Exclusive: 1971 की लौट रही परछाईं के पीछे 'ना-पाक' का हाथ, भारत के पास बैकडोर डिप्लोमेसी सबसे बेहतर विकल्प कैसे?

बांग्लादेश में बढ़ती राजनीतिक अस्थिरता, कट्टरपंथी ताकतों की वापसी और चीन-पाकिस्तान की बढ़ती दखलंदाजी भारत के लिए 1971 जैसी राजनीतिक चुनौतियों का संकेत दे रही हैं. मौजूदा हालात में बांग्लादेश भारत के लिए खतरा बनने की राह पर क्यों है? मोदी सरकार इससे कैसे निपट सकती है? जानिए भारत के पूर्व राजदूत और विदेश मामलों के जानकार क्या कहते हैं.;

भारत सरकार ने 1971 में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान, अब बांग्लादेश में मानवीय संकट, सुरक्षा खतरे और रणनीतिक मजबूरी, पाकिस्तानी सेना की दमनचक्र के चलते युद्ध में हस्तक्षेप किया था. पांच दशक बाद एक बार फिर बांग्लादेश को लेकर नई चिंताएं उभर कर सामने आई हैं. बांग्लादेश में राजनीतिक अस्थिरता, सत्ता संघर्ष, कट्टरपंथी संगठनों की सक्रियता और बाहरी ताकतों, खासतौर पर चीन, अमेरिका और पाकिस्तान की बढ़ती मौजूदगी ने भारत के सामने एक नई लेकिन जानी-पहचानी चुनौती खड़ी कर दी है. सवाल यह नहीं है कि हालात बिगड़ रहे हैं या नहीं, सवाल यह है कि भारत इन हालातों से कैसे निपटेगा? उसके पास विकल्प क्या हैं?

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क्या कहते हैं विदेश मामलों के जानकार?

बांग्लादेश को बराबर का पार्टनर मानें - अशोक शर्मा

पूर्व राजदूत और एडिशनल सेक्रेटरी भारत सरकार अशोक शर्मा का बांग्लादेश के हालातों को लेकर कहना है, "केंद्र सरकार को बांग्लादेश को बराबर का पार्टनर के तौर पर सम्मान करना चाहिए. आप उन्हें घुसपैठिया, दीमक और नफरत का पात्र नहीं कह सकते. अगर हम धर्मनिरपेक्षता का सम्मान नहीं करेंगे, तो उनसे धर्मनिरपेक्ष बने रहने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?"

अशोक शर्मा के मुताबिक इस बात पर भी जोर देने की जरूरत है कि जब भी बांग्लादेश से समझौता होने पर ही उपमहाद्वीप में स्थिरता आएगी. लोकतांत्रिक चरित्र बनाए रखने के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव वहां जरूरी है. संवैधानिक संस्थाओं का सम्मान किया जाना चाहिए और ऐसी संस्थाओं को ज्यादा से ज्यादा स्वायत्तता दी जानी चाहिए.

पूर्व राजदूत के अनुसार विपक्ष को परेशान नहीं किया जाना चाहिए और विपक्षी नेताओं को सामान्य रूप से काम करने का अवसर दिया जाना चाहिए. यही कारण था कि जब कोई लोकतांत्रिक विकल्प नहीं था, तो एक हिंसक आंदोलन के जरिए शेख हसीना को सत्ता से हटा दिया गया था.

हालात 1971 से भी ज्यादा खराब - डॉ. ब्रह्मदीप अलूने  

विदेश मामलों के जानकार डॉ. ब्रह्मदीप अलूने का इस मसले पर कहते हैं, "बांग्लादेश के हालात बहुत खराब हैं. इसके बावजूद 1971 से वर्तमान संकट की तुलना आप नहीं कर सकते. उस समय पूर्वी पाकिस्तान के बंगाली भाषी लोग अपनी संस्कृति और सियासी अस्मिता की लड़ाई लड़ रहे थे. पाकिस्तान के सामने पूर्वी पाकिस्तान को पाकिस्तान के साथ जोड़े रखने की चुनौती थी. यानी पाकिस्तान को अखंड बनाए रखने की मामला था. वहीं, बंगाली भाषी बहुसंख्यक आबादी अपनी संस्कृति को जिंदा रखने और तत्कालीन सेना के दमन से परेशान होकर पाकिस्तान से अलग होना चाहती थी."

