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प्रोसेस का हिस्सा नहीं तो जिम्मेदार कैसे? बंगाल में वोटर डिलीशन पर बवाल, अफसरों ने मुख्य चुनाव अधिकारी को लिखी चिट्ठी

पश्चिम बंगाल में चल रही Special Intensive Revision (SIR) प्रक्रिया के दौरान मतदाता सूची से लाखों नाम हटने की आशंका ने बड़ा विवाद खड़ा कर दिया है. राज्य सेवा अधिकारियों ने आरोप लगाया है कि मतदाता हटाने के नोटिस एक केंद्रीकृत सिस्टम से जारी हो रहे हैं, जबकि वैधानिक रूप से यह अधिकार Election Commission of India के अधीन काम करने वाले Electoral Registration Officers का है. अफसरों का कहना है कि उन्हें प्रक्रिया से अलग रखकर जवाबदेह बनाया जा रहा है. इस मुद्दे ने मतदाता अधिकार, पारदर्शिता और चुनावी विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं.

प्रोसेस का हिस्सा नहीं तो जिम्मेदार कैसे? बंगाल में वोटर डिलीशन पर बवाल, अफसरों ने मुख्य चुनाव अधिकारी को लिखी चिट्ठी
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( Image Source:  ANI )
नवनीत कुमार
Edited By: नवनीत कुमार

Published on: 27 Dec 2025 11:33 AM

चुनावी लोकतंत्र की सबसे मजबूत नींव होती है मतदाता सूची. अगर इसी सूची पर सवाल उठने लगें, तो केवल प्रशासन नहीं, बल्कि पूरी चुनावी प्रक्रिया की विश्वसनीयता कटघरे में आ जाती है. पश्चिम बंगाल में चल रही Special Intensive Revision (SIR) प्रक्रिया अब इसी वजह से विवाद के केंद्र में है, जहां लाखों मतदाताओं के नाम कटने की आशंका ने प्रशासनिक तंत्र के भीतर ही बेचैनी पैदा कर दी है.

इस बार सवाल किसी राजनीतिक दल ने नहीं, बल्कि खुद राज्य सेवा के अधिकारियों ने उठाया है. उनका कहना है कि जिन नामों को मतदाता सूची से हटाया जा रहा है, उनके लिए जिम्मेदार अधिकारी वही दिखाए जा रहे हैं. जबकि असली फैसले एक केंद्रीकृत डिजिटल सिस्टम से लिए जा रहे हैं. इससे अफसरों की जवाबदेही, कानून की प्रक्रिया और आम मतदाता के अधिकार तीनों पर संकट खड़ा हो गया है.

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क्या है Special Intensive Revision (SIR)?

Special Intensive Revision एक विशेष प्रक्रिया है, जिसके तहत मतदाता सूची की गहन समीक्षा की जाती है. इसका उद्देश्य मृत, स्थानांतरित या अयोग्य मतदाताओं के नाम हटाना और योग्य नागरिकों के नाम जोड़ना होता है. यह प्रक्रिया सामान्य तौर पर पारदर्शी और चरणबद्ध होती है, जिसमें स्थानीय Electoral Registration Officer (ERO) की अहम भूमिका होती है.

पश्चिम बंगाल में क्यों बढ़ा विवाद?

पश्चिम बंगाल में SIR के दौरान लगभग 31 लाख मतदाताओं को नोटिस जारी किए गए हैं. ये वे मतदाता हैं, जिनका नाम 2002 की पिछली गहन समीक्षा से “मैप” नहीं हो पाया. यहीं से सवाल उठा कि इतनी बड़ी संख्या में नोटिस आखिर किस आधार पर और किसके आदेश से जारी हुए.

अफसरों की आपत्ति: हमें बायपास किया जा रहा है

West Bengal Civil Service (Executive) Officers’ Association ने सीधे राज्य के मुख्य चुनाव अधिकारी को पत्र लिखकर आरोप लगाया कि EROs को उनकी वैधानिक भूमिका से अलग रखा जा रहा है. उनका कहना है कि नाम काटने या नोटिस जारी करने का अधिकार कानूनन ERO का है, लेकिन इस बार फैसले सिस्टम द्वारा स्वतः (system-driven) लिए जा रहे हैं.

नोटिस किसने बनाए? सवाल यही है

जमीनी हकीकत यह है कि ERO के लॉग-इन में पहले से भरे हुए नोटिस दिखाई दे रहे हैं. इन नोटिसों पर ERO का नाम तो है, लेकिन उन्हें तैयार ERO ने नहीं किया. यानी जिम्मेदारी उनकी, लेकिन फैसला किसी और का यही अफसरों की सबसे बड़ी आपत्ति है.

कानून क्या कहता है?

Representation of the People Act, 1950 के तहत किसी भी मतदाता का नाम हटाने से पहले उसे सुनवाई का पूरा अवसर देना अनिवार्य है. यह एक quasi-judicial प्रक्रिया है, जिसमें ERO की भूमिका केंद्रीय होती है. अफसरों का कहना है कि मौजूदा SIR प्रक्रिया इस कानूनी भावना का उल्लंघन करती दिख रही है.

‘लॉजिकल डिस्क्रेपेंसी’ का नया खतरा

अब सिर्फ 2002 से मैप न होने वाले मतदाता ही नहीं, बल्कि जिनके डेटा में तथाकथित “logical discrepancies” हैं, उन पर भी कार्रवाई की तैयारी है. ऐसे मामलों में भी यह तय नहीं है कि किसे सुनवाई के लिए बुलाया जाएगा. यह फैसला भी पूरी तरह केंद्रीय सिस्टम पर छोड़ा गया है.

आम मतदाता पर सबसे बड़ा असर

अगर किसी मतदाता का नाम कटता है, तो वह सीधे स्थानीय ERO को ही दोष देगा. आम नागरिक को यह नहीं पता होगा कि फैसला सिस्टम ने लिया है. यही वजह है कि अफसरों को डर है कि वे जनता के गुस्से और अविश्वास का निशाना बनेंगे.

प्रशासन का पक्ष क्या है?

राज्य के मुख्य चुनाव अधिकारी कार्यालय का कहना है कि SIR की पूरी प्रक्रिया पहले से तय दिशा-निर्देशों के अनुसार चल रही है. अधिकारियों का तर्क है कि पहले उन मतदाताओं को बुलाया जा रहा है जिनका 2002 से कोई रिकॉर्ड नहीं मिला, और आगे की कार्रवाई चरणबद्ध तरीके से होगी.

बिहार मॉडल से जुड़ता बंगाल विवाद

दिलचस्प बात यह है कि इससे पहले बिहार में भी SIR के दौरान दस्तावेज़ों की पर्याप्त जांच नहीं हुई थी. अब चुनाव आयोग ने 12 राज्यों को निर्देश दिए हैं कि हर दस्तावेज़ की 5 दिनों में जांच हो जो यह दिखाता है कि प्रक्रिया पर खुद आयोग भी दोबारा विचार कर रहा है.

जिम्मेदारी किसकी?

पूरा विवाद इसी बिंदु पर आकर टिकता है. अगर अंतिम मतदाता सूची ERO के हस्ताक्षर से जारी होगी, तो क्या बिना उनकी सक्रिय भूमिका के बड़े पैमाने पर नाम हटाना न्यायसंगत है? अफसरों की मांग साफ है: या तो उन्हें पूरा अधिकार दिया जाए, या फिर साफ-साफ बताया जाए कि फैसले की जिम्मेदारी किसकी है.

SIR
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