सोशल मीडिया पर कंटेंट अपलोड होने से पहले ‘प्री-स्क्रीनिंग’ ज़रूरी: सुप्रीम कोर्ट की सख्त चेतावनी - वायरल ‘डैमेज’ रोकने पर ज़ोर
सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया पर हानिकारक और उकसाने वाले कंटेंट के तेजी से वायरल होने के खतरे को देखते हुए केंद्र सरकार को बड़ा निर्देश दिया है. अदालत ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को यूज़र-जेनरेटेड कंटेंट अपलोड होने से पहले ‘प्री-स्क्रीनिंग’ सिस्टम का ड्राफ्ट तैयार करने को कहा है. कोर्ट का कहना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जरूरी है, लेकिन सोशल मीडिया पर कंटेंट हटने तक नुकसान हो चुका होता है, इसलिए एक ‘प्रिवेंटिव मैकेनिज़्म’ ज़रूरी है.
सोशल मीडिया पर अपलोड होने वाले कंटेंट के ज़रिए समाज में तनाव, उथल-पुथल और अफवाहों के बढ़ते खतरे को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को केंद्र सरकार को बड़ा निर्देश दिया. अदालत ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से कहा कि यूज़र-जेनरेटेड कंटेंट (UGC) को अपलोड होने से पहले प्री-स्क्रीन करने के लिए एक ड्राफ्ट मेकैनिज़्म तैयार किया जाए, ताकि ऐसे वीडियो, फोटो या पोस्ट जो समाज में नुकसान पहुंचाने की क्षमता रखते हों, उन्हे वायरल होने से पहले ही रोका जा सके.
मुख्य न्यायाधीश सीजेआई सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने कहा कि ‘फ्रीडम ऑफ स्पीच’ बेहद महत्वपूर्ण अधिकार है, लेकिन यह असीमित नहीं है. अमेरिका के ‘फर्स्ट अमेंडमेंट राइट्स’ की तरह इसे पूरी तरह अप्रशासित नहीं छोड़ा जा सकता. अदालत ने स्पष्ट किया कि स्व-नियमन (self-regulation) सोशल मीडिया के कॉन्टेंट पर प्रभावी रूप से काम नहीं कर रहा, इसलिए एक मजबूत और तकनीकी रूप से सक्षम रोकथाम तंत्र की आवश्यकता है.
“कंटेंट हटने तक नुकसान हो चुका होता है - वायरल होने की रफ़्तार सरकार से तेज़”
अदालत ने सोशल मीडिया पर हानिकारक कंटेंट हटाए जाने की मौजूदा प्रक्रिया को नाकाफी बताया. पीठ ने कहा, “अगर कोई राष्ट्र-विरोधी या उकसाने वाला कंटेंट सोशल मीडिया पर पोस्ट होता है, सरकार को नोटिस लेकर उसे हटाने तक एक-दो दिन लग जाते हैं. इस बीच वह वायरल होकर समाज में नुकसान पहुंचा चुका होता है. इसलिए एक प्रिवेंटिव मैकेनिज़्म ज़रूरी है.”
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि यह कदम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाने के लिए नहीं बल्कि समाज को बड़े पैमाने पर होने वाले नुकसान से बचाने के लिए है. सीजेआई ने कहा, “हम ऐसा सिस्टम मंज़ूर नहीं करेंगे जो विचारों की अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाए. जरूरत सिर्फ ऐसी उचित और संतुलित व्यवस्था की है जो अपलोड से पहले कंटेंट को फिल्टर कर पाए न कि आवाज़ को दबाए.”
AI तकनीक से मदद लेने पर ज़ोर, कहा - “कानून में वर्तमान स्थिति वैक्यूम की”
पीठ ने माना कि मौजूदा कानून समय की मांगों को पूरा नहीं करते. “आज सोशल मीडिया कंटेंट मॉनिटरिंग के मामले में एक वैधानिक शून्यता (statutory vacuum) है. AI का उपयोग कंटेंट क्यूरेशन के लिए किया जा सकता है. कुछ सामग्री अकादमिक लग सकती है, लेकिन उसका स्वर ‘उपहास या उत्तेजना’ भड़काने वाला हो सकता है.” अदालत के अनुसार, डिजिटल युग में कंटेंट मॉडरेशन केवल प्रतिक्रिया आधारित नहीं होना चाहिए - परिणाम आने के बाद कार्रवाई करने की बजाय अपलोड से पहले रोकथाम हो.
“Anti-national” शब्द पर बहस - भले असहमत हों लेकिन वायरल गलत सूचना खतरा बनती है
कार्यवाही के दौरान वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने “राष्ट्र-विरोधी” (anti-national) शब्द के प्रयोग पर आपत्ति जताई. उन्होंने कहा कि इस शब्द को सरकारें अपने हिसाब से और चयनात्मक ढंग से परिभाषित करती हैं. उन्होंने सवाल उठाया, “अगर मैं सिक्किम के भारत में विलय पर सवाल उठाऊं, क्या वह राष्ट्र-विरोधी हो जाएगा? अगर चीन की भारत पर क्षेत्रीय दावेदारी पर चर्चा करूं, क्या वह राष्ट्र-विरोधी मानी जाएगी?”