ब्रह्मदीप अलूने के मुताबिक वर्तमान हालात में बांग्लादेश अपने आंतरिक अंतर्विरोध से जूझ रहा है. पाकिस्तापरस्त और कट्टरपंथी तत्व सत्ता पर हावी हैं. इसलिए, वहां के हालात 1971 से भी ज्यादा खराब है. यह स्थिति वहां के अल्पसंख्यकों के हित में नहीं है.

जहां तक सवाल यह है कि भारत इन चुनौतियों का सामना कैसे करेगा तो इसके लिए हमारे पास विकल्प हैं. भारत के लिए 16 दिसंबर 1971 बहुत अहम दिन है. आर्थिक संसाधन, सामरिक और रणनीतिक दृष्टि से हमारे लिए बांग्लादेश के लोकतांत्रिक राष्ट्र बने रहना अहम है. ऐसा इसलिए कि उसके साथ हमारी लंबी सीमा लगती है. पूर्वोत्तर भारत के सभी राज्यों में शांति तभी संभव है, जब बांग्लादेश में चुनी हुई सरकार हो. बांग्लादेश से लगती सीमाएं सुरक्षित हों. बांग्लादेश शांत नहीं होगा तो पूर्वोत्तर अलगाववाद, भाषावाद की समस्याएं उठ खड़ी होंगी.

पाकिस्तानी आईएसआईएस बांग्लादेश के रास्ते भारत में आतंकी घुसपैठ कराने का प्रयास करेगी. ऐसे में पूर्वोत्तर के राज्यों में अशांति की चिंगारी भड़क सकती है. नकली नोट और तस्करी को बढ़ावा मिलेगा. ऐसा हुआ तो पाकिस्तान और चीन नई मुसीबत पैदा कर सकते हैं.

बैकडोर डिप्लोमेसी से हालात ट्रैक पर लाए भारत - राजेश भारती

विदेश मामलों पर पकड़ रखने वाले राजेश भारती का कहना है कि बांग्लादेश में जो हालात हैं, उसको देखते हुए भारत सरकार के पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं. इसके पीछे उनका तर्क है कि पिछले कुछ सालों में हमने अपने लोगों के बीच जो छवि वहां की बनाई है, वो इस समय सबसे बड़ी बाधा बनकर उभरी है. शेख हसीना उन्हीं कारणों से छात्र आंदोलन के बाद वहां से हटाई गईं.

उन्होंने कहा, "बांग्लादेश में सत्ता पर बैठे लोग और जिनके हाथ में छात्र राजनीति है, वे इस समय पाकिस्तान की कठपुतली बने हुए हैं. उन्हीं के सहारे पाकिस्तान चीन की सहायता से भारत को घेरने में जुटा है. वहां जो अभी हो रहा है, उसमें पाकिस्तान की भूमिका अहम है."

केंद्र सरकार को चाहिए कि वो बैकडोर डिप्लोमेसी के जरिए इस स्थिति को पटरी पर लाने की कोशिश करे. इसके जरिए भारत वहां की नौकरशाही के जरिए अगुवा नेताओं को दबाव ले सकती है. भारत को वहां डायरेक्ट दखल देना इस समय नुकसानदायक होगा. बांग्लादेश के मुख्य सलाहकार यूनुस खान भी भारत विरोध की राजनीति करते हैं. वहां की स्ट्रीट पॉलिटिक्स यानी जेन जी आंदोलन के मुखर चेहरे भी भारत विरोधी बयान दे रहे हैं.

चीन, अमेरिका और पाकिस्तान की वहां उपस्थिति है, लेकिन वो लोग चाहते हुए भी बहुत कुछ नहीं कर पाएंगे. वे लोग अपनी आर्थिक चुनौतियों का सामना भारत के बिना नहीं कर सकते. कट्टरपंथी जमात ए इस्लामी और खालिदा जिया की पार्टी सत्ता में आने की स्थिति में नहीं है. ताजा हालात में दोनों पार्टियों के पक्ष में समर्थन दिख रहा है, लेकिन यह अस्थायी उभार है. अवामी लीग की शेख हसीना ही सत्ता में वापसी करेगी.

1. 1971 और आज की स्थिति में क्या है समानता

1971 में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में राजनीतिक दमन, शरणार्थियों का भारत में पलायन, भारत विरोधी सैन्य तंत्र, पाकिस्तान की राजनीतिक आक्रामकता और अब बांग्लादेश में हालात भले युद्ध जैसे न हों, लेकिन सत्ता और विपक्ष के बीच गहराता टकराव, लोकतांत्रिक संस्थाओं पर अविश्वास, कट्टरपंथी और भारत-विरोधी नैरेटिव, बाहरी शक्तियों की रणनीतिक घुसपैठ, काफी हद तक भारत के लिए पहले की तरह चेतावनी बनकर उभरे हैं.

