ना एंबुलेंस, ना पैसे… गोद में मरा बच्चा.... फिर प्लास्टिक थैले में बेटे की लाश लेकर 70 किमी का सफर, सरकारी सिस्टम ने पिता को किया बेबस

झारखंड के चाईबासा की एक सरकारी अस्पताल की दहलीज से निकली यह कहानी सिर्फ एक पिता के दुख की नहीं है, बल्कि उस सिस्टम की भी है जो सबसे जरूरतमंद वक्त पर साथ छोड़ देता है. जब इलाज, एंबुलेंस और सहारे की सबसे ज्यादा जरूरत थी, तब एक गरीब पिता को अपने चार महीने के बेटे की लाश प्लास्टिक की थैली में उठाकर बस से घर लौटना पड़ा. यह घटना गरीबी, लाचार पिता और सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की कड़वी हकीकत को उजागर करती है.;

( Image Source:  AI SORA )
Edited By :  हेमा पंत
Updated On : 21 Dec 2025 12:42 PM IST

झारखंड के चाईबासा से सामने आई यह घटना सिर्फ एक पिता के दर्द की कहानी नहीं है, बल्कि सरकारी सिस्टम की संवेदनहीनता और गरीबी की मार का आईना भी है. चार महीने के मासूम बेटे की सांसें अस्पताल में थम गईं, लेकिन उसके बाद भी पिता की परीक्षा खत्म नहीं हुई.

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न एंबुलेंस मिली, न जेब में पैसे थे. मजबूर पिता ने जो किया, वह इंसानियत को झकझोर देने वाला है. अपने कलेजे के टुकड़े को प्लास्टिक के थैले में रखकर 70 किलोमीटर दूर घर तक बस से सफर. यह कहानी सवाल पूछती है कि क्या गरीब की मौत भी सिस्टम के लिए मायने नहीं रखती?

बच्चे को था बुखार

पश्चिमी सिंहभूम जिले के नोआमुंडी थाना क्षेत्र के सुदूर गांव बालजोरी का रहने वाला दिम्बा चातुम्बा अपने चार महीने के बेटे कृष्णा को बचाने की उम्मीद लेकर चाईबासा सदर अस्पताल पहुंचा था. बच्चे को तेज बुखार, दस्त और सांस लेने में दिक्कत थी. पिता को भरोसा था कि सरकारी अस्पताल उसका सहारा बनेगा, लेकिन किसे पता था कि यही जगह उसकी जिंदगी का सबसे दर्दनाक मोड़ बन जाएगी.

इलाज के लिए किया जमशेदपुर रेफर 

जांच में सामने आया कि मासूम को मलेरिया था और वह खून की भारी कमी से जूझ रहा था. हालत बेहद नाजुक थी. डॉक्टरों ने साफ कहा कि बच्चे को वेंटिलेटर की जरूरत है, जो सदर अस्पताल में नहीं था. बेहतर इलाज के लिए उसे जमशेदपुर के महात्मा गांधी मेमोरियल मेडिकल कॉलेज अस्पताल ले जाने की सलाह दी गई, लेकिन 70 किलोमीटर दूर का सफर गरीब पिता के लिए नामुमकिन था.

नहीं मिली एंबुलेंस 

दिम्बा ने डॉक्टरों से गुहार लगाई कि उसका बच्चा यहीं इलाज पा जाए, क्योंकि उसके पास न तो यात्रा के पैसे थे और न ही कोई साधन. अस्पताल में ऑक्सीजन और दवाइयां दी गईं, लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था. शुक्रवार दोपहर तक चार महीने का कृष्णा जिंदगी की जंग हार गया. बेटे की मौत के बाद दिम्बा ने शव को घर ले जाने के लिए एंबुलेंस मांगी. उसकी जेब में सिर्फ 100 रुपये थे. निजी वाहन का सवाल ही नहीं उठता था. अस्पताल कर्मचारियों ने उसे इंतजार करने को कहा. बताया गया कि एकमात्र एंबुलेंस दूर किसी इलाके में गई हुई है. घंटों बीत गए, लेकिन कोई मदद नहीं पहुंची.

प्लास्टिक थैली में बच्चे की लाश को डाला

इंतजार करते-करते दिम्बा का सब्र टूट गया. उसने चुपचाप अस्पताल के बाहर से एक मोटी प्लास्टिक की थैली खरीदी, अपने 3.6 किलो के बेटे के शव को उसमें रखा और किसी को बताए बिना बस पकड़ ली. यह कोई प्रदर्शन नहीं था, बस एक मजबूर पिता का आखिरी फैसला था. जब दिम्बा अपने गांव पहुंचा और लोगों को पूरी कहानी बताई, तो हर आंख नम हो गई. सवाल उठने लगे कि आखिर सरकारी अस्पताल किसके लिए हैं? क्या गरीब की मजबूरी की कोई कीमत नहीं?

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