गठन से पहले बिखरने लगा 'Arab NATO' का आइडिया, अमेरिका की चली तो इजरायल के साथ होगा Syria
इजरायल की ओर से हाल ही में कतर सहित छह मुस्लिम देशों पर हमले के बाद नाटो की तर्ज पर अरब नाटो (Arab NATO) का विचार आकार लेने लगा था. उसका गठन हो पाता, उससे पहले मुस्लिम ब्रदरहुड का विचार बिखरता नजर आ रहा है. अब पश्चिम एशिया में अमेरिका और इजरायल की नई रणनीति के चलते हालात बदल रहे हैं. अगर ये योजना कामयाब होती है तो सीरिया का झुकाव मुस्लिम ब्रदरहुड के बदले इजरालय से हाथ मिला सकता है.;
मध्य पूर्व (Middle East) देशों की राजनीति हमेशा से उतार-चढ़ाव और गठबंधन में बिखराव भरा रहा है. हाल ही में कतर पर इजरायली हमले के बाद जिस 'अरब नाटो' (Arab NATO) की चर्चा तेज हुई थी, वह अब आकार लेने से पहले ही संकट में फंसता दिख रहा है. जबकि दोहा में आयोजित बैठक में 57 मुस्लिम देशों के शीर्ष प्रतिनिधि शामिल हुए थे. अमेरिका और इजरायल ने अपने कूटनीति के दम पर कई देशों के रुख को बदलने की रणनीति सफल बनाने में जुटे हैं.
अरब नाटो के तहत प्रमुख मुस्लिम देशों की योजना मध्य पूर्व के देशों को नाटो की तरह एक साझा सुरक्षा ढांचे में लाने की थी. इसका मकसद यह था कि ईरान के बढ़ते प्रभाव और क्षेत्रीय उथल-पुथल को रोका जाए. सऊदी अरब, यूएई, पाकिस्तान, मिस्र, तुर्की बहरीन और मिस्र इसमें मुख्य भूमिका निभा सकते थे, लेकिन यह आइडिया खटाई में पड़ सकता है.
संकट में क्यों अरब नाटो का आइडिया?
दरअसल, दुनिया में कुल 57 मुस्लिम देश हैं. इन मुस्लिम देशों को दो प्रभावी संगठन अस्तित्व में है. इनमें एक अरब लीग है, जिसमें 22 देश हैं. दूसरा संगठन आईओसी है, लेकिन दोनों में से कोई भी संगठन अंतरराष्ट्रीय मंच पर असरदार साबित नहीं हुई. ईरान पर नीति, इस्लामी राजनीति और सुरक्षा प्राथमिकताओं की वजह से इस्लामिक देश अलग-अलग गुटों में बंटे हुए हैं.
इजरायल-अमेरिका की भूमिका
मध्य पूर्व के कई अरब देश तो ऐसे हैं जो खुलकर इजरायल के साथ नहीं खड़े होना चाहते, लेकिन उनके साथ दुश्मनी भी नहीं चाहते. फिर इन देशों में से कई के साथ अमेरिका के हित जुड़े हैं. इनमें से कइयों का भरोसा पिछले कुछ वर्षों के दौरान अमेरिका से टूटा है. अमेरिका मध्य पूर्व में अपने हितों को बढ़ावा देना चाहता है.
सीरिया की स्थिति मुस्लिम ब्रदरहुड के कंसेप्ट से अलग है. सीरिया अब तक मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे संगठनों से अप्रत्यक्ष तौर पर जुड़ा रहा है. ऐसे में इजरायल और अमेरिका की कूटनीति कामयाब रही तो सीरिया का झुकाव इस गुट से हट सकता है. यह बदलाव क्षेत्रीय समीकरणों को गहराई से प्रभावित करेगा.
भविष्य की तस्वीर
अगर मुस्लिम देशों में मतभेद बरकरार रहा तो पहले के संगठनों की तरह अरब नाटो का विचार भी अस्तित्व में आने से पहले ही दम तोड़ सकता है. यह एक विचार बनकर रह जाएगा. अगर इजरायल-अमेरिका सफल हुए तो मध्य पूर्व में नया सुरक्षा ढांचा बन सकता है.
