'मैं मां के एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर से पैदा हुआ हूं, मुझे DNA टेस्ट कराना है...' याचिका पर क्या बोला SC?
सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर एक युवक ने कहा कि वह अपनी मां के एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर से पैदा हुआ है. उसे अपना पितृत्व साबित करने के लिए डीएनए टेस्ट कराना है. इस पर शीर्ष अदालत ने डीएनए टेस्ट की परमिशन देने से साफ इनकार कर दिया. अदालत ने कहा कि युवक को उसके कानूनी पिता का ही बेटा माना जाना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने आज दो दशक यानी 20 साल पुराने एक महत्वपूर्ण मामले की सुनवाई की. इसमें एक 23 साल के युवक ने याचिका दायर कर कहा कि वह अपना डीएनए टेस्ट कराना चाहता है, क्योंकि वह अपनी मां के एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर से पैदा हुआ है. याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जस्टिस उज्जल भुयां की पीठ ने कहा कि युवक को उसके कानूनी पिता का ही बेटा माना जाना चाहिए. डीएनए टेस्ट कराने से समाज में गलत संदेश जाएगा.
युवक ने अपनी याचिका में कहा कि वह डीएनए टेस्ट के जरिए अपने पितृत्व को साबित करना चाहता है. उसे कई बीमारियां हैं. उसकी कई सर्जरी हो चुकी है. युवक ने कहा कि वह और उसकी मां इलाज का खर्च वहन करने में असमर्थ हैं. इसलिए वह अपने जैविक पिता से भरण-पोषण का दावा करने के लिए अपने पितृत्व को साबित करना चाहता था.
1989 में हुई थी युवक की मां की शादी
युवक की मां ने 1989 में शादी की. 1991 में उसे एक बेटी और 2001 में बेटे का जन्म हुआ, जिसके बाद युवक की मां 2003 में अपने पति से अलग हो गई. 2006 में दोनों का तलाक हो गया. इसके बाद महिला ने जन्म रिकॉर्ड में अपने बेटे के पिता का नाम बदलवाने के लिए कोचीन नगर निगम पहुंची.
महिला ने कथित तौर पर अधिकारियों को बताया कि बेटे का जन्म एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर यानी विवाहेतर संबंध से हुआ है. इस पर जब अधिकारियों ने कहा कि वे कोर्ट के आदेश के बिना जन्म रिकॉर्ड नहीं बदल सकते, तो महिला और उसके बेटे ने लंबी कानूनी लड़ाई शुरू कर दी. 2007 में, अदालत ने कथित जैविक पिता को डीएनए टेस्ट कराने का आदेश दिया. इस पर उसने 2008 में आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी, जिस पर उसे राहत मिली.
हाईकोर्ट ने क्या कहा?
हाईकोर्ट ने कहा कि पितृत्व परीक्षण का आदेश तभी दिया जा सकता है, जब पक्ष पति-पत्नी के बीच गैर-पहुंच साबित कर सकें. अदालत ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 112 का हवाला दिया, जो यह स्थापित करती है कि वैध विवाह के दौरान या विवाह समाप्त होने के 280 दिनों के भीतर पैदा हुआ बच्चा पति की वैध संतान है. निचली अदालत ने माना कि दोनों पक्षों को डीएनए टेस्ट के लिए भेजने की कोई ज़रूरत नहीं है, क्योंकि बच्चे के जन्म के समय मां और उसके पति के बीच वैध विवाह था.
2015 में 14 वर्षीय बेटे ने फैमिली कोर्ट में एक पुरानी भरण-पोषण याचिका को पुनर्जीवित करने के लिए याचिका दायर की. इसमें उसने कहा कि वह कई स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित है और उसकी कई सर्जरी हो चुकी हैं, जिसका खर्च वह और उसकी मां वहन करने में असमर्थ हैं. उसने यह भी कहा कि उसे अपने कानूनी पिता से उसके चिकित्सा या शैक्षिक खर्चों के लिए कोई भरण-पोषण नहीं मिल रहा है. इस पर कोर्ट ने भरण-पोषण याचिका को पुनर्जीवित कर दिया. कथित जैविक पिता ने इसे हाईकोर्ट में चुनौती दी.
