तलाकशुदा मुस्लिम महिला को दहेज, मेहर और मायके से मिले उपहार वापस पाने का पूरा अधिकार: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला सुनाते हुए कहा कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला को विवाह के समय मायकेवालों द्वारा दिए गए नकद, सोना, दहेज और घरेलू सामान उसकी संपत्ति मानी जाएगी और तलाक के बाद पति को यह सब वापस करना होगा. अदालत ने मुस्लिम महिला अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1986 की व्याख्या समानता, गरिमा और आर्थिक सुरक्षा की दृष्टि से करने पर जोर देते हुए पति को ₹17,67,980 महिला के बैंक खाते में जमा करने का निर्देश दिया.
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाते हुए स्पष्ट कर दिया कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला को उसके मायकेवालों द्वारा विवाह के समय दिए गए नकद, सोना, दहेज और अन्य उपहार उसकी संपत्ति माने जाएंगे, और तलाक के बाद पति या उसके परिवार को यह सब वापस करना ही होगा. यह फैसला मुस्लिम महिलाओं की आर्थिक सुरक्षा और सम्मान को मजबूत करने वाला माना जा रहा है.
न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति एन कोटिस्वर सिंह की पीठ ने कहा कि मुस्लिम महिला (तलाक के बाद अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 की व्याख्या सिर्फ सिविल विवाद के तौर पर नहीं, बल्कि संवैधानिक मूल्यों - समानता, गरिमा और स्वायत्तता - के परिप्रेक्ष्य में होनी चाहिए. पीठ ने स्पष्ट शब्दों में कहा, “इस कानून की व्याख्या करते समय महिलाओं की गरिमा और समान अधिकार को केंद्र में रखना होगा, क्योंकि अभी भी छोटे कस्बों और ग्रामीण इलाकों में पितृसत्तात्मक भेदभाव सामान्य है.”
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अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि न्यायालय सिर्फ कानून लागू करने वाली संस्थाएं नहीं, बल्कि समाज में लैंगिक न्याय और उन्नति सुनिश्चित करने वाली संवैधानिक संस्थाएं भी हैं. इसलिए सामाजिक यथार्थों से अलग होकर कानून की व्याख्या नहीं की जा सकती.
सेक्शन 3 तलाकशुदा मुस्लिम महिला को संपत्ति वापस लेने का स्पष्ट अधिकार देता है
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में 1986 के कानून की धारा 3 का उल्लेख किया, जो एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला को यह अधिकार देता है कि वह विवाह से पहले या विवाह के समय, विवाह के बाद उसके रिश्तेदारों, दोस्तों, पति या ससुरालवालों द्वारा दिए गए सभी पैसे, आभूषण, उपहार और घरेलू वस्तुओं की वापसी मांग सकती है. इसके साथ ही अदालत ने डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ (2001) के ऐतिहासिक फैसले का हवाला देते हुए दोहराया कि मुस्लिम महिलाओं को तलाक के बाद वित्तीय स्वतंत्रता सुनिश्चित किया जाना संवैधानिक अपेक्षा है.
महिला को 17,67,980 रुपये लौटाने का आदेश
यह फैसला उस मामले में आया, जिसमें एक मुस्लिम महिला ने तलाक के बाद अपने पति से मेहर (दहेज राशि), दहेज, 30 भोरी (तोलों) सोने के आभूषण और अन्य उपहार व घरेलू सामान (जैसे फ्रिज, टीवी, स्टेबलाइज़र, शोकेस, बॉक्स बेड और डाइनिंग फर्नीचर) की वापसी की मांग की थी. सुप्रीम कोर्ट ने पति को कुल ₹17,67,980 महिला के बैंक खाते में छह सप्ताह के भीतर जमा करने का आदेश दिया. नहीं करने पर प्रतिवर्ष 9% ब्याज देना होगा और अनुपालन का हलफनामा भी दाखिल करना होगा.
कलकत्ता हाईकोर्ट के फैसले को रद्द किया
यह मामला 2005 में हुई शादी से जुड़ा था. 2009 से दोनों अलग रहने लगे और 2011 में तलाक हो गया. इसके बाद महिला ने कानून के तहत अपना दावा दायर किया. लेकिन कलकत्ता हाईकोर्ट ने 2022 में पूर्ण राशि देने से इनकार कर दिया था, यह कहते हुए कि विवाह रजिस्टर में उपहारों के उल्लेख में विरोधाभास है. सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए कहा कि, हाईकोर्ट ने विवाह रजिस्ट्रार की गवाही को नजरअंदाज किया, जिसने स्पष्ट कहा था कि रजिस्टर में गलती सुधारकर असली रिकॉर्ड दर्ज किया गया था. जबकि अदालत ने ऐसा फैसला दिया मानो यह सिर्फ एक साधारण सिविल मामला हो. शीर्ष अदालत के अनुसार, यह मामला कानून की “उद्देश्यपरक व्याख्या” के सिद्धांत की मांग करता था, ताकि मुस्लिम तलाकशुदा महिला को वास्तविक आर्थिक संरक्षण मिल सके.
“पितृसत्ता के बीच महिला की आर्थिक सुरक्षा और सम्मान सर्वोपरि”
फैसले के मूल में यह भावना स्पष्ट दिखाई देती है कि शादी में मायकेवालों द्वारा दिए गए उपहार ससुरालवालों के नहीं, महिला की व्यक्तिगत संपत्ति हैं. तलाक के बाद यदि इन्हें रोक लिया जाए, तो यह असमानता और शोषण है. अदालतें सामाजिक न्याय लागू करने की संवैधानिक जिम्मेदारी निभाती हैं.
इस फैसले ने न सिर्फ संबंधित महिला को राहत दी है, बल्कि देशभर की मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं के अधिकार मजबूत किए हैं, साथ ही यह स्पष्ट संदेश दिया है कि तलाक के बाद महिला की आर्थिक सुरक्षा कोई खैरात नहीं, बल्कि उसका कानूनी और संवैधानिक अधिकार है.





