ये दिल्‍ली है मेरे यार... यहां अब सांस लेने के लिए भी लेनी पड़ेगी इजाजत!

महंगाई, बेरोजगारी, बढ़ते अपराध और न जाने किन-किन समस्‍याओं के लिए लोग प्रदरर्शन करते रहते हैं. लेकिन भारत में ऐसा पहली बार हुआ है कि लोगों की सांसों के लिए विरोध प्रदर्शन किया है. जी हां, बात हो रही है दिल्‍ली और आसपास के इलाकों में बढ़ते प्रदूषण के खिलाफ दिल्‍ली के इंडिया गेट पर लोग विरोध में इकट्ठा हुए.;

( Image Source:  ANI )
Edited By :  प्रवीण सिंह
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दिल्ली - वो शहर जो कभी अपने जज़्बे, अपने दिल और अपनी धड़कनों के लिए जाना जाता था, अब एक ऐसी जद्दोजहद का गवाह बन गया है, जिसमें लोग अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं - सांसों की लड़ाई. इंडिया गेट के सामने जब सैकड़ों लोग मास्क पहनकर “Right to live not just survive” और 'अब की बार एक्‍यूआई 400 के पार' के पोस्टर लिए खड़े थे, तो यह कोई राजनीतिक रैली नहीं थी - यह इंसान और ज़िंदगी के बीच की आखिरी पुकार थी. बच्चों की आंखों में आंसू थे, बुजुर्गों की सांसें भारी, और आसमान में फैली धुंध इस बात की गवाही दे रही थी कि दिल्ली अब सिर्फ एक शहर नहीं, बल्कि एक साइलेंट गैस चेंबर बन चुकी है.

हर साल की तरह इस बार भी सरकारें वादे और आदेशों में उलझी हैं, मगर जनता अब चुप नहीं है. यह प्रदर्शन किसी सरकार, पार्टी या विचारधारा के खिलाफ नहीं, बल्कि उस सिस्टम के खिलाफ है जो हर साल लोगों की सांसों को आंकड़ों में बदल देता है. यह वह दिन था जब दिल्ली ने आखिरकार अपनी थकी हुई, जहर से भरी हवा के खिलाफ आवाज़ उठाई - नारे इंसानियत के लिए थे, आक्रोश जीवन के लिए. यह सिर्फ एक प्रदर्शन नहीं, बल्कि आने वाले वक्त की चेतावनी है - कि अगर अब भी कुछ नहीं बदला, तो शायद अगली पीढ़ी को साफ हवा इतिहास की किताबों में पढ़नी पड़ेगी.

दिल्ली के अस्पताल भरे पड़े हैं - सांस, एलर्जी, अस्थमा और फेफड़ों की बीमारियों से जूझते लोगों से. डॉक्टरों के मुताबिक, पिछले एक महीने में दमा और ब्रॉन्काइटिस के मरीजों की संख्या दोगुनी हो चुकी है. लोग कहते हैं - “अब मास्क पहनना कोविड से बचाव नहीं, बल्कि हवा से बचाव है.” दिल्ली अब वह शहर नहीं रही जो कभी “दिलवालों की” कही जाती थी - यह अब ‘दमवालों’ की परीक्षा बन चुकी है.

धुंध में लिपटी दिल्ली - जब सूरज भी शर्माने लगा

दिल्ली-एनसीआर का हाल पिछले कुछ हफ्तों से किसी गैस चेंबर से कम नहीं. सुबह उठते ही आंखों में जलन, गले में खराश और बच्चों की खांसी की आवाज़ें अब आम बात हो गई हैं. हर साल अक्टूबर-नवंबर में जब खेतों में पराली जलती है और ठंडी हवाएं धीरे चलने लगती हैं, तो दिल्ली की हवा मौत का बादल बन जाती है. इस बार तो हालात और भी भयावह हैं - AQI (Air Quality Index) लगातार 450 से ऊपर बना हुआ है, जो ‘Severe Plus’ श्रेणी में आता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मानकों के अनुसार 50 से नीचे AQI ‘सेफ’ माना जाता है, लेकिन दिल्ली का स्तर उससे 10 गुना ज़्यादा है. ऐसे में यह केवल पर्यावरण की समस्या नहीं रही, बल्कि सीधे तौर पर स्वास्थ्य आपातकाल बन चुकी है.

जब सांस लेना भी लगने लगा गुनाह

प्रदूषण का असर अब हर उम्र, हर तबके पर साफ दिखाई दे रहा है. दिल्ली के कई अस्पतालों में सांस, एलर्जी, अस्थमा और फेफड़ों की बीमारियों से पीड़ित मरीजों की संख्या पिछले सालों की तुलना में दोगुनी हो चुकी है. सड़कों पर लोग मास्क तो पहनते हैं, लेकिन कहते हैं - अब यह कोविड से बचाव के लिए नहीं, बल्कि हवा से बचने के लिए ज़रूरी हो गया है.

