बिहार चुनाव का क्या है राष्ट्रीय महत्व, इसे क्यों माना जाता है देश के 'पॉलिटिकल पल्स' की लड़ाई?

बिहार विधानसभा का चुनाव का असर सिर्फ राज्य की सीमा में सीमित नहीं है. यह पूरे भारत की राजनीति के मिजाज का प्रतीक माना जाता है. इसलिए, इसे केवल विधानसभा का चुनाव नहीं बल्कि राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय करने वाली सियासी लड़ाई कहना ज्यादा सही होगा. इस बार नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले 20 साल के शासन को चुनौती देने के लिए विपक्षी महागठबंधन चुनाव मैदान में है. साथ ही नए गठबंधन वाले भी किस्मत आजमा रहे हैं.;

By :  धीरेंद्र कुमार मिश्रा
Updated On : 9 July 2025 5:25 PM IST

बिहार का विधानसभा चुनाव देश की राजनीतिक दिशा तय करने वाला संग्राम माना जाता है. केंद्र की राजनीति हो या विपक्ष की रणनीति, बिहार का जनादेश हर बार भारतीय राजनीति को नया संदेश देता है. यही वजह है कि बिहार विधानसभा चुनाव राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज 'लिटमस टेस्ट' की तरह होता है.

फिर इस बार बिहार का चुनाव ऑपरेशन सिंदूर के बार हो रहा है. महाराष्ट्र में भाषाई विवाद चरम पर है. ईसी का चुनाव सुधार प्रक्रिया के तहत इस हर हाल में वोटिंग कराने पर उतारू है. पूरा विपक्ष  इस फैसले के खिलाफ आंदोलन के मूड में है. चुनाव आयोग के एसआईआर (विशेष गहन पुनरीक्षण) को लेकर गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई है. ये मसले प्रदेश के साथ पूरे देश की राजनीति से जुड़े हैं.

5 राज्यों के चुनाव पर दिखेगा इसका असर

बिहार में नवंबर 2025 में चुनाव संपन्न होने के बाद मई 2026 में पश्चिम बंगाल, असम, पुद्दूचेरी, तमिलनाडु और केरल विधानसभा चुनाव होंगे. तय है बिहार चुनाव का असर इन सभी राज्यों के चुनावों पर देखने को मिलेगा.

देश की राजनीति को देते आए हैं वैचारिक मोड़

वैसे भी इमरजेंसी के खिलाफ जेपी आंदोलन, आरक्षण को लेकर मंडल आंदोलन या राम मंदिर आंदोलन या जाति जनगणना की बात, बिहार की जनता ने हर मसले का समाधान पहले बैलेट पेपर डालकर और अब बटन दबाकर देश को वैचारिक मोड़ दिए हैं. यही वजह है कि बिहार विधानसभा चुनाव को देश की राजनीति के लिए काफी अहम माना जाता है. अगर केंद्र में बैठी सरकार को बिहार में हार मिलती है, तो उसका असर आगामी लोकसभा चुनावों तक देखा जाता है. वहीं, अगर जीत मिलती है, तो उसे राष्ट्रीय समर्थन का संकेत माना जाता है.

जातीय जनगणना के लिहाज से बनेगा 'ट्रेंडसेटर'

बिहार का चुनाव जातीय समीकरणों से शुरू होता है और उसी के हित को ध्यान में रखकर संपन्न होता है. देश में आने वाले दिनों में केंद्र सरकार जातीय जनगणना कराएगी. बिहार चुनाव प्रचार के दौरान इस सियासी बवाल मचना तय है. ऐसे में अगर बिहार में कोई पार्टी जातीय समीकरण की बाधाओं को तोड़कर विकास के एजेंडे पर चुनाव जीतती है, तो यह राष्ट्रीय राजनीति में ट्रेंडसेटर बन जाता है.

