क्या जमात-ए-इस्‍लामी बन गया है भस्‍मासुर? गलती से हुई Mistake का खामियाजा भुगत रहा बांग्‍लादेश

करीब डेढ़ साल पहले शेख हसीना को बांग्लादेश से पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा था. उसके बाद नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस वहां की सरकार का मुख्य सलाहकार बने, लेकिन उनके एक फैसले ने बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी को फिर जिंदा कर दिया. जानिए क्यों जमात की राजनीति आज बांग्लादेश और भारत दोनों के लिए खतरे की घंटी बन चुकी है?;

( Image Source:  Sora AI )
Curated By :  धीरेंद्र कुमार मिश्रा
Updated On : 26 Dec 2025 4:53 PM IST

बांग्लादेश की राजनीति में मोहम्मद यूनुस को लंबे समय तक लोकतंत्र, मानवाधिकार और विकास का चेहरा माना गया, लेकिन इतिहास गवाह है कि राजनीति में की गई एक ‘सैद्धांतिक नरमी’ भी कभी-कभी पूरे देश को दशकों तक सुलगाए रख सकती है. इसका उदाहरण है नोबेल विजेता मोहम्मद युनूस का चरमपंथी पार्टी जमात ए इस्लामी पर से बैन हटाना का फैसला. ऐसा इसलिए कि उसके बाद से जो बांग्लादेश में हिंसक घटना, शेख हसीना, हिंदुओं और भारत के खिलाफ जहर उगलने का सिलसिला शुरू हुआ,उ सका चुनावी घोषणा के बाद भी शांत होने मुश्किल लग रहा है.

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वर्तमान में बांग्लादेश जमात-ए-इस्लामी के प्रमुख डॉ. शफीक उर रहमान (Dr. Shafiqur Rahman) हैं, जो पार्टी के एक प्रमुख नेता हैं और उन्होंने 2024 में भारत-बांग्लादेश संबंधों और आंतरिक मामलों पर टिप्पणी की थी, और पार्टी के लिए एक प्रमुख चेहरा बने हुए हैं. भले ही पार्टी को हाल के वर्षों में कानूनी और राजनीतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा है.

भारत विरोधी है जमात

यूनुस द्वारा जमात-ए-इस्लामी पर लगे प्रतिबंध को हटाने की वकालत और उसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा मानने की सोच ऐसी गलती साबित हुई, जिसने कट्टर इस्लामी राजनीति को वहां दोबारा सांस दे दी है. अब वही जमात अल्पसंख्यकों पर हमलों, भारत-विरोधी एजेंडे, 1971 के युद्ध अपराधियों के महिमामंडन और लोकतंत्र के नाम पर शरीयत की राजनीति का चेहरा बन चुकी है. सवाल सिर्फ बांग्लादेश का नहीं है. सवाल यह है कि क्या एक असफल ‘लिबरल प्रयोग’ ने दक्षिण एशिया को फिर 1971 जैसे हालात की ओर धकेल दिया है?

अदालत के फैसले ने किया 'घी' डालने का काम

 बांग्लादेश में शेख हसीना पर अदालती फैसले से पहले राजधानी ढाका समेत चार प्रमुख शहरों में व्यापक हिंसा और अशांति फैल गई है. मशाल जुलूस निकाले गए हैं, गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया गया है और सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया गया है. प्रदर्शनकारियों ने रेलवे ट्रैक पर भी आगजनी की है, जिससे यातायात बाधित हुआ है. दो हिंदू युवकों की बेरहमी से हत्या हो चुकी है. हिंदुओं घरों व प्रतिष्ठानों को जलाए जा रहे हैं.

हिंसक प्रदर्शन शेख हसीना के खिलाफ भी जारी है, जिन पर 1400 से अधिक हत्याओं सहित मानवता के खिलाफ अपराधों के कई गंभीर आरोप हैं. बांग्लादेश में सेना तैनात कर दी गई है और कुछ इलाकों में प्रदर्शनकारियों को देखते ही गोली मारने के आदेश हैं.

आखिर क्या है जमात-ए-इस्लामी?

जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश एक इस्लामिक राजनीतिक दल है, जो बांग्लादेश में शरिया आधारित इस्लामी शासन की वकालत करता रहा है. यह संगठन खुद को धार्मिक-राजनीतिक आंदोलन मानता है, न कि सिर्फ एक पार्टी.