2018 में, हाईकोर्ट ने बेटे के पक्ष में फैसला सुनाया. अदालत ने कहा कि बच्चे के अपने जैविक पिता से भरण-पोषण पाने के अधिकार पर विचार करते समय जन्म की वैधता अप्रासंगिक थी. कोर्ट ने यह भी माना कि वैधता की धारणा बच्चे के वास्तविक पितृत्व की जांच को नहीं रोकती है. कथित जैविक पिता ने फिर इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी.
'शादी से वैध बच्चा है'
कथित जैविक पिता की ओर से पेश हुए रोमी चाको ने कहा कि बेटा जन्म के समय अपनी मां और उसके पति के बीच गैर-पहुंच साबित करने में नाकाम रहा है. इसलिए इस बात के निर्णायक सबूत हैं कि वह उनकी शादी से वैध बच्चा है. इसलिए वह 'तीसरे पक्ष' से भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकता. चाको ने यह भी कहा कि उनके मुवक्किल को डीएनए परीक्षण कराने का आदेश नहीं दिया जा सकता.
बेटे के वकील श्याम पद्मन ने तर्क दिया, 'पितृत्व' और 'वैधता' अलग-अलग अवधारणाएं हैं. पितृत्व, एक अवधारणा के रूप में, आंतरिक रूप से भरण-पोषण से जुड़ा हुआ है; और भरण-पोषण का दावा जैविक पिता से तब भी किया जा सकता है, जब बच्चा नाजायज़ हो.
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि यह एक तथ्य है कि जब बेटा पैदा हुआ, तो उसकी मां अपने पति से विवाहित थी. वास्तव में, वे 1989 से विवाहित थे और दोनों में से किसी ने भी विवाह की वैधता पर कभी सवाल नहीं उठाया. वे 1989 से 2003 तक एक ही छत के नीचे रह रहे थे. इससे यह स्पष्ट है कि मां और उसके पति अपनी शादी के दौरान एक-दूसरे तक पहुंच रखते थे.
'कानूनी पिता का बेटा माना जाना चाहिए'
अदालत ने कहा कि भले ही यह मान लिया जाए कि मां का विवाहेतर संबंध था और इसी वजह से बेटे का जन्म हुआ, लेकिन यह वैधता की धारणा को खत्म करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा. इस तरह के आरोप से केवल एक ही बात उजागर होती है कि प्रतिवादी की मां के साथ अपीलकर्ता और पति की एक साथ पहुंच थी. इसलिए यह वैधानिक आदेश है कि 23 वर्षीय व्यक्ति को उसके कानूनी पिता का बेटा माना जाना चाहिए.
पीठ ने कहा कि जबरन डीएनए टेस्ट करवाने से व्यक्ति के निजी जीवन पर बाहरी दुनिया की नज़र पड़ सकती है. यह जांच बेवफाई के मामलों में कठोर हो सकती है. पीठ ने कहा कि यह समाज में व्यक्ति की प्रतिष्ठा को धूमिल कर सकती है. यह व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर सकती है. इस कारण से उसे अपनी गरिमा और गोपनीयता की रक्षा के लिए कुछ कदम उठाने का अधिकार है, जिसमें डीएनए टेस्ट से इनकार करना भी शामिल है. कोर्ट ने कहा कि इस तरह के अधिकार के प्रदान किए जाने से कमजोर महिलाओं के खिलाफ इसके संभावित दुरुपयोग की संभावना हो सकती है.
पीठ ने कहा कि दो दशकों से अधिक समय से चल रहा यह जटिल मामला, इसमें शामिल पक्षों पर भारी पड़ रहा है. इसे सभी उद्देश्यों के लिए बंद कर दिया जाना चाहिए. कोर्ट ने फैसला सुनाया कि वैधता भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 112 के तहत पितृत्व का निर्धारण करती है, जब तक कि 'गैर-पहुंच' साबित करके अनुमान का खंडन नहीं किया जाता.
अदालत ने कहा कि 23 वर्षीय युवक द्वारा उस व्यक्ति के साथ अपने कथित रिश्ते के बारे में किया गया कोई भी दावा खारिज हो जाता है, जिसे वह अपना पिता बताता है. इससे वह व्यक्ति अपनी मां के पूर्व पति और अपने कानूनी पिता का वैध पुत्र माना जाएगा.