जेपी आंदोलन, आडवाणी रथयात्रा, अब जातीय जनगणना का दिखेगा राष्ट्रीय राजनीति पर असर

बिहारी जनमानस की सियासी सोच हमेशा से राष्ट्रीय फलक पर केंद्रित रही है. यही वजह है कि बिहार में आपको क्षेत्रवाद और भाषाई मसले को हिंसक घटनाएं व भेदभाव के मामले बहुत कम सामने नहीं आते. आजादी के बाद जैसे ही कांग्रेस सरकार ने लोगों को मोहभंग हुआ तो सबसे पहले जेपी के 'समग्र आंदोलन' की शुरुआत बिहार से ही हुई थी. जेपी के आंदोलन ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया था. नीतीश कुमार, लालू यादव, सुशील कुमार मोदी और शरद यादव जैसे नेता उसी आंदोलन के पैदाइश हैं. इस आंदोलन को बाद में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय राजनीति दोनों पर पड़ा. प्रदेश की राजनीति में सत्ता परिवर्तन दौर चला और कांग्रेस धीरे—धीरे कमजोर होती गई.

बिहार में पिछले 35 साल से स्थित सरकार का दौर है. इसका असर अब दूसरे राज्यों में भी देखने को मिल रहा है. यूपी, महाराष्ट्र, एमपी, जैसे राज्यों में स्थिर सरकार का दौर उसी का प्रतीक है. बिहार में पहले 15 साल तक लालू यादव का दबदवा रहा उसके बाद लगातार 20 साल से नीतीश कुमार सीएम है. सियासी जानकारों का मानना है कि बिहार के बड़े नेताओं का राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव रहा है. यही एक कारण है कि बिहार में जो कुछ भी होता है, उसका असर पूरे भारत पर पड़ता है. जयप्रकाश नारायण, के.बी. सहाय, कर्पूरी ठाकुर, दरोगा प्रसाद राय, बी.पी. मंडल, ये सभी राज्य स्तर के नेता होने के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर के नेता भी थे.

मंडल—कमंडल ने तो बदल दी देश की दिशा

साल 1979 में गठित मंडल आयोग जिसकी अध्यक्षता बी. पी. मंडल ने की थी, ने 1960 के दशक के अंत में कुछ समय के लिए बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया था, का पूरे भारत में उनकी सियासी सोच का प्रभाव पड़ा था. उन्होंने ओबीसी के बीए 27 प्रतिशत आरक्षण की वकालत की थी.

इसके बाद राम मंदिर मुद्दे के महत्व और संवेदनशीलता को देखते हुए 1990 में आडवाणी द्वारा रथ यात्रा रोके जाने की घटना शायद बिहार और भारत दोनों के राजनीतिक इतिहास के महत्वपूर्ण क्षणों में से एक है. बीजेपी के वरिष्ठ नेता ने गुजरात के सोमनाथ से यात्रा शुरू की थी और अयोध्या में इसका समापन होना था. किसी राज्य सरकार की हिम्मत नहीं हुई कि आडवानी की रथ यात्रा को रोक दें, लेकिन तत्कालीन सीएम लालू यादव ने यह भांपते हुए कि इससे सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ सकता है, आईएएस अधिकारी आर. के. सिंह को उन्हें गिरफ्तार करने का आदेश दिया था.

भाजपा उस समय वी. पी. सिंह सरकार का समर्थन कर रही थी और आडवाणी को गिरफ्तार करने से सरकार गिर सकती थी और हिंसा का सिलसिला शुरू हो सकता था. इसके बावजूद उत्तर बिहार के समस्तीपुर में रथयात्रा रोक दी गई. आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया, जिसके बाद बीजेपी ने वी.पी. सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार से समर्थन वापस ले लिया और परिणामस्वरूप वह सरकार गिर गई. इस घटना ने देश के राजनीतिक क्षितिज पर भगवा पार्टी के एक शक्तिशाली ताकत के रूप में उभरने का मार्ग प्रशस्त किया.

अब जाति जनगणना की शुरुआत बिहार से हुई है. इस बार बिहार विधानसभा चुनाव में इसका असर दिखेगा. उसके बाद राष्ट्रीय स्तर पर जातीय जनगणना होनी है. ऐसे में बिहार का चुनाव परिणाम इस मसले को नया रंग दे सकता है.

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