसला देती है, तो यह अन्य राज्यों के लिए भी नया मार्ग खोल सकता है. राजनीतिक रूप से यह कदम बीजेपी के लिए भी फायदेमंद हो सकता है क्योंकि ओबीसी वर्ग उसका सबसे बड़ा वोट बैंक है. वहीं कांग्रेस यह दावा करेगी कि बीजेपी ने अंततः “हमारी नीति” को अपनाया है और यह कांग्रेस की वैचारिक जीत है.
बीजेपी का रुख: ‘कानून और तर्क दोनों हमारे साथ’
बीजेपी प्रवक्ता आशीष अग्रवाल ने कहा, “कांग्रेस कई वर्षों तक सत्ता में रही लेकिन उसने किसी वर्ग के साथ न्याय नहीं किया. अब मामला सुप्रीम कोर्ट में है और हमें न्यायपालिका पर भरोसा है. हमें उम्मीद है कि अदालत मध्यप्रदेश में ओबीसी के लिए 27% आरक्षण को मंजूरी देगी.” उनके बयान से स्पष्ट है कि बीजेपी इस मुद्दे को कानूनी और संवैधानिक तरीके से “सामाजिक न्याय” की उपलब्धि के रूप में पेश करना चाहती है.
सामाजिक न्याय बनाम राजनीतिक समीकरण
मध्यप्रदेश का ओबीसी आरक्षण विवाद अब सिर्फ एक कानूनी मसला नहीं, बल्कि भारत की सामाजिक संरचना का प्रतिबिंब बन गया है. जब बीजेपी और कांग्रेस दोनों एक ही सामाजिक न्याय की भाषा बोलने लगें - तो यह संकेत है कि राजनीति अब जनसंख्या के अनुपात पर प्रतिनिधित्व की ओर बढ़ रही है. अब निगाहें सुप्रीम कोर्ट पर हैं - क्या वह 50% की सीमा को कायम रखेगा या समय के बदलते सामाजिक समीकरणों के साथ इस बंधन को तोड़ेगा? जो भी फैसला आए, यह भारत में आरक्षण की राजनीति का एक नया अध्याय जरूर लिखेगा.