2. बांग्लादेश भारत के लिए चुनौती क्यों?

मौजूदा हालात में राजनीतिक अस्थिरता, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर सवाल, विपक्ष और सत्ता के बीच टकराव, सेना और सिविल शासन की भूमिका को लेकर अटकलें, कट्टरपंथी ताकतों की वापसी खासकर जमात ए इस्लामी, जैसे संगठनों की बढ़ती सक्रियता ने भारत विरोध को हवा दी है. वहां की हर घटना में भारत-विरोधी एजेंडा लेकर कट्टरपंथी तत्व सामने आ जाते है. हिंदुओं के खिलाफ हिंसा में एक युवक की मॉब लिंचिंग के दौरान मौत, अल्पसंख्यकों पर दबाव की खबरें सामने आ रही हैं.

इस स्थिति ने पूर्वोत्तर भारत की सुरक्षा पर असर डाला है. सीमा पार घुसपैठ का खतरा नजर आ रहे हैं. पूर्वोत्तर से आतंकी नेटवर्क के दोबारा सक्रिय होने की आशंका है. नॉर्थ-ईस्ट में अस्थिरता फैलाने की कोशिश भी छनकर आ रही हैं. अमेरिका, चीन और पाकिस्तान की एंट्री भारत की सिरदर्दी बढ़ा दी है. चीन का इंफ्रास्ट्रक्चर और पोर्ट निवेश, पाकिस्तान का खुफिया और वैचारिक प्रभाव एक तरह से ‘भारत को घेरने’ की रणनीति है.

3.  बांग्लादेश सिर्फ पड़ोसी नहीं, रणनीतिक साझेदार भी

बांग्लादेश के साथ भारत करीब 4000 किलोमीटर से ज्यादा बॉर्डर लगा है. पूर्वोत्तर राज्यों का लाइफलाइन कनेक्टिविटी, बंगाल की खाड़ी में भारत की समुद्री सुरक्षा, व्यापार, ट्रांजिट और ऊर्जा सहयोग, बांग्लादेश में अस्थिरता सीधे भारत की आंतरिक सुरक्षा से जुड़ी है.

क्राइसिस से ऐसे निपटे भारत 

1. कूटनीतिक संतुलन 

किसी एक राजनीतिक गुट के बजाय संस्थागत संवाद, सेना, प्रशासन और सिविल सोसाइटी से संपर्क कर वस्तुस्थिति को समझने की कोशिश करना होगा. ‘नो-इंटरफेरेंस लेकिन नो-इग्नोरेंस’ नीति पर अमल. किसी भी तरह वह चुनी हुई सरकार को बहाल करना भारत की पहली प्राथमिकता हो. उसके बाद सरकार बराबरी के आधार पर संबंधों को ट्रैक पर लाने की कोशिश करें.

2. रक्षा सहयोग पर जोर

इस बीच भारत सरकार सीमा प्रबंधन और खुफिया साझेदारी, आतंकवाद और कट्टरपंथ पर संयुक्त निगरानी, नॉर्थ-ईस्ट राज्यों की सुरक्षा में बढ़ोतरी करे.

3. चीन के प्रभाव का दे राजनीतिक जवाब

चीन के प्रभाव को देखते हुए वैकल्पिक इंफ्रास्ट्रक्चर और निवेश मॉडल पर जोर देकर उसे जवाब दे. BIMSTEC और इंडो-पैसिफिक रणनीति पर जोर और समुद्री सुरक्षा सहयोग बढ़ाए.

4. अर्थिक और जन सहयोग पर बल

व्यापार और रोजगार आधारित रिश्ते को फिर से पटरी पर लाने का प्रयास हो. शिक्षा, स्वास्थ्य और ट्रेनिंग प्रोग्राम, भारत-विरोधी नैरेटिव को सॉफ्ट पावर से काउंटर करना.

5. सैन्य कार्रवाई अंतिम विकल्प

भारत सरकार 1971 जैसी सैन्य कार्रवाई अंतिम विकल्प के रूप में अपनाए. ऐसा इसलिए कि मौजूदा वैश्विक परिस्थितियां अलग हैं. भारत की प्राथमिकता स्थिरता और साझेदारी की रही है. पहली प्राथमिकता यही हो कि जैसे-तैसे बातचीत से समस्या का समाधान निकले.

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