पहले विरोध अब संतुलन: नरम क्यों पड़ीं ममता, SIR को लेकर क्यों बदला रुख? जानें वजह
पश्चिम बंगाल में मतदाता सूची की SIR प्रक्रिया को लेकर ममता बनर्जी पहले सख्त विरोध में थीं, लेकिन अब उनका रुख संतुलित होता दिख रहा है. उन्होंने विरोध जारी रखा है लेकिन उसे कानूनी, संवैधानिक और संवेदनशील तरीके से पेश करने की कोशिश में जुटी हैं. आखिर, इसके पीछे क्या है राजनीतिक, प्रशासनिक और चुनावी गणित है.
पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने प्रदेश में एसआईआर (SIR) प्रक्रिया का शुरुआती दिनों में खुल्लम खुल्ला विरोध किया था. उन्होंने यहां तक कहा था कि अगर एसआईआर में एक भी वोट कटे तो केंद्र की सरकार गिर जाएगी. यह backdoor National Register of Citizens (NRC) है. इससे पश्चिम बंगाल की पहचान व संवैधानिक अधिकारों को खतरा है, लेकिन केंद्र सरकार, चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट के रुख को देखते हुए अब सीधा विरोध न कर संतुलित दृष्टिकोण अपना रही है. यही वजह है कि वह अब एसआईआर के खिलाफ कानूनी जंग ज्यादा लड़ रही हैं.
दबाव की राजनीति नहीं आया काम
जबकि चुनाव आयोग द्वारा 4 नवंबर 2025 को बंगाल सहित 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में एसआईआर प्रक्रिया शुरू होते ही उन्होंने SIR को मतदाताओं के लिए अनियोजित, अव्यवस्थित और खतरनाक प्रक्रिया बताया था. उन्होंने आरोप लगाए कि एसआईआर के तहत काम करने वाले लोगों को प्रशिक्षण और इसकी तैयारी के लिए पर्याप्त समय नहीं दिया है. उन्होंने कहा था कि बंगाल में मतदाता सूची संशोधन के डर से नागरिक असुरक्षित महसूस कर रहे थे. खासकर कमजोर तबकों और BLO (Booth Level Officer) से जुड़ी शिकायतें, गलतियों व मृत्युदर की खबरों ने डर का माहौल बना दिया था. .
इतना ही नहीं, SIR के खिलाफ बांग्लादेश की सीमा से सटे उत्तर 24 परगना जिले के बनगांव में मतुआ समुदाय के गढ़ में एक रैली को संबोधित करते हुए ममता ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 2024 में इसी वोटर लिस्ट के हिसाब से वोट मिले. इससे पहले ममता ने इस माह की शुरुआत में चार नवंबर को राज्य में SIR की प्रक्रिया शुरू होने के दिन इसके खिलाफ तृणमूल द्वारा कोलकाता में आयोजित तीन किलोमीटर लंबे पैदल मार्च का नेतृत्व किया था. इससे भी बात बनीं तो उन्होंने चुनाव आयोग को चिट्ठी लिखकर एसआईआर रोकने की मांग की थी, लेकिन चुनाव आयोग ने उनकी मांग को खारिज कर दिया था. सुप्रीम कोर्ट तक मामला पहुंचा, जहां याचिका पर सुनवाई जारी है.
ममता नरम कैसे हुई?
इस बीच पश्चिम बंगाल बीजेपी नेताओं कहना शुरू कर दिया कि अगर एसआईआर समय से पूरी नहीं हुई तो प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग सकता है. ऐसे चुनाव टल सकता है और राष्ट्रपति शासन के बीच ही चुनाव संपन्न होंगे.
टीएमसी विधायक हुमायूं कबीर ने आरोप लगाया कि ममता बनर्जी पर अपने भतीजे को अभिषेक बनर्जी को राजा बनाने चाहती हैं. वह 6 दिसंबर को अपने विधानसभा क्षेत्र में बाबरी मस्जिद की आधारशिला रखने का भी एलान किया था. और अब उन्होंने कहा कि 2026 में ममता बनर्जी सीएम नहीं बनेंगी. इतना ही नहीं हुमायूं कबीर ने इससे पहले अलग पार्टी बनाने का भी एलान किया था.
इन बातों को ध्यान में रखते हुए ममता बनर्जी SIR को पूरी तरह से बंद करने या अस्वीकार करने की बजाय संवेदनशीलता, नियंत्रण और सावधानी का मिश्रित रुख अपना लिया. इस कदम को कई विश्लेषक तर्कसंगत संतुलन कह रहे हैं. यानी उनका विरोध जारी है पर उसकी धार कुंद हो गई है. अब वो एसआईआर को रोकने की बात नहीं कर रही हैं.
इसके पीछे डर क्या है?
1. अगर ममता सरकार ने SIR को पूरी तरह रोकने की कोशिश की तो यह संवैधानिक प्रक्रिया या निर्वाचन आयोग पर आक्रमण माना जा सकता है, जो राजनीतिक व कानूनी मुसीबत खड़ी कर सकता है. इस सियासी सच्चाई ने ममता बनर्जी को नरम रुख को बेहतर विकल्प बना दिया, जिससे सत्तास्थापन या प्रशासनिक कार्रवाई का खतरा न हो.
