दिल्ली में आत्महत्या के पीछे ‘कमाई की कमी’ सबसे बड़ा कारण: NCRB रिपोर्ट ने खोली कड़वी सच्चाई

दिल्ली में आत्महत्या के मामलों के पीछे आर्थिक अस्थिरता और बेरोजगारी बड़ा कारण बनकर उभरे हैं. NCRB की रिपोर्ट के मुताबिक, 2023 में दिल्ली में आत्महत्या करने वालों में आधे से ज़्यादा लोगों की सालाना आमदनी ₹1 लाख से कम थी. विशेषज्ञों का कहना है कि आर्थिक असुरक्षा, बेरोजगारी और मानसिक तनाव लोगों को टूटने पर मजबूर कर रहे हैं. Times of India की रिपोर्ट के अनुसार, यह आंकड़े दिल्ली की सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य प्रणाली की गहरी खामियों को उजागर करते हैं.;

( Image Source:  प्रतीकात्मक तस्वीर (Sora AI) )
Edited By :  प्रवीण सिंह
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दिल्ली की चमक-दमक और तेज़ रफ्तार ज़िंदगी के पीछे एक गहरी सच्चाई छिपी है - आर्थिक अस्थिरता और मानसिक तनाव का बढ़ता जाल, जो लोगों को धीरे-धीरे मौत की ओर धकेल रहा है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) की ताज़ा रिपोर्ट बताती है कि 2023 में दिल्ली में आत्महत्या करने वालों में आधे से ज़्यादा लोग ऐसे थे जिनकी सालाना आमदनी एक लाख रुपये से भी कम थी.

रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2023 में दिल्ली में कुल 3,131 आत्महत्या के मामले दर्ज किए गए. इनमें से 1,590 लोग ऐसे थे जिनकी मासिक आय 8,300 रुपये से भी कम थी. वहीं 765 लोग बेरोजगार थे, जिनकी कोई आय नहीं थी. हालांकि, केवल 241 मामलों में बेरोजगारी को सीधे आत्महत्या का कारण बताया गया, जबकि 24 मामलों में गरीबी और 36 मामलों में कर्ज या दिवालियापन जिम्मेदार पाया गया. हैरानी की बात यह है कि 513 मामलों में आत्महत्या का कारण अज्ञात रहा.

यह रुझान नया नहीं है. 2022 में भी 3,417 आत्महत्याएं दर्ज की गई थीं, जिनमें से 1,660 लोग सालाना एक लाख रुपये से कम कमाते थे और 773 बेरोजगार थे. 262 मामलों में बेरोजगारी, 28 में दिवालियापन और 25 में गरीबी को कारण माना गया था. 2021 में 2,840 लोगों ने अपनी जान दी थी, जिनमें से 1,424 की सालाना आय एक लाख से कम थी और 563 लोग बेरोजगार थे. उस साल भी 36 आत्महत्याएं कर्ज के बोझ से, 21 गरीबी से, और 288 बेरोजगारी से जुड़ी थीं.

गरीबी और आत्महत्या का गणित

राष्ट्रीय सैंपल सर्वे संगठन (NSSO) के नवीनतम आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली की लगभग 60% आबादी की मासिक प्रति व्यक्ति खर्च (MPCE) 8,000 रुपये से कम है - यानी सालाना आय लगभग एक लाख रुपये के आसपास. जबकि 2023-24 में दिल्ली का औसत MPCE करीब ₹8,500 प्रति माह था. इसका अर्थ यह है कि राजधानी की बड़ी आबादी आर्थिक असुरक्षा के घेरे में जी रही है, जो आत्महत्या जैसी मानसिक त्रासदियों का कारण बनती जा रही है.

"नौकरी सिर्फ रोज़गार नहीं, पहचान भी है"

टाइम्‍स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार ईशा मेहता, जो दो दशक से अधिक अनुभव वाली काउंसलिंग साइकोलॉजिस्ट हैं, कहती हैं, “वित्तीय अस्थिरता इंसान को भावनात्मक रूप से तोड़ देती है. हमारे समाज में नौकरी सिर्फ आजीविका नहीं, बल्कि आत्म-परिचय का हिस्सा बन जाती है. जब यह आधार हिलता है, तो सोचने-समझने की क्षमता भी डगमगा जाती है.” वे बताती हैं कि आर्थिक अस्थिरता सिर्फ गरीबों तक सीमित नहीं, बल्कि यह हर वर्ग में अलग-अलग रूप में असर डालती है. अमीर वर्ग में यह ‘जीवनशैली बनाए रखने का दबाव’ बन जाती है, जबकि गरीब वर्ग में यह ‘जीवन बचाने की लड़ाई’.

“सेल्फ-केयर की बात उन तक नहीं पहुंचती जिनके पास रोटी नहीं”

सोनाली मंगल, जो लगभग एक दशक से काउंसलिंग कर रही हैं, कहती हैं कि मानसिक स्वास्थ्य पर बातचीत अक्सर उन्हीं तक सीमित रह जाती है जो इसे वहन कर सकते हैं. “किसी ऐसे व्यक्ति को ‘सेल्फ-केयर’ का संदेश देना, जिसके पास खाने को भी नहीं है, एक तरह का व्यावहारिक मज़ाक है. जिनके लिए रोज़ का लक्ष्य सिर्फ परिवार का पेट भरना है, उनके लिए मानसिक स्वास्थ्य एक विलासिता है.” वे आगे कहती हैं कि आर्थिक निर्भरता खासकर महिलाओं और बच्चों के लिए एक जाल बन जाती है. सोनाली बताती हैं, “जब न तो भावनात्मक और न ही वित्तीय सुरक्षा हो, तो एक हिंसक या अस्वस्थ माहौल छोड़ना लगभग असंभव हो जाता है.”

NCRB के आंकड़ों के पीछे की सच्चाई

आत्महत्या से जुड़े ये आंकड़े दिल्ली जैसे विकसित शहर के सामाजिक ढांचे पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं. जहां एक ओर शहर ‘विकास’ और ‘वेलनेस’ के मॉडल के रूप में पेश किया जाता है, वहीं दूसरी ओर हर दिन औसतन 8-9 लोग अपनी जान दे रहे हैं. विशेषज्ञों का मानना है कि यह केवल आर्थिक संकट का नहीं, बल्कि सामाजिक समर्थन तंत्र की विफलता का भी संकेत है. काउंसलिंग सेवाओं की कमी, मानसिक स्वास्थ्य पर कलंक, बेरोजगारी और बढ़ती आर्थिक असमानता - ये सब मिलकर आत्महत्या जैसी घटनाओं को जन्म दे रहे हैं.

दिल्ली की NCRB रिपोर्ट सिर्फ आंकड़े नहीं, बल्कि एक चेतावनी है - उस समाज के लिए जो चमक-दमक के पीछे इंसानों की टूटती ज़िंदगियों को भूल गया है. आत्महत्या के पीछे केवल एक कारण नहीं होता, लेकिन अगर आर्थिक अस्थिरता, बेरोजगारी और मानसिक स्वास्थ्य की उपेक्षा को न सुलझाया गया, तो आने वाले वर्षों में यह आंकड़े सिर्फ बढ़ेंगे और दिल्ली की ऊंची इमारतों की छाया में और ज़िंदगियां खो जाएंगी.

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