लोगों का गुस्सा - ‘हम जिंदा रहना चाहते हैं!’

इंडिया गेट पर हुए इस प्रदर्शन में हर उम्र के लोग शामिल थे - छात्र, डॉक्टर, वकील, गृहिणियां और बुजुर्ग. 22 वर्षीय कॉलेज छात्रा ने कहा, “हम हर साल देखते हैं कि सरकारें बस आंकड़े दिखाकर चुप हो जाती हैं. लेकिन हमें तो हर दिन ज़हरीली हवा में सांस लेनी पड़ती है. हमें दवाई नहीं, साफ हवा चाहिए.” वहीं, एक बुजुर्ग व्यक्ति की आंखों में आंसू थे. उन्होंने कहा, “मैंने आज़ादी की लड़ाई नहीं देखी, पर आज अपने बच्चों की सांसों की लड़ाई देख रहा हूं. अगर हवा ही ज़हर बन गई तो जीने का मतलब क्या?” लोगों का यह आक्रोश इस बात की ओर इशारा करता है कि अब यह सिर्फ पर्यावरण या मौसम का मुद्दा नहीं रहा, बल्कि मानव अस्तित्व का सवाल बन गया है.

जब तरक्‍की ने कुदरत को कुर्बान कर दिया

दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण के कई कारण हैं -

  • पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने की समस्या
  • बढ़ता वाहन प्रदूषण
  • निर्माण स्थलों से उड़ती धूल
  • औद्योगिक धुआं
  • और सबसे बड़ी वजह - प्रबंधन की असफलता

हर साल कोर्ट से लेकर केंद्र और राज्य सरकारें आदेश जारी करती हैं, पराली पर रोक की बात होती है, स्कूल बंद करने या ऑड-ईवन लागू करने की बात होती है, लेकिन स्थायी समाधान कोई नहीं करता. सिस्टम की यह नाकामी अब जनता की नाराज़गी में बदल चुकी है. यही कारण है कि इस बार दिल्ली की जनता खुद सड़क पर उतरी - क्योंकि यह लड़ाई अब “क्लाइमेट चेंज” की नहीं, जिंदा रहने की है.

हवा नहीं, जहरीली गैस में बदल चुका वातावरण

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (CSE) की रिपोर्ट बताती है कि दिल्ली की हवा में PM 2.5 और PM 10 पार्टिकल्स की मात्रा WHO की सीमा से कई गुना ज़्यादा है. PM 2.5 इतना महीन होता है कि यह फेफड़ों की झिल्ली में जाकर घुस जाता है और धीरे-धीरे उन्हें जाम कर देता है. इससे न सिर्फ अस्थमा, बल्कि कैंसर, हृदय रोग और ब्रेन स्ट्रोक तक के खतरे बढ़ जाते हैं. शोध बताते हैं कि दिल्ली में हर साल लगभग 16,000 से ज़्यादा मौतें सिर्फ प्रदूषण से जुड़ी बीमारियों के कारण होती हैं. यानी यह एक ‘साइलेंट किलर’ है, जो न कोई आवाज़ करता है, न कोई दहशत, लेकिन धीरे-धीरे जीवन छीन लेता है.

समाधान क्या है? - जब तक जनता नहीं जागेगी, सरकार भी नहीं बदलेगी

विशेषज्ञ मानते हैं कि इस संकट से निकलने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और जनभागीदारी दोनों की ज़रूरत है. पराली प्रबंधन के लिए किसानों को वैकल्पिक तकनीक और सब्सिडी दी जाए. सार्वजनिक परिवहन को मजबूत किया जाए ताकि निजी वाहनों पर निर्भरता कम हो. निर्माण स्थलों और फैक्ट्रियों पर कड़े पर्यावरणीय नियम लागू किए जाएं. और सबसे ज़रूरी - लोगों को अपनी आदतें बदलनी होंगी.

हवा अगर जहर बने तो इंसानियत कैसे बचेगी?

यह प्रदर्शन सिर्फ एक शुरुआत है - एक चेतावनी कि अब बात बहुत आगे बढ़ चुकी है. सांस लेना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, और जब यह अधिकार छिनने लगे, तो लोकतंत्र की असली परीक्षा वहीं से शुरू होती है. दिल्ली की यह लड़ाई सिर्फ एक शहर की नहीं, बल्कि पूरे देश की लड़ाई है. क्योंकि अगर आज हमने हवा के लिए नहीं लड़ा, तो कल शायद हवा हमारे खिलाफ हो जाएगी.

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