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने विरोध जताते हुए कहा कि अदालत में ऐसे प्रश्न उठाकर राष्ट्र विघटनकारी विचारों को वैधता नहीं दी जानी चाहिए.
मेहता ने कड़ा प्रतिवाद करते हुए कहा, “सोशल मीडिया पर अश्लील, विकृत और राष्ट्र-विरोधी सामग्री रोकने के मामले में इस तरह की दलीलें उकसावे या अलगाववाद को हवा देती हैं.” अदालत ने बहस को शांत कराते हुए कहा, “मुद्दा ‘anti-national’ की परिभाषा नहीं है. सवाल यह है - अगर कोई वीडियो पोस्ट करके कहे कि भारत का एक हिस्सा किसी पड़ोसी देश के पास है, तो क्या उसका समाज पर गंभीर प्रभाव नहीं पड़ेगा?”
“Operation Sindoor” के दौरान वायरल वीडियो का उदाहरण देकर अदालत ने खतरा समझाया
सीजेआई ने सुनवाई के दौरान हाल का एक केस याद दिलाते हुए कहा, “ऑपरेशन सिंदूर के समय एक व्यक्ति ने वीडियो अपलोड कर कहा था कि वह पाकिस्तान के साथ है और पाकिस्तान की मदद करने वाले दूसरे देश की तारीफ की थी. बाद में उसने कहा कि वीडियो मैंने एक घंटे में डिलीट कर दिया. लेकिन आज की दुनिया में एक घंटा भी काफी है - तब तक वीडियो वायरल हो चुका होता है और नुकसान हो चुका होता है.” अदालत ने कहा कि सोशल मीडिया पर नुकसान सेकंडों में होता है, जबकि कानून की कार्रवाई बाद में होती है - यह खतरनाक अंतर समाप्त होना चाहिए.
OTT-प्लेटफॉर्म और डिजिटल चैनलों की दलीलें कोर्ट ने नहीं मानी
ब्रॉडकास्टर्स, OTT प्लेटफॉर्म और डिजिटल चैनलों के संगठनों ने तर्क दिया कि वे Self-Regulatory Code का पालन करते हैं और प्री-सेंसरशिप लोकतंत्र में अस्वीकार्य है. लेकिन अदालत ने सवाल उठाया कि “अगर स्व-नियमन प्रभावी है, तो फिर ऐसा आपत्तिजनक कंटेंट सोशल मीडिया पर पोस्ट ही कैसे हो जाता है?” अदालत ने स्पष्ट किया कि सरकार को पूर्ण सेंसरशिप की शक्ति देना उचित नहीं होगा लेकिन प्लेटफॉर्म को पूर्ण स्वतंत्रता देना भी सुरक्षित नहीं. इसलिए एक स्वतंत्र, स्वायत्त निगरानी निकाय ज़रूरी है. पीठ ने कहा, “सरकार के खिलाफ बोलना राष्ट्र-विरोधी नहीं है, यह लोकतंत्र का मूल अधिकार है. लेकिन कुछ सोशल मीडिया पोस्ट ऐसे होते हैं जो डाउन होने से पहले समाज में ज़हर घोल देते हैं, असली समस्या यही है.”
सरकार को 4 हफ्तों में ड्राफ्ट तैयार कर जनता से राय लेने का आदेश
सुनवाई के अंत में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय 4 हफ्तों में कंटेंट-प्री-स्क्रीनिंग मैकेनिज़्म का प्रारूप तैयार करे और इसे सार्वजनिक रूप से प्रकाशित कर सुझाव और आपत्तियां आमंत्रित की जाएं. ड्राफ्ट में डोमेन एक्सपर्ट्स, विधि विशेषज्ञ और मीडिया प्रोफेशनल्स का योगदान ज़रूरी हो. अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणि और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत को आश्वस्त किया कि सरकार निर्धारित अवधि में यह काम करेगी और व्यापक जनभागीदारी शामिल करेगी.
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश ने भारत में सोशल मीडिया कंटेंट मॉनिटरिंग के भविष्य की दिशा तय कर दी है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुरक्षित रहेगी लेकिन वायरल गलत सूचना, नफरत और राष्ट्र व समाज को नुकसान पहुंचाने वाली सामग्री रोकने के लिए प्रि-स्क्रीनिंग व्यवस्था लागू की जाएगी. डिजिटल दुनिया में सूचना की गति बम से भी ज्यादा तेज़ है - अदालत इस बार नुकसान रोकने के लिए रिएक्टिव नहीं, प्रिवेंटिव नियम चाहती है. आने वाले महीने यह तय करेंगे कि भारत में सोशल मीडिया कंटेंट मॉडरेशन का ढांचा कैसा होगा और स्वतंत्रता व सुरक्षा के संतुलन को कैसे लागू किया जाएगा.