1941 में जमात-ए-इस्लामी की स्थापना मौलाना अबुल आला मौदूदी ने ब्रिटिश भारत में की थी. 1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान जमात ने पाकिस्तान का समर्थन किया था. बांग्लादेश की आजादी का विरोध किया था. इसी दौर में जमात पर पाकिस्तानी सेना के साथ मिलकर नरसंहार और युद्ध अपराध

के गंभीर आरोप लगे थे. जमात का यही इतिहास उसके लिए आगे चलकर सबसे बड़ा अभिशाप बना. जमात का मानना है कि संविधान, कानून और शासन इस्लामी सिद्धांतों के अधीन होने चाहिए, 0जो बांग्लादेश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे से टकराता है.

 कब-कब लगा बैन?

1971 के बाद शेख मुजीबुर रहमान ने जमात समेत धार्मिक राजनीति पर प्रतिबंध लगाया था.जमात के खिलाफ 2013–2016 में सबसे सख्त कार्रवाई हुई थी. उसके खिलाफ वार क्राइम ट्रिब्यूनल के तहत उसके शीर्ष नेताओं को फांसी और उम्रकैद तक की सजा मिली थी.

साल 2013 हाई कोर्ट ने जमात का पंजीकरण रद्द कर दिया था. साल 2016 पार्टी की राजनीतिक गतिविधियों पर रोक लगा दी गई. जमात पर आरोप था कि उसने 1971 में देशद्रोह किया था. हिंसा और कट्टरपंथ को बढ़ावा दिया था.

 बैन क्यों लगाया गया?

जमात ए इस्लामी पर प्रतिबंध लगने के कई मुख्य कारण हैं. इनमें बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में देशद्रोह करना, मानवता के खिलाफ अपराध, धर्म के आधार पर राजनीति और हिंसा और उग्रवाद से कथित जुड़ाव रहा है. सरकार का तर्क था कि जमात की राजनीति बांग्लादेश की राष्ट्रीय पहचान और संविधान के खिलाफ है.

मोहम्मद यूनुस ने बैन क्यों हटाया?

जब अंतरिम सरकार में नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस की भूमिका बढ़ी,

तो लोकतांत्रिक समावेशन के नाम पर राजनीति प्रतिबंधों की समीक्षा हुई. उसके बाद यूनुस ने जमात-ए-इस्लामी पर बैन लगा दिया. यूनुस प्रशासन की ओर से  तर्क दिया गया कि लोकतंत्र में विचारधाराओं से लड़ाई चुनाव के जरिए होनी चाहिए, प्रतिबंध से नहीं.

 बांग्लादेश अशांत क्यों?

बांग्लादेश में इस्लामिक राजनीति में रुचि रखने वाले चरमपंथी नेता फिर से सक्रिय हो गए. जमात और उससे जुड़े संगठनों ने वहां पर हिंदुओं के खिलाफ हिंसक घटनाओं को अंजाम देना शुरू कर दिया. हिंदू युवक दीपू दाव और एक अन्य की भीड़ द्वारा हत्या उसी का नतीजा है. हिंदू, बौद्ध और ईसाई समुदाय में असुरक्षा की भावना बढ़ी है. मदरसों में सियासी गतिविधियां फिर से शुरू हो गईं. इसका नतीजा यह हुआ कि पिछले एक साल से ज्यादा समय से बंगाल जल रहा है और चुनाव समय पर हो पाएंगे या नहीं, यह तय नहीं है.  

अवामी लीग और सेक्युलर तबके की चिंता यह है कि कट्टरपंथ को वैधता मिलने से वे लोग 1971 के अपराधों को रीराइट करने की कोशिश करेंगे. शेख हसीना समर्थक खेमे में इसको लेकर सबसे ज्यादा गहरा असंतोष है.

भारत और पश्चिम देशों की भी चिंता बढ़ गई है. पड़ोसी मुल्क होने के नाते भारत की चिंता है कि बांग्लादेश में पाकिस्तान समर्थक और भारत विरोधी धड़े मजबूत होंगे. पश्चिमी देशों में भी कट्टरपंथ बनाम लोकतंत्र की बहस तेज हो गई है. यह स्थिति बांग्लादेश की स्थिरता के लिए जोखिम वाला सकता है.

अहम सवाल यह है कि क्या बांग्लादेश 1971 के अतीत से समझौता किए बिना जमात को स्वीकार कर सकता है? या फिर यह फैसला देश को एक बार फिर वैचारिक टकराव की ओर ले जाएगा?

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