इस मामले में सीरिया का फैसला अहम है. उसका रुख तय करेगा कि मुस्लिम ब्रदरहुड को कितना नुकसान होगा. मामला यह है कि सीरिया के साथ इजरायल एक सुरक्षा समझौता करने वाला है. सीरिया के राष्ट्रपति अहमद अल-शारा ने खुद इस बात की पुष्टि की है. उन्होंने कहा कि इजरायल के साथ वार्ता चल रही है और जल्दी ही दोनों देशों के बीच सुरक्षा समझौता हो सकता है.
सीरिया के राष्ट्रपति अहमद अल-शारा दमिश्क में मीडिया से बातचीत में कहा कि सुरक्षा समझौता एक जरूरत है. हम चाहते हैं कि सीरिया के एयरस्पेस की सुरक्षा हो और हमारी अखंडता एवं संप्रभुता कायम रहे. पिछले कुछ दिनों में इजरायल ने सीरिया पर हमले किए थे और उसके दक्षिणी हिस्से में सेना चली आई थी. अब माना जा रहा है कि दोनों देशों के बीच समझौता हुआ तो इजरायल अपनी सेना को बुला लेगा.
अमेरिका ने यूं ही नहीं हटाई थी पाबंदी
इजरायल और सीरिया के बीच यह समझौता वार्ता लंदन में हुई एक बैठक के बाद होने जा रहा है, जिसमें मध्यस्थता अमेरिका ने की थी. यह मामला यहीं तक सीमित नहीं है. इजरायल के साथ सीरिया का समझौता कराने के मकसद से ही कुछ महीने पहले डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन ने एक झटके में सीरिया से सारी पाबंदियां हटा ली थीं.
सीरिया का इतिहास
- उम्मयद खलीफा (661–750 ई.) का केंद्र दमिश्क (सीरिया) था. उस समय सीरिया इस्लामी दुनिया का राजनीतिक और धार्मिक नेतृत्व करता था.
- इसके बाद सीरिया लंबे समय तक इस्लामी साम्राज्यों (अब्बासी, अय्यूबी, मामलूक और उस्मानी तुर्क) का अहम हिस्सा रहा.
- 16वीं सदी से 20वीं सदी की शुरुआत तक सीरिया उस्मानी साम्राज्य का हिस्सा रहा, जो इस्लामी दुनिया का सबसे बड़ा राजनीतिक ढांचा था.
- प्रथम विश्व युद्ध के बाद यह फ्रांसीसी उपनिवेश बना और 1946 में स्वतंत्र हुआ. अरब पहचान के साथ सीरिया ने खुद को पैन-अरब और पैन-इस्लामिक राजनीति में रखा.
- 1948 के अरब–इजरायल युद्ध में सीरिया ने अन्य मुस्लिम देशों के साथ इजरायल के खिलाफ मोर्चा लिया था.
- 1970 के दशक में हाफिज अल असद और बाद में बशर अल असद के दौर में सीरिया का झुकाव सोवियत संघ और ईरान की ओर ज्यादा रहा, जबकि कई सुन्नी अरब देशों (सऊदी, कतर, मिस्र) से तनाव बढ़ता रहा.
- 1979 की ईरानी क्रांति के बाद से सीरिया ईरान का सबसे बड़ा अरब सहयोगी रहा. खासकर लेबनान में हिजबुल्लाह को समर्थन देने के कारण.
- ईरान के साथ रिश्ते के चलते सीरिया और सऊदी अरब व अन्य खाड़ी देशों के बीच खटास बनी रही.
- 2011 के बाद गृहयुद्ध शुरू होने पर अधिकांश इस्लामी देश (तुर्की, सऊदी अरब, कतर) ने सीरियाई विपक्ष को समर्थन दिया, जबकि ईरान और इराक ने असद सरकार का साथ दिया.
- लंबे अलगाव के बाद हाल के वर्षों में 2023 से अरब देशों ने सीरिया को अरब लीग में दोबारा शामिल किया, जिससे रिश्तों में कुछ सुधार दिखा है.