2. बंगाल में मतदाता-सूची संशोधन रुकने से वोटरों के ड्रॉ में गलत पक्षपात या फर्जी वोट का आरोप लगना आसान हो जाता है, जिससे TMC को मत-बैंक पर खतरा हो सकता है. इसलिए, ममता ने टकराव के बजाय सहयोग और निगरानी का रास्ता चुना है.
2021 में कैसा रहा था चुनाव परिणाम
साल 2021 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने खेला होबे का नारा देकर बीजेपी को 77 सीटों (38 परसेंट वोट) पर रोक दिया था. टीएमसी 48 परसेंट वोटों के साथ 215 सीटें जीतने में सफल साबित हुई थी. 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 12 सीटें जीतकर और वोट शेयर 38.7% तक पहुंचाकर साफ संकेत दे दिया था कि हिंदू मतदाताओं में असंतोष बढ़ रहा है. ऐसे में SIR के चलते अगर अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों को निशाना बनाया जाता है तो यह तय है कि TMC के वोट बैंक को नुकसान होगा.
बंगाल में मतदाता सूची हमेशा से विवादित
पश्चिम बंगाल में मतदाता सूची हमेशा से विवादास्पद रही है. यह समस्या 1970 के दशक से चली आ रही है. उस समय बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के बाद लाखों शरणार्थी अवैध रूप से राज्य में आकर बस गए. CPM सरकार (1977-2011) ने इन्हें वोट बैंक बनाया.
SIR 2002 में कटे थे 28 लाख नाम
साल 2002 के आखिर में SIR के तहत 28 लाख नाम हटे थे. बीजेपी नेताओं का कहना है कि तब ममता ने इसका स्वागत किया था. जाहिर है कि ममता बनर्जी ने धीरे-धीरे सीपीएम के वोटर्स पर कब्जा कर लिया, जो लोग पहले सीपीएम के लिए काम करते थे अब वो ममता बनर्जी के लिए काम करने लगे हैं.
तय है अब बीजेपी चाहती है एसआईआर के तहत अवैध वोटरों के नाम हटाए जाएं. ममता कतई नहीं चाहती कि ऐसा हो. एसआईआर अब बीजेपी के लिए बंगाल में हथियार है. पर जिस तरह 2002 में ममता को अवैध वोटर्स को हटाने के समर्थन के नाम पर सहानुभूति मिली थी वो इस बार बीजेपी के साथ भी हो सकता है. यहीं पर आकर ममता बनर्जी सियासी जोड़ तोड़ में फंसती नजर आ रही हैं.
चुनाव आयोग ने SIR को 1950 के प्रतिनिधित्व कानून के तहत चलाया है, ताकि डुप्लिकेट, मृत और अवैध नाम हटें. बिहार के पहले चरण में 8 करोड़ वोटरों की जांच हुई, और कई अवैध नाम पकड़े गए. बंगाल में, सीमावर्ती जिलों (मुर्शिदाबाद, मालदा, उत्तर दिनाजपुर) में अवैध बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा पुराना है. SIR से हजारों अवैध प्रवासी हाकिमपुर बॉर्डर पर भागते दिख रहे हैं. साफ है बंगाल में बड़े पैमाने पर अवैध बांग्लादेशी घुसे हुए हैं.
अगर SIR से 20-30 लाख नाम हटे, तो TMC के 85-90% मुस्लिम वोट प्रभावित होंगे. साल 2011 जनगणना में बंगाल में मुस्लिम 27%, लेकिन अनुमानित 31-33% अब. मुस्लिम-बहुल जिलों (मुर्शिदाबाद 70%, मालदा 55%) में TMC को 90% वोट मिलते हैं. SIR की प्रक्रिया में इन क्षेत्रों में अवैध नाम हटेंगे, जो TMC के लिए घातक है.
मतुआ किसके साथ?
मतुआ समुदाय (बांग्लादेशी हिंदू शरणार्थी) CAA के चलते BJP की ओर खिसक चुका है. क्योंकि ममता बनर्जी बार-बार कहती हैं कि वो राज्य में सीएए लागू नहीं होने देंगी. जाहिर है कि SIR मतुआ वोटरों को वैध बनाएगा, लेकिन अवैध मुस्लिम नाम हटाने से TMC को नुकसान होगा. ऐसा होने पर सीमावर्ती जिलों में TMC को कम से कम 100 सीटों पर नुकसान होने की संभावना है. BJP की रणनीति भी यही है कि SIR को हथियार बनाकर मिशन 160 प्लस का नारा दिया जाए.
पश्चिम बंगाल के पुराने बाशिंदे, चाहे मुस्लिम हों या हिंदू, बाहर से आने वाले लोगों को अपना हक मारते उन्हें भी अच्छा नहीं लगता. हिंदू भी पाकिस्तान से आए हिंदुओं को पसंद नहीं करते हैं. पिछले साल राजस्थान में पाकिस्तान से आए हिंदू प्रवासियों के साथ लोकल हिंदू समुदाय ने बुरा बर्ताव किया था. बाहर से आने वाले हिंदुओं का भी आरोप रहा है कि लोकल्स ने उन्हें संसाधनों का हिस्सा देने से मना किया, जिससे कई वापस पाकिस्तान लौट गए.





